ब्लौग सेतु....

29 सितंबर 2013

मुझको भी जीवन का अधिकार दे हे माँ


यह एक अजन्मी बेटी भ्रूण की अपनी माँ से पुकार है. . .

 मुझको भी जीवन का अधिकार दे हे माँ
 ममता की मूरत का मुझे दीदार दे हे माँ

 मुझमे तेरा अंश है मैं तेरी ही परछाई हूं
 मुझको तू अपना सा ही आकार दे हे मां
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.............अपाहिज व्यथा -- दुष्यंत कुमार

आप सभी साथियों को मेरा नमस्कार मैं संजय भास्कर कविता मंच पर दोबारा हाजिर हूँ कवि दुष्यन्त कुमार जी की सुंदर रचना....अपाहिज व्यथा...के साथ उम्मीद है आप सभी को पसंद आएगी........ !!


अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ !

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ !

अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ !

वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ !

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ !

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ !

समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ !


- - दुष्यंत कुमार


26 सितंबर 2013

रंजो गम मुफलिसी की गज़ल जिंदगी

 





राजेश त्रिपाठी
रंजो गम मुफलिसी की गज़ल जिंदगी।
कैसे कह दें खुदा का फज़ल जिंदगी।।
भूख की आग में तपता बचपन जहां है।
नशे में गयी डूब जिसकी जवानी ।।
फुटपाथ पर लोग करते बसर हैं।
राज रावण का सीता की आंखों में पानी।।
किस कदर हो भला फिर बसर जिंदगी।
कैसे कह दें.....
चोर नेता हैं, शासक गिरहकट जहां के।
पूछो मत हाल कैसे हैं यारों वहां के ।।
कहीं पर घोटाला, कहीं पर हवाला।
निकालेंगे ये मुल्क का अब दिवाला ।।
इनके लिए बस इक शगल जिंदगी।
कैसे कह दें....
राज अंधेरों का उजालों को वनवास है।
ये तो गांधी के सपनों का उपहास है।।
कोई हर रोज करता है फांकाकसी ।
किसी की दीवाली तो हर रात है ।।
मुश्किलों की भंवर जब बनी जिंदगी।
कैसे कह दें....
जहां सच्चे इंसा का अपमान हो।
खो गया आदमी का ईमान हो ।।
योग्यता हाशिए पर जहां हो खड़ी।
पद से होती जहां सबकी पहचान हो।।
उस जहां में हो कैसे गुजर जिंदगी।
कैसे कह दें...
सियासत की चालों का ऐसा असर है।
मुसीबत का पर्याय अब हर शहर है।।
कहीं पर है दंगा, कहीं पर कहर है।
खून से रंग गयी मुल्क की हर डगर है।।
किस कदर बेजार हो गयी जिंदगी।
कैसे कह दें खुदा का फज़ल जिंदगी।

23 सितंबर 2013

...........बहुत दिनों में आज मिली है साँझ अकेली :))

आप सभी साथियों को मेरा सादर नमस्कार मैं संजय भास्कर कविता मंच ( सामूहिक ब्लॉग - जिसका जिसका का उदेश्य नये कवियों को प्रोत्साहन व अच्छी कविताओं का संग्रहण करना है ) पर हाजिर हूँ अपनी पहली प्रस्तुति के साथ अपने प्रिय प्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह सुमन जी की सुंदर रचना......सूनी साँझ के के साथ....उम्मीद है आप सभी को पसंद आएगी और साथ ही धन्यवाद करना चाहूँगा कुलदीप ठाकुर जी का जिन्होंने मुझे इस सामूहिक ब्लॉग में योगदान करने का अवसर प्रदान किया.............. !!


                                      


 बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

पेड खडे फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधुली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

कुलबुल कुलबुल नीड-नीड में
चहचह चहचह मीड-मीड में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

जागी-जागी सोई-सोई
पास पडी है खोई-खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमडी धारा, जैसी मुझपर-
बीती झेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।

यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँख मिचौनी
खुलकर खेली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।


