राजेश त्रिपाठी
रहबर कभी थे आजकल राहजन होने लगे।
मूल्य सारे क्यों भला इस तरह खोने लगे।।
स्वार्थ की आग में जल गयी इनसानियत।
दुश्मनों की कौन पूछे दोस्तों से डर लगे।।
जमीं पर था कभी अब आसमां को चूमता।
उसको इनसानियत का पाठ बेमानी लगे।।
झोंपड़ी सहमी हुई है, बंगले तने शान से।
ये तरक्की की तो हमें बस लंतरानी लगे।।
आपने देखा अपना आज का ये हिंदोस्तां।
हर तरफ मुफलिसी औ गम के मेले लगे।।
कोई मालामाल तो कर रहा है फांके कोई।
ख्वाब गांधी का तो अब यहां फानी लगे।।
हर तरफ नफऱत रवां है, आदमी बेजार है।
प्यार लेता सिंसकियां दुश्मनी हंसती लगे।।
हम भला क्या कहें अब सारा जहां बीमार है।
मुल्क में लोग खौफ के ख्वाब हैं बोने लगे।।
पाठ समता का कभी जिसने पढ़ाया खो गया।
सुख की सोये नींद कोई कोई कर रहा रतजगे।।
दुनिया में जो था आला आज वह बदहाल है।
ये खुशी तो है नहीं हंसता आदमी रोने लगे।।
प्रिय कुलदीप जी मेरे भावों को आदर देने के लिए आभार। नयी पुरानी हलचल में इसे स्थान देकर इसको व्यापक फलक देने के आपके प्रयास को साधुवाद। आपका यही प्यार हमें और बेहतर कुछ लिखने का प्रोत्साहन देगा।
जवाब देंहटाएंप्रिय शास्त्री जी नमन। आपका सहस्रशः आभार श्रीमन। आपने मेर भावों को सराहा यह आपका प्यार है। इस कृपा के लिए आपको प्रणाम शत बार है। चर्चा में भी होगी हमारी चर्चा वाह क्या बात है। आपकी जर्रानवाजी है वरना अपनी क्या बिसात है।
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