शरद की
बादामी रात में
नितांत अकेली
मैं
चांद देखा करती हूं
तुम्हारी
जरूरत कहां रह जाती है,
चांद जो होता है
मेरे पास
'तुम-सा'
पर मेरे साथ
मुझे देखता
मुझे सुनता
मेरा चांद
तुम्हारी
जरूरत कहां रह जाती है।
ढूंढा करती हूं मैं
सितारों को
लेकिन
मद्धिम रूप में उनकी
बिसात कहां रह जाती है,
कुछ-कुछ वैसे ही
जैसे
चांद हो जब
साथ मेरे
तो तुम्हारी
जरूरत कहां रह जाती है।
-स्मृति आदित्य
फीचर एडीटर..वेब दुनिया
आदरणीय दीदी कविता-मंच पर आप का स्वागत है।
जवाब देंहटाएंआप को यहां देखकर अति हर्ष हुआ.....
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 26 अक्टूबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंविजयादशमी पर शुभकामनाऐं । सुंदर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 09 जून 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुंदर भावों का प्रस्फुटन।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंLokeshnadeesh.blogspot.com
ढूंढा करती हूं मैं
जवाब देंहटाएंसितारों को
लेकिन
मद्धिम रूप में उनकी
बिसात कहां रह जाती है,
अतिसुन्दर! आभार। "एकलव्य"
मन को जब आधार मिल जाए,
जवाब देंहटाएंसासों को मिल जाए प्राण
तब
तुम्हारी जरूरत कहां रह जाती है.....
आपकी रचना मन को छू गई....स्मृति जी।