वो औरत जब निकलती है घर से
दर्जनभर सुहाग की निशानिया पहनकर
सिंदूरी आभा बिखेरती उसकी माँग
गले में लटकाये तोलाभर मंगलसूत्र
हाथों में पिया नाम की मेहंदी
और दर्जन - दो- दर्जनभर चूड़ियाँ
पैरों की उंगलियो में हीरे जड़ित चाँदी के बिछुए
गहरे गुलाबी रंग के आलते से रंगे उसके पांव
खुद को पल्लू में छुपाती,मुस्काती
बड़ी ही खुशमिजाज लग रही थी
पर कोई न देख पाया उसकी
एक और सुहाग निशानी
जिसे उसने छुपा रखा है
इनसभी सुहाग निशानियों के बीच
कजरारी अँखियों में छुपी रोती हुयी आँखे
वो घाव जो उसकी चूड़ियों के बीच से कराह रहे थे
वो घाव जो उसके सुहाग की बर्बरता को
चीख -चीख कर सुनाने की भरसक कोशिश कर रहे थे...
पर इन सुहाग निशानियों को छिपा दिया है
उसने अपनी चमचमाती सुहाग निशानियों के बीच....
वो औरत ....
उस औरत ने....!!
लेखक परिचय - रीना मौर्या
सुंदर अति सुंदर....
जवाब देंहटाएंआभार.....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (04-04-2015) को "दायरे यादों के" { चर्चा - 1937 } पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
कविता बहती है भावों की सरिता के रूप में.. रीना जी, आभार इस कविता के लिए!!
जवाब देंहटाएंकविता युग की पीड़ा होती है...निःशब्द।
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