आँखो में कुछ नमी सी...
आज छत से ..
मैने सूरज को उगते देखा
कई रंगो में ढल कर
इक नई रंग में ढलते देखा
हमारे हिस्से की धूप हमीं तक थी,
मन में कुछ सुकून सी थी..
हमारी कली जो
आज फूल बनकर खिलखिलाएँ हैं,
हमारी शादव्ल,शफ़़फा़फ जौ इन्हीं से है
समेटती हूँ ..इन लम्हो की अहसासो को,
हमारे हिस्से की...
दरीचों के पीछे से झाकती दो आँखे,
रिजक-ए-अहसास हि है.
जो हर गम में भी मुस्काए है..
देखो न..
इन मुस्कराती आँखो में
फिर कुछ नमी सी है..
खेल है धूप छांव की
पर कुछ सुकून सी है..।
©पम्मी सिंह
(शादव्ल-हराभरा,शफ़फाफ़-उजला,धवल,रिजक-धन दौलत)
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत शुक्रिया..
हटाएंजय मां हाटेशवरी...
जवाब देंहटाएंअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 02/08/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
जी,धन्यवाद
हटाएंउपयुक्त शब्दो और अवसर प्रदान करने के लिए.
बेहतरीन रचना :)
जवाब देंहटाएंJi,dhanyvad 😃
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-08-2016) को "हम और आप" (चर्चा अंक-2423) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी,धन्यवाद
हटाएंउपयुक्त अवसर प्रदान करने के लिए...