ब्लौग सेतु....

26 सितंबर 2014

भीगे शब्द -- शिवनाथ कुमार


भीगे गीले शब्द 
जिन्हें मैं छोड़ चुका था 
हर रिश्ते नाते 
जिनसे मैं तोड़ चुका था

सोचा था कि
अब नहीं आऊँगा उनके हाथ 
पर आज महफ़िल जमाए बैठा हूँ 
फिर से 
भीगी रात में 
उन्हीं भीगे शब्दों के साथ.... !!



23 सितंबर 2014

मेरे शब्द -- शिवानी गौर

मेरे शब्द ,
अब
मुझसे भी कुछ नहीं कहते ,
चुप से खड़े हैं
परछाईयाँ थामे ,
कर दिया है
उनका श्राद्ध ,

प्रेम के मन्त्रों ने

 शिवानी गौर जी की कलम से निकली कुछ पंक्तियाँ


20 सितंबर 2014

उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं

एक गज़ल


उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं

.









राजेश त्रिपाठी
सदियां गुजर गयीं पर, तकदीर नहीं बदली।
मुफलिस अब तलक जहान में, पीछे खड़े हैं।।

औरों का हक मार कर, जो बन बैठे हैं अमीर।
उन्हें खबर नहीं कैसे-कैसे लोग तकदीरों से लड़े हैं।।

पांव में अब तलक जितने भी छाले पड़े हैं।
वे न जाने कितने बेबस लिए नाले खड़े हैं।।

कोई रहबर अब तो राह दिखलाए ऐ खुदा।
जिंदगी के दोराहे पे , हम जाने कबसे खड़े हैं।।

उनको अपनी शान-शौकत की बस है फिकर।
कितने गरीब मुसलसल, बिन निवाले के पड़े हैं।।

उनकी दहशत, उनके रुतबे का है ये असर।
मजलूम खामोश हैं, उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं।।

चौराहे पे भीख मांगता है, देश का मुस्तकबिल।
उनको क्या फिकर, जिनके जूतों में भी हीरे जड़े हैं।।

मुल्क का माहौल अब पुरअम्न कैसे हो भला।
हैवान जब हर सिम्त हाथों में लिये खंजर खड़े हैं।।

किसी बुजुर्ग के चेहरे को जरा गौर से पढ़ो।
हर झुर्री गवाह है, वो कितनी आफतों से लड़े हैं।।

आप अपनी डफली लिए, राग अपना छेड़िए।
छोड़िए मुफलिसों को , आप तकदीर वाले ब़ड़े हैं।।

चांदी-सोने की थाल में जो जीमते छप्पन प्रकार।
खबर उनकी नहीं, जिंदगी के लिए जो कचडों से भिड़े हैं।।

आपका क्या, मौज मस्ती, हर मौसम त्यौहार है।
कुछ नयन ऐसे हैं, जिनके हिस्से सिर्फ आंसू ही पड़े हैं।।

इनसान होंगे जो इनसानों की मुश्किल जानते।
आप तो लगता है कि इनसानों से भी बड़े हैं।
* नाले = विलाप, चीख-पुकार
* पुरअम्न = शांतिपूर्ण

17 सितंबर 2014

चाँद तारों की गुफ्तगू सुनता रहा रात भर

-गूगल से साभार


चाँद तारों की गुफ्तगू सुनता रहा रात भर
जलन से बादल रंग बदलता रहा रात भर

नज़र में आने को बेताब एक परिंदा 
हवा में कलाबाजियाँ करता रहा रात भर

जलती शमा के इश्क़ में पागल परवाना
काँच पर  सर  पटकता  रहा  रात  भर

किसी और को न पा कर हवा फिर से
सोते पेड़ को  जगाती  रही  रात  भर

मखमल के बिस्तर से सड़क के फूटपाथ तक
ख़ाबों का सौदा होता रहा रात  भर

नादान औलादों की गुस्ताखी माफ़ कर, वो 
फ़िज़ा को शबनम से सजाता रहा रात भर

सबकी जरूरत जान कर थका हारा सूरज
फिर से जलने को तैयार होता रहा रात भर

16 सितंबर 2014

फांसी - श्याम कोरी 'उदय'


बहुत हो गया, एक काम करो -
चढ़ा दो
उसे फांसी पर !

क्यों, क्योंकि -
वह गांधीवादी तो है
पर तालीबानी गांधीवादी है !

वह अहिंसा का पुजारी तो है
पर हिटलर है !

वह बहुत खतरनाक है !
क्यों, क्योंकि -
वह खुद के लिए नहीं
आम लोगों के लिए लड़ रहा है !

ऐंसे लोग बेहद खतरनाक होते हैं
जो खुद के लिए न लड़कर
आम लोगों के लिए लड़ते हैं !

वह किसी न किसी दिन
हमारे लिए
खतरा साबित होकर रहेगा !

जितना बड़ा खतरा आज है
उससे भी कहीं ज्यादा बड़ा खतरा !

इसलिए -
जाओ, पकड़ के ले आओ उसे
ड़ाल दो, किसी अंधेरी काल कोठारी में !

और तो और, मौक़ा मिलते ही -
चढ़ा दो
उसे फांसी पर !!


