हर कदम पर जिंदगी लेती है इम्तहान
कब कहां किस रूप में ले किसको पता।
उलझनों में इस कदर कर देती है गुमराह
सुलझाते सुलझाते आदमी हो जाता है परेशां।
कभी तो ये जिंदगी लगती रेत का मकां
जो हल्की सी आंधी में भी मिट जाती जाने कहां।
और कभी जिंदगी बन जाती मजबूत पतवार
भंवरों में से भी जूझ बढ़ आगे पा जाती मुकाम।
जिंदगी तो रखती है मौत से भी वास्ता
फ़िर आगे बढ़ा ले जाती है वो अपना कारवां।
जिंदगी को हर तरह से जीना है जिंदादिली का नाम
अजीज मान कर जी लें जिंदगी का हर लम्हां।
लेखक परिचय - पूनम श्रीवास्तव
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (10-09-2015) को "हारे को हरिनाम" (चर्चा अंक-2094) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उम्दा रचना पढ़वाई है संजय |
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना
जवाब देंहटाएंदिल के पास है लेकिन निगाहों से बह ओझल हैं
क्यों असुओं से भिगोने का है खेल जिंदगी।
जिनके साथ रहना हैं ,नहीं मिलते क्यों दिल उनसे
खट्टी मीठी यादों को संजोने का ,है खेल जिंदगी।
किसी के खो गए अपने, किसी ने पा लिए सपनें
क्या पाने और खोने का ,है खेल जिंदगी।
उम्र बीती और ढोया है, सांसों के जनाजे को
जीवन सफर में हँसने रोने का, है खेल जिंदगी।
किसी को मिल गयी दौलत, कोई तो पा गया शोहरत
मदन बोले , काटने और बोने का ये खेल जिंदगी।
बहुत बढ़िया
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