ब्लौग सेतु....

18 दिसंबर 2015

जाने कहाँ ? ........सीमा सदा












गुम जाने की उसकी बुरी आदत थी,
या फिर
मेरे रखने का सलीका ही सही न था,
चश्‍मा दूर का अक्‍सर पास की चीजें पढ़ते वक्‍़त
नज़र से हटा देती थी
एक पल की देरी बिना
वह हो जाता था मेरी नज़रों से ओझल
कितनी बार नाम लेती उसका
जाने कहाँ गया ?
दिखता भी नहीं था वह दूर जो हो जाता था
उसको ढूँढते वक्‍त बरबस एक ख्‍याल आता था
काश मोबाइल की तरह इसकी भी कोई
प्‍यारी सी रिंगटोन होती
तो यूँ ढूँढने की ज़हमत तो नहीं होती !

....

इस मुई चाबी को भी
हथेलियों में दबे रहने की जैसे आदत हो,
पर कब तक ??
कभी तो उसे इधर-उधर रखना ही होता न
मन ही मन बल खाती ये भी
नज़र बची नहीं कि खामोशी की
ऐसी चादर तानती
सारे तालों की हो जाती बोलती बंद
और मच जाती सारे घर में खलबली
मची हड़बड़ाहट के बीच
एक कोफ़्त भी होती
काश इसे टांग दिया होता किसी कीले पर
मेरी ही आदत खराब है या फिर
इसे ही चुप्‍पी साधने में मज़ा आता है!!!!
......

-सीमा सदा

मूल प्रस्तुति..


5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-12-2015) को "सुबह का इंतज़ार" (चर्चा अंक-2195) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुंदर

    बहुत ही अच्छी कविता....

    जवाब देंहटाएं
  3. कुछ नही से कुछ भी सही।
    पढ़ाई नही तो खेल ही सही।
    ट्यूशन नही तो सेल्फ ही सही।
    लेकिन कुछ नही से कुछ भी सही।
    वाहन नही तो पैदल ही सही।
    पिज़्ज़ा नही तो रोटी ही सही।
    इंस्टा नही तो व्हाट्सएप्प ही सही।
    कुछ नही से कुछ भी सही।
    -ऋचा गर्ग

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