ब्लौग सेतु....

11 अगस्त 2015

शाख और पत्ता-अखिलेश...



टुटा शाख से पत्ता,
चला अपनी राह बनाने,
खुद की मेहनत से,
खुद को खुदा बनाने,
छोड़ फ़िक्र तरु की,
छोड़ यादें साथियों की,
चला पवन के साथ बतियाने,
टूट शाख से पत्ता,
चला अपनी राह बनाने|
कभी गति पवन ने दी,
कभी साथ मिला जलधारा का,
कभी स्थिरता को पाया,
कभी वेग था विचारों सा,
अपनी गति देख कर,
लगा था वो इठलाने,
टूट शाख से पत्ता ,
चला अपनी राह बनाने|
राहे आसाँ थी नहीं,
प्रकति पर निर्भर गति,
भय हमराही पशुओ से ,
पहुचा दे ना कोई क्षति,
मुश्किल राहों में ठहर,
जाने का डर अब,
था लगा सताने,
टूट शाख से पत्ता,
चला अपनी राह बनाने|
जीवन कितना था बाकि,
कितनी राहे थी बाकि,
बढ़ना था तीव्र गति से,
पर था कहाँ समय साथी,
समय चक्र तेज चलने लगा,
करीब अंत लगा था आने,
टूट शाख से पत्ता ,
चला अपनी राह बनाने|
अंत नियति है सबकी,
सभी को लगाया उसने गले,
माटी से मिल माटी में खो गया,
आज फिर शाख पर ,
देखो एक अंकुर उभर रहा,
बन अंकुर देखो फिर
शाख से जुड़ गया वो,
जो टूट शाख से,
चला था अपनी राह बनाने|
साभार...
Akhilesh जी के ब्लौग से...

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना ..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

    जवाब देंहटाएं
  2. अंत नियति है सबकी,
    सभी को लगाया उसने गले,
    माटी से मिल माटी में खो गया,
    आज फिर शाख पर ,
    देखो एक अंकुर उभर रहा,
    बन अंकुर देखो फिर
    शाख से जुड़ गया वो,
    जो टूट शाख से,
    चला था अपनी राह बनाने|
    साभार... hi sachchai ke saath likhi sargarbhit racgna

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