@  शिवमंगल सिंह सुमन

21 सितंबर 2013

मेरे देश को आज क्या हो रहा है

-राजेश त्रिपाठी
मेरे देश को आज क्या हो रहा है।
हंसते हंसते यहां आदमी रो रहा है।।
न अमराइयों में पड़ें आज झूले।
पनघट भी गांवों के अब गीत भूले।।
न कजरी की तानें न बिरहा की बोली।
चले बात ही बात में आज गोली ।।
बारूदी गंधों में डूबी दिशाएं।
गांधी का सपना दफन हो रहा है।। (हंसते हंसते)
कोई मंदिरों के लिए है परेशां।
किसी को फकत मसजिदों की फिकर है।।
वहां सरहदों पर , बवंडर उठे हैं।
तनीं देश पर, दुश्मनों की नजर है।।
बगावत के ब्यूहों को, अब कौन तोड़े।
भारत का अभिमन्यु जब सो रहा है।।
बचपन से ये सीख है हमने पायी।
इंसानियत का , धरम है भलाई।।
लग रहा आज, ये पाठ उलटा पढ़ा है।
सूली पे हर सदी का मसीहा चढ़ा है।।
चाटुकारों की चांदी जहां कट रही।
सच्चा इंसा वहां हाशिया हो रहा है।। (हंसते हंसते)
सियासत के सरमायेदारों, करम हो।
बहुत हो चुका, अब कुछ तो शरम हो।।
इंसा को वोटों में, तुमने है ढाला।
मिल्लत की छाती पर, भोंका है भाला।।
छोटे कदम अब , बहकने लगे हैं।
संभालो इन्हें अब, गजब हो रहा है।। (हंसते हंसते)
हवाओं में बढ़ती तपिश कह रही है।
बगावत की आंधी यहां उठ रही है।।
न अब जहर घोलो, न नफरत बढ़ाओ।
मुल्क के रहनुमा, वक्त है चेत जाओ।।
दहशत ही दहशत , कदम दर कदम है।
हर दिशा से ये कैसा धुआं उठ रहा है।।
मेरे देश को आज क्या हो रहा है।
हंसते हंसते यहां आदमी रो रहा है।।

20 सितंबर 2013

इक नई दुनिया बनाना है अभी

आज फिर से, एक नया सा, स्वप्न सजाना है अभी,
आज फिर से, इक नई दुनिया बनाना है अभी |

कह दिया है, जिंदगी से, राह न मेरा देखना,
खुद ही जाके, औरों पे, खुद को लुटाना है अभी |

साख पे, बैठे परिंदे, हिल रहे हैं खौफ से,
घोंसला उनका सजा कर, डर भागना है अभी |

लग गई है, आग अब, दुनिया में देखो हर तरफ,
बाँट कर, शीत प्रेम फिर से, वो बुझाना है अभी |

जा रहा है, वह मसीहा, रूठकर हम सब से ही,
रोक कर उसका पलायन, यूँ मनाना है अभी |

दिख रहे, सोये हुए से, जाने कितने कुम्भकरण,
पीट कर के, ढोल को, उनको जगाना है अभी |

देखती, माँ भारती, आँखों में लेके, अश्रु-सा,
सोख ले, उन अश्क को, कुछ कर दिखाना है अभी |

राह को हर, कर दे रौशन, रख दूं ऐसा "दीप" मैं,
आज फिर से, इक नई दुनिया बनाना है अभी |

-प्रदीप कुमार साहनी

19 सितंबर 2013

वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है

-राजेश त्रिपाठी

हवाएं गुनगुनाती हैं, वह जब जब मुसकराती है।
घटाएं मुंह चुराती हैं, वो जब जुल्फें सजाती है।।
फिजाएं झूम जाती हैं, वो जब जब गीत गाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।
 
किसी मंदिर की मूरत है, किसी की कल्पना है वो।
किसी सुंदर से आंगन में सजी एक अल्पना* है वो।।
किसी की आंख की ज्योती किसी दीपक की बाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।

जिधर से वो गुजरती है, उधर हो नूर* की बारिश।
इक बांका-सा शहजादा बस उसकी भी है ख्वाहिश।।
पिता का मान है वो, मां की अनमोल थाती है।
इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।

यही डर है कहीं सपना ये उसका टूट न जाये।
उसे जालिम जमाने का लुटेरा लूट न जाये।।
कली ये टूट न जाये अभी जो खिलखिलाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनो में आती है।।

प्रभु से प्रार्थना है हमेशा ये मोती सलामत हो।
उससे दूर दुनिया की हरदम सारी अलामत हो।।
खुशी झूमा करे हर सूं जिधर को भी वो जाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनो में आती है।।



*अल्पना (रंगोली)

* नूर (उजाला)

हिमालय

सोहनलाल द्विवेदी जी की कालजयी रचना:-

युग युग से है अपने पथ पर 
देखो कैसा खड़ा हिमालय!
डिगता कभी न अपने प्रण से
रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!

जो जो भी बाधायें आईं
उन सब से ही लड़ा हिमालय,
इसीलिए तो दुनिया भर में
हुआ सभी से बड़ा हिमालय!

अगर न करता काम कभी कुछ
रहता हरदम पड़ा हिमालय
तो भारत के शीश चमकता
नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!

( प्राथमिक विद्यालय में सिर्फ आगे की पंक्तियाँ थी, जो आज भी कंठस्थ है )

खड़ा हिमालय बता रहा है
डरो न आँधी पानी में,
खड़े रहो अपने पथ पर
सब कठिनाई तूफानी में!

