ब्लौग सेतु....

29 जून 2016

“तो क्या हो ……………”



“तो क्या हो ……………”





तेरे पहलू में सर छुपा ले तो क्या हो
इस जहाँ को शमशान बना दे तो क्या हो

जी नहीं सकते इक पल भी तुम बिन
तुझे इस जहाँ से चुरा ले तो क्या हो

दामन-ए-वक़्त में है तेरा मिलना
वक़्त पे बांध बना दे तो क्या हो

कहने को कहते हैं “खुदी को कर बुलंद इतना ……”
खुद ख़ुदा को जमीं पे ला दे तो क्या हो

मोहब्बत और जंग में सब जायज़ हे शायद
जंग को मोहब्बत बना दे तो क्या हो

लड़ने को तो ज़िन्दगी हे सारी
अब के ये दो पल मोहब्बत से बिता दे तो क्या हो

तेरे पहलू में ……………….

========= लिखित ११ जून २००२

28 जून 2016

दिल्ली हमसे दूर नहीं है ....श्याम कोरी 'उदय'

शायद
आज नहीं, वो घड़ी है आई
हम पहुंचे
नई दिल्ली भाई
फिर भी
कोशिश होगी अपनी
जल्द हों
हम
दिल्ली में भाई !

आज नहीं
तो कल आना है
हमको भी
दिल्ली आना है
आज नहीं
वो घड़ी नहीं है
रेल नहीं है, टिकट नहीं है
पर
दिल्ली हमसे दूर नहीं है !

एक दिन
हम भी आएंगे
दिल्ली में, हम भी छाएंगे
गीत वहीं, संगीत वहीं है
रण वहीं, और जीत वहीं है
निकट नहीं, पर विकट नहीं है
दिल्ली, हमसे दूर नहीं है !
पर, आज नहीं, वो घड़ी है आई
हम पहुंचे, नई दिल्ली भाई !!


लेखक परिचय - श्याम कोरी 'उदय'

26 जून 2016

कफन फाड़कर मुर्दा बोला / श्यामनन्दन किशोर

चमड़ी मिली खुदा के घर से
दमड़ी नहीं समाज दे सका
गजभर भी न वसन ढँकने को
निर्दय उभरी लाज दे सका

मुखड़ा सटक गया घुटनों में
अटक कंठ में प्राण रह गये
सिकुड़ गया तन जैसे मन में
सिकुड़े सब अरमान रह गये

मिली आग लेकिन न भाग्य-सा
जलने को जुट पाया इंधन
दाँतों के मिस प्रकट हो गया
मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन

किन्तु अचानक लगा कि यह,
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया

श्वेत माँग-सी विधवा की,
चदरी कोई इन्सान दे गया
और दूसरा बिन माँगे ही
ढेर लकड़ियाँ दान दे गया

वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,
धन्य हुआ मानव का चोला
कफन फाड़कर मुर्दा बोला।

कहते मरे रहीम न लेकिन,
पेट-पीठ मिल एक हो सके
नहीं अश्रु से आज तलक हम,
अमिट क्षुधा का दाग धो सके

खाने को कुछ मिला नहीं सो,
खाने को ग़म मिले हज़ारों
श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में
भूखे-बेदम मिले हज़ारों

दाने-दाने पर पाने वाले
का सुनता नाम लिखा है
किन्तु देखता हूँ इन पर,
ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है

दास मलूका से पूछो क्या,
'सबके दाता राम' लिखा है?
या कि गरीबों की खातिर,
भूखों मरना अंजाम लिखा है?

किन्तु अचानक लगा कि यह,
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया।

जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,
भोज मनाने बन्धु चल पड़े
जहाँ न कल थी बूँद दीखती,
वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े

निर्धन के घर हाथ सुखाते,
नहीं किसी का अन्तर डोला
कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला।

घरवालों से, आस-पास से,
मैंने केवल दो कण माँगा
किन्तु मिला कुछ नहीं और
मैं बे-पानी ही मरा अभागा

जीते-जी तो नल के जल से,
भी अभिषेक किया न किसी ने
रहा अपेक्षित, सदा निरादृत
कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने

बाप तरसता रहा कि बेटा,
श्रद्धा से दो घूँट पिला दे
स्नेह-लता जो सूख रही है
ज़रा प्यार से उसे जिला दे

कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,
एक-एक को मार गिराया
मन-मृग भोला रहा भटकता,
निकली सब कुछ लू की माया

किन्तु अचानक लगा कि यह,
घर-बार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी,
मरने पर उपकार हो गया

आश्चर्य वे बेटे देते,
पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण
नमक-तेल रोटी क्या देना,
कर न सके जो आत्म-समर्पण!

जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,
और स्वर्ग के द्वार न खोला!
कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला।

20 जून 2016

एक गजल

  
कोई अपना बिछड़ गया होगा

राजेश त्रिपाठी

देखो कुटिया का दम अब घुटता है।
सामने इक महल आ तना  होगा।।

उसकी आंखों में अब सिर्फ आंसू हैं।
सपना सुंदर-सा छिन गया होगा।।

वह  तस्वीरे  गम  मायूसी है ।
वक्त ने हर कदम छला होगा।।

उसको मुसलसल है इक तलाश।
कोई अपना बिछड़ गया होगा।।

जिस्म घायल है, दिल पशेमां है।
सानिहा* कोई गुजर गया होगा ।।

थक के बैठा है दरख्तों के तले ।
जानिबे मंजिल है, ठहर गया होगा।।

हर तरफ जुल्म औ दौरे मायूसी है।
कारवां इंसाफ का ठहर गया होगा।।

उसका चेहरा किताब है दिल का।
हर तरफ दर्द ही दर्द लिखा होगा।।

ख्वाबों के सब्जबाग जाने कहां गये।
अब तो हसीं सपना बिखर गया होगा।।

वह गरीब है बारहा* करता फांकाकसी।
तरक्की का कारवां कहीं ठहर गया होगा।।

रो रही है जार-जार कोई दुख्तर ।
जख्म कोई अजनबी दे गया होगा।।

कलम कुंद है लब खामोश से हैं।
सच कहनेवालों पे संगीनों का पहरा होगा।

उसकी चीख का भी ना हो सका असर।
लगता है निजामे वक्त भी बहरा होगा।।

आपको इनसानियत का है वास्ता।
सुधारो मुल्क वरना दर्द ये और भी गहरा होगा।।
.........................................................
 सानिहा* =दुर्घटना, हादसा, मुसीबत
बारहा*= अकसर, बारबार, बहुधा
दुख्तर* =बेटी, पुत्री




19 जून 2016

वो बोल...

आहटे नहीं है
उन दमदार कदमो के चाल की,
गुजरती है जेहन में ..
वो बोल
मैं हुँ न..
तुमलोग घबराते क्यों हो ?’
वो सर की सीकन और जद्दोजहद,
हम खुश रहे..
ये निस्वार्थ भाव कैसे ?
आप पिता थे..
अहसास है अब भी
आपके न होकर भी होने का
गुंजती है..
तुमलोग को क्या चाहिए ?
पश्चताप इस बात
न पुछ सकी
आपको क्या चाहिए..
इल्म भी हुई जाने के बाद,
एनको के पीछे
वो आँखे नहीं
पर दस्तरस है आपकी 
हमारी हर मुफ़रर्त में..
                 ©पम्मी 

                  
                

17 जून 2016

बारिश की बूँदों में






सूखी धरा हरी भरी हुई 
बारिश  की  बूँदों  में 
प्रकृति की हुई छट्ठा नयी 
बारिश  की  बूँदों  में 
नीलगगन पर श्यामल घटा 
बारिश  की  बूँदों  में 
धरती से धूल पर्दा  हटा 
बारिश  की  बूँदों  में 
कल- कल करती सरिता की धारा 
बारिश  की  बूँदों  में 
दूर हुआ किसान का अँधियारा 
बारिश  की  बूँदों  में 
नव यौवना केश जो  झटके 
बारिश  की  बूँदों  में 
प्रियतम मन केशो में भटके 
बारिश  की  बूँदों  में 
जीवंत होती मिलन परिभाषा 
बारिश  की  बूँदों  में 
पूर्ण होती प्रेम अभिलाषा 
बारिश  की  बूँदों  में 
संगीतमय कोयल की बोली 
बारिश  की  बूँदों  में 
बादल संग सूरज की आंखमिचौली 
बारिश  की  बूँदों  में 
हरयाली से महकता हर आँगन 
बारिश  की  बूँदों  में 
दूर होता हित मन का सूनापन 
बारिश  की  बूँदों  में