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25 फ़रवरी 2014

एक गजल



हैवान हो गये
राजेश त्रिपाठी
इनसान थे कभी जो, हैवान हो गये।
वो तो मुश्किलों का सामान हो गये।।
      कहीं औरतों की अस्मत है लुट रही।
      कहीं मजलूमों की सांसें हैं घुट रही।।
      कहीं हर तरफ नफरत है पल रही।
      इनसानी वसूलों की बलि है चढ़ रही।।
खतरों के हर तरफ इमकान हो गये।
ये देख कर हम तो हैरान हो गये।।
      मतलबपरस्त हैं अब यार हैं कहां।
      सच पूछिए तो सच्चा प्यार है कहां।।
      इनसान से बढ़ कर पैसा हो जहां।
      कैसे कोई अजमत बचायेगा वहां।।
इनसान तो धरती के भगवान हो गये।
जो मुफलिस हैं और भी हलकान हो गये।।
      फाकाकशी कहीं है कहीं जुल्म-ओ-बरबादी।
      तकलीफजदा है मुल्क की आधी आबादी।।
      सियासत की चालों का हुआ ओ असर है।
      बेल नफरत की फैली शहर दर शहर है।।
चारों तरफ कोहराम के मंजर हैं हो गये।
अमन के फरिश्ते तो जाने कहां सो गये।।
      हद हो गयी अब तो कोई जतन कीजिए।
      मुल्क में अमन हो  इल्म ऐसा कीजिए।।
      जुल्मत से ये दुनिया है बेजार हो गयी।
      मुहब्बत की रोशनी की दरकार हो गयी।।
जो हो रहा वह देख कर हम तो पशेमान हो गये।
क्या थे, क्या था होना क्या यहां इनसान हो गये।।
     


     

2 टिप्‍पणियां:

  1. अर्थपूर्ण रचना के लिए आपको साधूवाद ........राजेश जी

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    1. प्रिय समीर जी आभार है आभार है। रचना पसंद की यह आपका प्यार है। ऐसी मुश्किलों में मुब्तिला संसार है। हम समझते हैं कि रचना में तल्खी की दरकार है। गर कलम सो जायेगी तो भारत भी सो जायेगा। फिर भला कौन हवा बदलाव की लायेगा।

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