ब्लौग सेतु....

19 अप्रैल 2014

गाँव वैसे नहीं बदला

पिछले हफ्ते अरसो बाद अपना गाँव देखा।  सोचा था पूरा बदल गया होगा मगर पाया वही बचपन का गाँव कुछ नए जेवर पहने। उन यादों के एक हिस्से को ग़ज़ल में समेटने की कोशिश -

यहां लोगों का मिट्टी से रिश्ता बाकी है
पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!

हर मुसीबत में लोग भागे चले आते हैं
आदमी का इंसानियत से राब्ता बाकी है  !!

एक पैर खड़ा बगुला वैसे हीं तकता है
कीचड़ में भी मछली ज़िंदा बाकी है !!

गाँव के बूढ़े भी नहीं जानते जिसकी उम्र 
उस बूढ़े पीपल पे अब भी पत्ता बाकी है !!

डाकिये को आज भी याद है सबका नाम 
पुराने मकान पे टंगा लाल डब्बा बाकी है !!

गाँव से बाहर बरगद के नीचे कुएं पे
सबके लिए एक बाल्टी रक्खा बाकी है !!

सूरज से पहले हीं लोगों को जगाता
मंदिर में लटका पुराना घन्टा बाकी है !!

सुबह सुबह खुली हवा में गाती कोयल 
शाम को लौटते तोते का जत्था बाकी है !!

पतली क्यारियों से होकर जाते हैं लोग वहाँ
खेतों के बीच देवी स्थान पे लहराता झंडा बाकी है !!

सुबह शाम उठता है धुँआ सब आँगन से
पक्के छत पे सूखता कच्चा घड़ा बाकी है !!

पुराने खम्भों पे नयी तारें बिछ गयी हैं
बिजली है फिर भी हाथ वाला पंखा बाकी है !!

फसलों की खशबू साथ ले चलती है हवा
उसमें अब भी वही निश्छलता बाकी है !!

पक्की सड़क से वो कच्चा रास्ता बाकी है !!

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (20-04-2014) को ''शब्दों के बहाव में'' (चर्चा मंच-1588) में अद्यतन लिंक पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत बढ़िया,
    बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....

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  3. मुसीबत में लोग भागे चले आते हैं
    आदमी का इंसानियत से राब्ता बाकी है !!

    ये गांव ही हैं जहाँ कुछ पुराने संस्कार बचे हुए हैं गांव में भी कुछ गांव अन्यथा वहां भी पाश्चात्य संस्कृति ने पाँव हर पसार लिए हैं.सुन्दर चित्रण

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  4. महेंद्रजी, आपने जो पंक्तियाँ बताई है, सही में इसे मैंने अपने इस सफर में अनुभव किया है। वो घटना बताना चाहूँगा -

    मैं अपने भाईओं के साथ अपने घर के आगे गली में गप कर रहा था कि एक व्यक्ति चिल्लाते हुए हमारे बगल के लोगों से कहा "पोखरा साइड में आग लगा है, बाल्टी निकालो " और वो भागता आगे बढ़ गया … ये सुन हम भी भागे .... रास्ते में जो औरतें खड़ी थी उन्होंने हमसे कहा "खाली हाथ क्यूँ भाग रहे हो बाल्टी ले लेते न"। जब हम वहाँ पहुंचे तो देखा खलिहान में आग लगी थी जो अब बुझा दी गयी थी। फिर भी देखा लोग बगल के पोखरा से बाल्टी बाल्टी पानी ला के उढ़ेले जा रहे थे। हम वहां किसी को जानते नहीं थें.…और वहाँ इतने लोग पानी डालने में लगे थे तो पता भी नहीं चला आखिर किसकी फसल थी। घर आकर जब ये बात पापा को बताई तब उन्होंने बताया ये गाँव का नियम है की जब आग लगे तो कोई घर में नहीं रहेगा और सभी बाल्टी लेके जाएंगे बुझाने … यहाँ कोई फायर ब्रिगेड थोड़े ही आएगा।

    इस घटना ने ही मुझे गाँव का अलग रूप दिखाया जिसे मैं ऊपर के ग़ज़ल में लिखा है।

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