लेखक परिचय -- श्याम कोरी 'उदय'


12 सितंबर 2014

किस कदर गिर गया इनसान देखिए

 राजेश त्रिपाठी 
 किस कदर गिर गया है अब इनसान देखिए।
रिश्तों की कद्र नहीं, पैसे की पहचान देखिए।।

सारे उसूल, अब सारी रवायत दफन हुई।
दर-दर है बिक रहा अब ईमान देखिए।।

पैसा ही आज सब है, ये माई-बाप है।
पैसा जैसे चलाये, चल रहा इनसान देखिए।।

कुछ लोग ऊंचे ओहदों पर बैठ यों ऐंठ रहे हैं।
 खुद को वो समझते हैं, धरती का भगवान देखिए।।

बेटे को पढ़ा-लिखा काबिल बना दिया।
वृद्धाश्रम में पल रहे वे मां-बाप देखिए।।

वो दिन-रात तरक्की का ढोल पीट रहे हैं।
भूखा सो रहा आधा हिंदोस्तान देखिए।।

हम क्या कहें किस तरह मुल्क के हालात हो रहे।
हर तरफ हैं अब तूफानों के इमकान देखिए।।

हर गली, हर गांव, हर शहर में खौफ का साया।
कितने मुश्किलों में घिर गयी अब जान देखिए।।

'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' भूल गये हैं।
मजहब के नाम पर उठ रहे हैं कितने तूफान देखिए।।

इस कदर चलता रहा गर ये हंगामा मुसलसल।
फिर टुकड़ों में न बंट जाये हिंदोस्तान देखिए।।

वो जिनको प्यार है इस मुल्क, इनसानियत से।
वे चेत जायें वरना होंगे वे भी परेशान देखिए।।

आदम की जात पहले इतनी खूंखार नहीं थी।
क्या हो गया अब हर हाथ में हैं हथियार देखिए।।

वो दिन गये जब दिलों में मोहब्बत का ठौर था।
अब बस नफरत, नफरत, नफत का है राज देखिए।।

हो सके तो इनसानियत की हिफाजत करे कोई।
अब तो दुनिया में है स्वार्थ का व्यवहार देखिए।।

इस कदर शक और खौफ का आलम रवां-दवां।
उठ गया है सब पर से अब ऐतबार देखिए।।

कुछ इस कदर हैं हालात आज दुनिया के ।
डर है कभी हमसाया ही न कर दे वार देखिए।

9 सितंबर 2014

अंतिम कविता -- संध्या शर्मा :)


सृष्टि के अंतिम दिन
उसके और हमारे बीच
कोई नहीं होगा
तब मृत्यु
एक कविता होगी 
एक अंतिम कविता
बिना किसी भेद-भाव के
स्वागत करेगी सबका
उस दिन यह दुनिया
न तेरी होगी
न मेरी होगी
जब धरा लुढ़क रही होगी
खुल जायेगा
सिन्धु का तट बंध
बिखर जायेगा अम्बर प्यारा 
अंधकार के महागर्त में
खो जायेगा जहाँ सारा 
तब हम बहेंगे
पानी बनकर साथ-साथ
नए सिरे से रचना होगी
कुछ क्षण को ही सही
ये दुनिया अपनी होगी 
एक ओर हो रहा होगा पतन
कहीं मिलेगा नवयुग को जीवन..!!



4 सितंबर 2014

आपस में टकराना क्या -- दिगम्बर नासवा

ध्यान रखो घर के बूढ़ों का, उनसे आँख चुराना क्या
दो बोलों के प्यासे हैं वो, प्यासों को तड़पाना क्या

हिंदू मंदिर, मस्जिद मुस्लिम, चर्च ढूँढते ईसाई
सब की मंज़िल एक है तो फिर, आपस में टकराना क्या

चप्पू छोटे, नाव पुरानी, लहरों का भीषण नर्तन
रोड़े आते हैं तो आएँ, साहिल पर सुस्ताना क्या


अपना दिल, अपनी करनी, फ़िक्र करें क्यों दुनिया की
थोड़े दिन तक चर्चा होगी, चर्चों से घबराना क्या

जलते जंगल, बर्फ पिघलती, कायनात क्यों खफा खफा
जैसी करनी वैसी भरनी, फल से अब कतराना क्या

 लेखक परिचय - दिगम्बर नासवा 


2 सितंबर 2014

हो सके तो किसी का सहारा बनो



राजेश त्रिपाठी

जरूरी नहीं कि तुम आसमां का सितारा बनो।
अगर हो सके तो किसी का सहारा बनो।।

कभी-कभी मझधार में डुबो देती है कश्ती भी।
हो सके तो किसी डूबते का किनारा बनो।।

जन्म आदम का मिलता है भाग्य से।
जरूरी नहीं कि मनुज दोबारा बनो।।

उपकार जितना बन सके करते चलो।
हो सके तो दुखियों की आंख का तारा बनो।।

जो मजलूम हैं महरूम हैं इस दुनिया में।
उनके हक की आवाज, उनका नारा बनो।।

रास्ते खुद मंजिलों तक ले जायेंगे तुमको।
हौसला रखो बुलंद न तुम नाकारा बनो।।

मतलबपरस्त हो गयी है अब दुनिया।
सोचो-समझो फिर किसी का सहारा बनो।।

प्यार इक व्यापार बन गया है आजकल।
इससे बच कर रहो या फिर आवारा बनो।।

अब यहां हवन करते भी हाथ जलते हैं।
जांचो-पऱखो फिर किसी का प्यारा बनो।।

तकदीर ऊपर से लिख कर नहीं आती।
अपनी तकदीर के बादशाह, खुदारा बनो।।