ज़िन्दगी है गिरती दीवार की तरह,
हालात चल रहे हैं बीमार की तरह।
अब किस के पास जाएँ फ़रियाद लेके हम,
है वक़्त बेरहम थानेदार की तरह।
उम्मीद हिफ़ाज़त की कोई क्या करे उनसे,
बुत बनके जो खड़े हैं पहरेदार की तरह।
ख़ुद से हूँ बेख़बर मैं, मुझको पढ़ेगा कौन,
दीवार पे चिपका हूँ इश्तेहार की तरह।
बेहतर नहीं है कुछ भी पढ़ने के वास्ते,
है ज़िन्दगी के पन्ने अख़बार की तरह।
-गुलाब जैन
jain.gulab@gmail.com

GREAT THOUGHTS SIR.
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