ब्लौग सेतु....

18 नवंबर 2014

अटक गया विचार-- बृजेश नीरज

माथे पर सलवटें;

आसमान पर जैसे

बादल का टुकड़ा थम गया हो;

समुद्र में

लहरें चलते रूक गयीं हों,

कोई ख्याल आकर अटक गया।

धकियाने की कोशिश बेकार,

सिर झटकने से भी

निशान नहीं जाते।

सावन के बादलों की तरह

घुमड़कर अटक जाता है

वहीं

उसी जगह

उसी बिन्दु पर।

काफी वजनी है;

सिर भारी हो चला

आंखें थक गईं,

पलकें बोझल।

सहा नहीं जाता

इस विचार का वजन।

आदत नहीं रही

इतना बोझ उठाने की;

अब तो घर का राशन भी

भार में इतना नहीं होता कि

आदत बनी रहे।

बहुत देर तक अटका रहा;

वह कोई तनख्वाह तो नहीं

झट खतम हो जाए।

अभी भी अटका है वहीं

सिर को भारी करता।

बहुत देर से कुछ नहीं सोचा।

सोचते हैं भी कहां

सोचते तो क्यों अटकता।

इस न सोचने,

न बोलने के कारण ही

अटक गयी है जिंदगी।

तालाब में फेंकी गई पालीथीन की तरह

तैर रहा है विचार

दिमाग में

सोच की अवरूद्ध धारा में मंडराता।

अब मजबूर हूं सोचने को

कैसे बहे धारा अविरल

फिर न अटके

सिर बोझिल करने वाला

कोई विचार।

- बृजेश नीरज

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