दिन सावन के
तरसावन के
कौंधे बिजली
यादें उजली
अंगड़ाई ले
सांझें मचली
आते सपने
मन भावन के...
चलती पछुआ
बचते बिछिआ
सिमटे-सहमें
मन का कछुआ
हरियाए तन
सब घावन के
नदिया उमड़ी
सुधियां घुमड़ी
लागी काटन
हंसुली रखड़ी
छाये बदरा
तर-सावन के..
बरसे बदरा
रिसता कजरा
बांधूं कैसे
पहुंची गजरा
बैरी दिन हैं
दुख पावन के...
मीठे सपने
कब है अपने
चकुआ मन का
लगता जपने
कितने दिन हैं
पिऊ आवन के..
--विनोद रायसरा
bahut badhiya
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-07-2016) को "मौन हो जाता है अत्यंत आवश्यक" (चर्चा अंक-2413) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सावन पर सुंदर रचना...ट
जवाब देंहटाएंआभार
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसावन आये तो हिचुक आवे ... पता नहीं पियु आवे न आवे ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ...
सुंदर रचना
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