ब्रज
के एक सशक्त हस्ताक्षर लोककवि रामचरन गुप्त
+प्रोफेसर अशोक द्विवेदी
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हमारे
देश में हजारों ऐसे लोककवि हैं, जो
सच्चे अर्थों में जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे न केवल स्वयं,
बल्कि अपनी रचनाओं के साथ गुमनामी के अंधेरे में
गुम हो जाते हैं। आभिजात्यवर्गीय-साहित्य
उनकी रचनाओं को और उनको महत्व देने में संभवतः इसी कारण डरता है कि कहीं ऐसे
कवियों की रचनाधर्मिता के आगे उनके भव्य
शब्द-विधा न कहीं फीके न पड़
जाएं। हिन्दी-क्षेत्र
के ही इन्हीं हजारों कवियों में से एक नाम स्व. रामचरन
गुप्त का रहा है।
पाठ्य-पुस्तकीय
साहित्य से अलग कवि गुप्त की कविता में एक सच्चे देश-प्रेमी,
एक सच्चे लोकमन की छटा देखी जा सकती है। कवि अधिक
पढ़ा-लिखा नहीं है। पोथियों से
उसका सरोकार केवल जीवन के प्रश्नों को समझने और सुलझाने के क्रम में रहा है। उसके
गीत शब्द-शास्त्राीय
स्वरूप ग्रहण नहीं कर सके हैं। अलंकार और छंद विधान को कविता की कसौटी मानने वालों
को उनकी कविताएं पढ़कर तुष्टि भले ही न मिले, किन्तु
अपने देश, देश पर
मर मिटने वाले वीर जवानों और अपने ईश्वर के प्रति उनके अनुराग में कोई खोट निकाल
पाना संभवतः उनके लिए भी दुष्कर होगा।
स्व. रामचरन
गुप्त का जीवन हमारे देश के उस समय का साक्षी रहा है,
जिसने अंग्रेजों की गुलामी और स्वतंत्राता के
पश्चात् देशी सामंतों-साहूकारों
की गुलामी दोनों को झेला है। अंग्रेजों की गुलामी को झेलते हुए कवि ने अपने जीवन
के सुनहरे क्षणों-युवावस्था
को गरीबी और अभावों से काटा। कवि के जीवन में ऐसा भी समय आया जब एक दिन की मजदूरी
न करने का मतलब घर में एक दिन का पफाका था।
कवि
ने अपने दुर्दिनों को ईश्वर की उस
प्रार्थना में उतारा जो केवल कवि की प्रार्थना नहीं बल्कि दुख-दर्द
से पीडि़त उस युग की प्रार्थना थी, जब
हर लोक-मन यही पुकारता था-
‘‘नैया
कर देउ पार हमारी
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विलख
रहे पुरवासी ऐसे-
चैखन
दूध मात सुरभी कौ
विलखत
बछरा भोर।
‘देशभक्ति
में दीवाना’ लोककवि रामचरन
गुप्त सीमा पार दुश्मनों को कभी तलवार बनकर, कभी
यमदूत बनकर तो कभी भारी चट्टान बनकर चुनौती देता है। गोरों को भगाने के लिए,
आज़ादी को बुलाने के लिए,
वह शमशीर खींचकर खून की होली खेलने के लिए जनता का
आव्हान करता है-
‘‘तुम
जगौ हिंद के वीर, समय
आजादी कौ आयौ।
होली
खूं से खेलौ भइया, बनि
क्रान्ति-इतिहास-रचइया,
बदलौ
भारत की तकदीर, समय
आज़ादी कौ आयौ।
गोरे देश को लूटते हैं, तो
कवि कहता है-‘‘ सावन
मांगै खूँ अंग्रेज कौ जी’’। आजादी
के बाद जब देशी पूँजीपति, राजनेता
बदनाम होते हैं तो कवि उनकी अमेरिकी सांठ-गांठ
की भर्त्सना करता है। जब मंहगाई आती है तो कवि को एक-एक
रोटी को तरसती जनता अभी भी परतंत्र नजर आती है। कवि भूख को समझता है,
इसलिए भूखों की आवाज़ बनकर अपने गीतों में प्रस्तुत
होता है। ये गीत न केवल भावप्रवण हैं बल्कि उस मानवीय चिन्ता को भी प्रकट करते हैं
जो इस युग की सबसे बड़ी चिन्ता है।
आम जनता का जीवन जीने वाले स्व. रामचरन
गुप्त अपने जीवन संघर्षों, लोकगीतों
की मिठास से युक्त भजनों और देशभक्ति पूर्ण कविताओं के चलते निश्चित ही एक सफल लोककवि
कहे जाने के पात्र हैं। ब्रजभाषा की लोककवियों तथा लोकगायकों की परम्परा में वे
अमिट रहेंगे, ऐसा
विश्वास है।
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