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5 मई 2014

असम - क्या हाथों में हथियार जरूरी है

ये कैसी मजबूरी है
अपनी मर्ज़ी से जी भी न सकते
अपनी मर्जी से मर भी न सकते

कहते है उनके सोच में आंधी है
तूफानों से लोहा लेते
जंगलों में अपना बाग बनाते
उनके पत्थर पानी एक है
मगर
ये दर तो उनका है
हम तो घास चरने वाले हैं
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से मैदान चुन भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से कहीं टहल भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

आकाश का रंग वो बताते हैं लाल
चेहरे पर रंग लगाते हैं लाल
बन्दुक की पिचकारी करती है सब लाल
उनकी सोच है लाल
मगर
हमें तो आकाश दीखता है नीला
घास का मैदान दूर तक है हरा
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से रंग चुन भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से होली खेल भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

वो बताते है धरती का यह हिस्सा अपना है
नदी का पानी हो रहा जूठा है
पहाड़ की छाव छीनी जा रही है
जंगल के रस लुटे जा रहे हैं
मगर
हमने तो छाझा रह्ना सिखा है
मिल बाँट कर खाना-पीना सिखा है
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से कहीं रह भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से कुछ चुन भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

वो चेहरे को अच्छा और बूरा बताते हैं
ये अपनों का और ये हानिकारक कौम का
ये हमें घाव को हरा रखना सिखाते हैँ
बदले में जलना और जलाना सिखाते हैं
मगर
हमें तो अपनों के साथ सुख-दुःख बाँटने आता है
जरूरत पे एक दूसरे के काम अाना आता है
तो फिर क्यूँ
अपनी मर्ज़ी से अपना पराया मान भी न सकते
अपनी मर्ज़ी से बेहिचक कुछ कह भी न सकते
ये कैसी मजबूरी है

ये कैसी मजबूरी है
क्या अमन पसन्द कमजोरी है
ये कैसी मजबूरी है
क्या हाथों में हथियार जरूरी है

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