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20 जून 2016

एक गजल

  
कोई अपना बिछड़ गया होगा

राजेश त्रिपाठी

देखो कुटिया का दम अब घुटता है।
सामने इक महल आ तना  होगा।।

उसकी आंखों में अब सिर्फ आंसू हैं।
सपना सुंदर-सा छिन गया होगा।।

वह  तस्वीरे  गम  मायूसी है ।
वक्त ने हर कदम छला होगा।।

उसको मुसलसल है इक तलाश।
कोई अपना बिछड़ गया होगा।।

जिस्म घायल है, दिल पशेमां है।
सानिहा* कोई गुजर गया होगा ।।

थक के बैठा है दरख्तों के तले ।
जानिबे मंजिल है, ठहर गया होगा।।

हर तरफ जुल्म औ दौरे मायूसी है।
कारवां इंसाफ का ठहर गया होगा।।

उसका चेहरा किताब है दिल का।
हर तरफ दर्द ही दर्द लिखा होगा।।

ख्वाबों के सब्जबाग जाने कहां गये।
अब तो हसीं सपना बिखर गया होगा।।

वह गरीब है बारहा* करता फांकाकसी।
तरक्की का कारवां कहीं ठहर गया होगा।।

रो रही है जार-जार कोई दुख्तर ।
जख्म कोई अजनबी दे गया होगा।।

कलम कुंद है लब खामोश से हैं।
सच कहनेवालों पे संगीनों का पहरा होगा।

उसकी चीख का भी ना हो सका असर।
लगता है निजामे वक्त भी बहरा होगा।।

आपको इनसानियत का है वास्ता।
सुधारो मुल्क वरना दर्द ये और भी गहरा होगा।।
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 सानिहा* =दुर्घटना, हादसा, मुसीबत
बारहा*= अकसर, बारबार, बहुधा
दुख्तर* =बेटी, पुत्री




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