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15 जनवरी 2014

क्या गीत खुशी के गायें

               



राजेश त्रिपाठी
पीड़ा का पर्याय जिंदगी, जब आहत हैं भावनाएं।
रंजो-गम का आलम है, क्या गीत खुशी के गायें।।
      सपने सारे टूट रहे हैं, जब देश लुटेरे लूट रहे हैं।
      वे कहते प्रगति हो रही, हम तो पीछे छूट रहे हैं।।
      राजनीति के दांवपेंच से, आम आदमी है बेहाल।
      कौन सही है, गलत कौन, समझ न आये चाल।।
दहशत का है राज जहां पर, लुटती हैं ललनाएं।
अंधियारे का राज जहां, क्या गीत खुशी के गायें।।
      दिशा दिशा में दावानल, कण कण में कोहराम।
      कहीं धमाका कहीं गोलियां चलती हैं अविराम।।
      हर तरफ नफरतों का अंधेरा घना है।
आदमी आदमी का दुश्मन बना है।।
ईमान और इंसान बिक रहे, छीज रहीं मान्यताएं।
हो फरेब का राज जहां, क्या गीत खुशी के गायें।।
      सत्ता में जो जा बैठे हैं, उसके मद में वो हैं चूर।
      सब्जबाग झूठे दिखलाते,कहते अब दुख होंगे दूर।।
      पैसे वाले मस्ती में हैं, है गरीब तंगी से त्रस्त।
      महंगाई की मार से जिसकी जिंदगी है पस्त।।
पैसे से पहचान हो रही,फीकी हैं योग्यताएं।
आहत हैं अरमान, क्या गीत खुशी के गाये।।
      वादों की फसल बो रहे, ठंडे घरों में जो सो रहे।
      आम आदमी पस्त है, वे दिन-दिन मस्त हो रहे।।
      फाइलों में कैद हैं सपने, दूने होते हैं दुख अपने।
      हालत बदतर है पर उनकी लफ्फाजी क्या कहने।।
सब्र छूट रहा बशर का, जब टूट रहीं आशाएं।
गम की महफिल में, क्या गीत खुशी के गायें।।
     
     
     
     
     

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