ब्लौग सेतु....

4 मई 2016

मन का बंधन




बहुत हुआ सर झुका के बंदन 
अब खोल सारे मन के  बंधन 
कुंठित था तेरा मन सदा  से 
अब तो सुलझा ये उलझे धागे 
सांस सांस में घटता जीवन 
राम नाम से कर सिंचित उपवन 
मिटा अभिलाषा का अपूर्ण भ्रमण 
राम  समक्ष  कर  पूर्ण  समर्पण 
लेखा जोखा लाभ और  हानि 
भ्रमित करती मन की  मनमानी 
करता चल अब भला दूसरों का 
मिटेगा विषाद जो था बरसों का 
भीतर  के  इंसान  को  जगा 
मन से दूषित तम  को  भगा 
औरों को भी जगा तू  जागकर 
बूँद  बूँद  से  बनता  सागर 
साकार निर्विकार कोई भी  मूरत 
दिल में बसा तू सांवली सूरत 
नव प्रभात की है सुन्दर बेला 
बांध गठरी और  चल  अकेला 
चलता चल, नहीं विश्राम का ये काल 
अंतकाल कट जायेगा ये मायाजाल 
हितेश 

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 05 मई 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पंडित किशन महाराज और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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