कल बाज़ार में बड़ा शोर था
किस बात का हल्ला चारों ओर था
क्या किया तुम्ने ?
मैने कहा - कल मैने अपनी आँखें
बड़े अच्छे दामों में बेच दी
ये मेरी हैसियत से ज़्यादा
बड़े -बड़े सपने देखा करती थी
इस ज़माने में दाल - रोटी कमाने में
हौसला परास्त हो जाता है
ये जब देखती है
रात का अंधकार काले साए
अबला नारी चीख पुकार
अपहरण हत्या और अत्याचार
तब ये लाल हो जाती है
लहू के रगं सी
इनके लाल होने से मैं बहुत डर जाता हूं
क्योंकि ज़ुबान बदं रखना और
मुट्ठी को भिचें रखना पड़ता है
कसकर
वरना जुनून सवार हो जाता है
हर एक को आँखों के रंग में रंगने का
मैं कब से सोच रहा था
की इनके लाल होने से पहले
इनको बेच दूँगा
इसलिए मैने चुपचाप सौदा कर लिया
पर सौदा आखों का था न
इसलिए बड़ा शोर था
अब नई आँखें हैं
पत्थरों की तरह
न सपनें देखती न दुनिया की हलचल !
लेखक परिचय - मधुलिका पटेल
क्या खूब लिखा है.. लाजवाब......मधुलिका जी
जवाब देंहटाएंमुझे इतनी पसंद आई ब्लॉग पर ही ले आया
बहुत बहुत शुक्रिया आप का संजय जी ।
हटाएंBahut Umda
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आप का मोनिका जी ।
हटाएंbahut sundar bhav
हटाएंकविता मंच पर मेरी रचना को स्थान देने का बहुत-बहुत आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आप का राजेन्द्र कुमार जी मेरी रचना को चर्चा अंक में स्थान देने का ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक किन्तु कटु सत्य ...ख्वाब..आँखे..यहाँ सब बिक जाते हैं।
जवाब देंहटाएंआँखों को पत्थर होना दुखद है. संवेदना मारनी नहीं चाहिए. सुंदर कविता.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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