हम को मिटा सके, ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना खुद है, ज़माने से हम नहीं
बेफायदा अलम नहीं, बेकार ग़म नहीं
तौफ़ीक़ दे खुदा तो ये नेअमत भी कम नहीं
मेरी ज़बां पे शिकवा-ए-अहल-ए-सितम नहीं
मुझ को जगा दिया, यही अहसान कम नहीं
या रब, हुजूम-ए-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या, अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं
मर्ग-ए-जिगर पे क्यूँ तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
एक सानेहा सही, मगर इतना अहम नहीं है
-जिगर मुरादाबादी
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