डिगो न अपने प्रण से तो ––
सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
तुम भी ऊँचे हो सकते हो
छू सकते नभ के तारे!!

अचल रहा जो अपने पथ पर
लाख मुसीबत आने में,
मिली सफलता जग में उसको
जीने में मर जाने में!

लिखूं गजल इक तेरे नाम

राजेश त्रिपाठी

तेरी हंसी को सुबह लिखूं,
और उदासी लिखूं शाम ।
आज बहुत मन करता है,
लिखूं गजल इक तेरे नाम।।

जुल्फें ज्यों सावन की घटा,
चेहरे में पूनम सी छटा ।
नीलकंवल से तेरे नयन,
मिसरी जैसे मीठे बचन।।
गालिब की तुम्हें लिखूं गजल,
और लिखूं इक छवि अभिराम।। (लिखूं गजल---)

सुंदरता को कर दे लज्जित,
ऐसी तू शफ्फाक बदन।
तेरे कदमों की आहट से,
खिल उठे मुरझाया चमन।।
तुझे जिंदगी लिखूं मैं,
और एक खुशनुमा पयाम।। (लिखूं गजल---)

मतलब भरे जमाने में,
इक गम के अफसाने में।
तुम ही हो इक आस किरण,
बस तुम ही हो जीवन धन।।
तुमको ही दिन-रात लिखूं,
लिखूं तुम्हें ही सुबहो-शाम (लिखूं गजल---)

आती जाती सांस लिखूं,
इक मीठा अहसास लिखूं।
जीवन का पर्याय लिखूं,
और भला क्या हाय लिखूं।।
तुम्हें लिखूं दिल की धड़कन,
खुशियों की हमनाम लिखूं। (लिखूं गजल..)

मेरी बांहों में खुशियों की बारात है

 गीत
राजेश त्रिपाठी
आपका साथ है, चांदनी रात है।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।
मैंने सपनों में बरसों तराशा जिसे।
वही मन के मंदिर की मूरत हो तुम।।
तारीफ में अब तेरी क्या कहूं।
खूबसूरत से भी खूबसूरत हो तुम।।
रंजो गम मिट गये मिल गयी ऐसी सौगात है।
मेरी बांहों में खुशियों की सौगात है।।
तुम मिली जिंदगी जिंदगी बन गयी।
तेरी चाहत मेरी बंदगी बन गयी ।।
नजरों में तुम, नजारों में तुम हो।
महकती हुई इन बहारों में तुम हो।।
तुम मेरी कल्पना, तुम मेरी रागिनी,
बस तुम्ही से ये मेरे नगमात हैं।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।
कामनाओं ने लीं फिर से अंगडाइयां।
यूं लगा बज उठीं फिर से शहनाइयां।।
हवा मदभरी फिर लगी डोलने।
बागों में कोयल लगी बोलने।।
क्या तेरे हुश्न की ये करामात है।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।
मन हुआ बावरा यूं तेरे प्यार में।
तुम बिन भाता नहीं कुछ भी संसार में।।
तुमसे शुरू प्यार की दास्तां।
खत्म भी तुम में होती है ऐ मेहरबां।।
अब तेरे बिन नहीं चैन दिन-रात है।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।

14 सितंबर 2013

मैंने जन्म नहीं मांगा था










प्रस्तुत है श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी(जो न केवल एक सफल राजनेता बल्कि सहृदय कवि भी रहे हैं ) की यह कविता……………………. ………… 

मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु
मरण की मांग करूंगा
जाने कितनी बार जिया हूँ
जाने कितनी बार मरा हूँ
जन्म - मरण के फेरे से मैं
इतना पहले नहीं डरा हूँ
अंतहीन अंधियार ,ज्योति की
कब तक और तलाश करूंगा

मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु
मरण की मांग करूंगा

बचपन ,यौवन और बुढ़ापा
कुछ दशकों में ख़तम कहानी
फिर - फिर जीना, फिर -फिर मरना
यह मजबूरी या मनमानी
पुनर्जन्म के पूर्व बसी
दुनियां का द्वाराचार करूंगा

मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु
मरण की मांग करूंगा 

10 सितंबर 2013

हमारी हिंदी रघुवीर सहाय


हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है
बहुत बोलनेवाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली

गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ

वह मुटाती जाए
पसीने से गंधाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए

पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को ले कर लड़े

घर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है

एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किए जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फर्श पर ढंनगते गिलास
खूँटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जाएँगी

घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और जमीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा

कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।

6 सितंबर 2013

हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,साहिर लुधियानवी


हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है॥
कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख न करे,
अब इस जा कोई कंवारी न बेची जाएगी।
ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फ़सलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जायेगी॥
यह सर ज़मीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्ज़े-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी।
हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी॥
कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहे,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं।