आज मैंने देखा सड़क पर
एक नन्हा सांवला बच्चा
प्यारा सा,, खाने की थाली में कुछ ढूंढ़ता हुआ
उस थाली में था भी तो ढ़ेर सारा पकवान .....
वहीँ पास उसकी बहन थी
जो एक सुन्दर से दिए के
साथ खेल रही थी .....
दिए की रोशनी से उसकी आँखे चमचमा रहीं थी
वो छोटी सी झोपड़ी भी दिए के
रोशनी से रोशन हो गयी थी...
वरना दूर सड़क पर की स्ट्रीट लाइट
का सहारा तो था ही...
बगल में बैठी उसकी माँ
अपने बच्चों की ख़ुशी से
फूली नहीं समां रही थी...
थोड़ी ही दूर अगले मोड़ पर एक दावत थी..
सेठ जी के पोते का मुंडन था...
शायद वहां के सेठ-या सेठानी
इनपर मेहरबान हुए होंगे
तभी तो आज यहाँ भी जश्न का माहौल है...
शायद जब महलों में दिया जलता है
तभी होती है इन झोपड़ियों में रोशनी ....!!
लेखक परिचय - रीना मौर्या
सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-10-2015) को "जब समाज बचेगा, तब साहित्य भी बच जायेगा" (चर्चा अंक - 2133) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उत्कृष्ट प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी रचना !
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...