डॉ.
ध्रुव की दृष्टि में कविता का अमृतस्वरूप
+रमेशराज
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डॉ. आनन्द
शंकर बाबू भाई ध्रुव अपने ‘कविता’
शीर्षक निबन्ध मेंकविता का अर्थ-‘‘अमृत
स्वरूपा और आत्मा की कला रूप वाग्देवी हमें प्राप्त हो।’’
बताकर सिद्ध करते है कि कविता-
1. अमृत
स्वरूपा है
2. आत्मा
की कला है
3. वाग्देवी-रूपा
है
डॉ. ध्रुव
कविता को अमृत-स्वरूपा इसलिये
मानते हैं क्योंकि-‘‘कवि की सृष्टि,
ऐहिक सृष्टि-सी
क्षणभंगुर नहीं है। ऐहिक जगत नश्वर है, इतना
ही नहीं, यह भी कहा जा सकता है कि कवि
की सृष्टि की तुलना में ऐहिक जगत मृतवत है।’’
प्रश्न
यह है कि यदि ऐहिक जगत की सृष्टि क्षणभंगुर, नश्वर,
मृतवत् है तो क्या कवि की सृष्टि ऐहिक जगत में एहिक
जगत की विशेषताओं से युक्त नहीं होती? ऐहिक
जगत की सृष्टि भी ऐसी अनेक विशेषताओं से युक्त होती है,
जिसकी क्षणभंगुरता का ढिंढोरा भले ही हम पीट लें,
लेकिन यह सृष्टि भी कविता की सृष्टि की तरह अमर्त्य
होती है। ऐहिक जगत भी नश्वर नहीं है, उसकी
जीवंतता हमें कालचक्र के अन्तर्गत सतत् दिखलायी पड़ती है। यदि ऐहिक जगत का अर्थ डॉ.
ध्रुव के लिये कोई व्यक्ति विशेष, घटना
विशेष, काल विशेष रहा हो तो यह बात
अलग है। कवि भी तो इसी ऐहिक जगत का प्राणी है। फर्क सिर्फ इतना है कि वह जड़वत् या
मृत न होकर संवेदनशील और उदारता के गुणों से युक्त होता है।
कविता
के मनोहर और अद्भुत भावों के कथित दिव्य और अलौकिक लोक का निर्माण इसी ऐहिक जगत पर
निर्भर है, यदि यह क्षणभंगुर,
नश्वर और मृतवत होगा तो काव्य-जगत
की या तो सृष्टि होगी ही नहीं, यदि
होगी तो वह भी नश्वर और मृतवत होगी। अतः उनका यह कहना भी कि-‘‘भावनाओं
का पूर्ण रूप तो परमात्मा के ही ज्ञान में अवस्थित है,
कवि के समक्ष तो उसके रूप-खंड
ही आभासित होते रहते हैं। यही आभास शब्द के रूप में प्रत्यक्ष होकर हमारी अन्तर्रात्मा
में प्रविष्ट होकर, हमें उन रूप-खण्डों
का बोध कराता है।’’
डॉ. ध्रुव
के इन तर्कों को थोड़ी देर मान भी लें तब भी प्रश्न यह है कि यदि भावनाओं का पूर्णरूप
परमात्मा के ही ज्ञान में अवस्थित है तो मार्क्सवादी चिन्तन के तहत उस परमात्मा ने
कैसे रूप-खंड का आभास
दिया कि कवि की अमृत स्वरूपा कविता ने परमात्मा के ही सारे रूप-खंडों
को चकनाचूर कर डाला। कविता के संदर्भ में बात यदि इस तरीके से कही गयी होती कि-कविता
यदि अमृत स्वरूपा है भी तो इस संदर्भ में कि वह आश्रयों अर्थात् कविता के आस्वादकों
को ऐसा अमृत प्रदान करती है जिसके तहत सामाजिकों में लोकमंगल,
मानवमंगल की वैचारिक ऊर्जा जागृत होती है तो शायद कविता
के अमृत स्वरूप पर आपत्ति न होती । लेकिन जब डॉ. ध्रुव की मान्यता ही यह है कि-‘‘यह
सर्वदा उपयुक्त है कि हम सौंदर्य क्या है’ इसे
तो जान लें और उर्वशी को केवल कल्पनामात्र कहें। प्रेम क्या है?
यह तो बराबर समझ लें और राम-सीता
के अस्तित्व का निषेध करें। हृदय में पाप की अनुभूति तो करें और दुष्टों,
असुरजनों एवं नरक आदि को न मानें,
अंतरात्मा में दिव्य प्रेम और शान्ति को तो स्वीकारें
और यह कहें कि बैंकुण्ठ और कैलाश जैसा कोई स्थान नहीं। इसीलिए तो अमर्त्य जगत,
मृत्य जगत से परे है।’’
बात यदि मानने-मनवाने
तक है तो चलिए माने लेते है कि उर्वशी, राम-सीता,
दुष्ट, असुर,
नरक, बैंकुण्ठ
और कैलाश आदि का अस्तित्व था या है। लेकिन इस अस्तित्व का बोध कराने के पीछे आखिर कवि
का मंतव्य क्या रहा है? क्या इस प्रश्न
की प्रासंगिकता को दरकिनार कर दें? यदि
यह प्रश्न डॉ. ध्रुव के काव्य के पन्नों के अस्तित्व की तरह सार्थक है तो उपरोक्त पात्रों
के अस्तित्व की लोक-सापेक्षता
अर्थात् लोक प्रभाव अवश्य देखना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं है तो कविता का अमृतस्वरूप,
परमात्मा के अस्तित्व में विलीन कर अलौकिक ही बना दिया
जाना चाहिए। उसका इस नश्वर-मृतवत लोक
से भला क्या वास्ता?
कविता को
आत्मा की कला मानते हुये डॉ. ध्रुव लिखते हैं कि-‘‘आत्मा
के विशिष्ट गुण यथा चैतन्य, व्यापन और
अनेकता में एकता, कविता में
अवश्य होने चाहिए।’’
चेतन्यपूर्णता
का जिक्र वे ‘‘ सब जंग जीतने
चलो बिगुल बज रहे हैं- यह कविता
है।’’ कहकर करते हैं। यदि यही कविता
की चेतन्यशीलता है जिसमें बिना किसी उद्देश्य के हर किसी को जंग जीतने के लिये बिगुल
बजाकर एकत्रित किया जाता है तो इस कविता की चेतन्यशीलता के तहत धर्मी,
अधर्मी, संत,
दुष्ट, समाजवादी,
साम्राज्यवादी आदि में से चाहे जिसका सर क़लम किया जा
सकता है और यह दिशाहीन चेतन्यशीलता लोक का मंगल कम, अमंगल
ज्यादा करेगी। फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कविता में चेतन्यशीलता
वैचारिक ऊर्जा अर्थात् भावात्मकता तो जरूरी है, लेकिन
जिस वैचारिक ऊर्जा की भावात्मकता मित्र-अमित्र
में फैसला न कर कोरे जंग के बिगुलों के साथ शरीक हो जाये,
उसे कविता की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?
कविता के
एक अन्य गुण व्यापनशीलता की डॉ. ध्रुव इस प्रकार व्याख्या करते हैं कि ‘जिस
प्रकार आत्मा पिण्ड में एवं ब्रह्माण्ड में अर्थात् व्यष्टि और समष्टि में,
बुद्धि में, हृदय
में एवं कृति अर्थात् नैतिकता में और इन तीनों से परे परमात्मा स्वरूप-स्वस्वरूपानुसंधा
अर्थात् धार्मिकता में विराजमान है, उसी
प्रकार कविता, कविता की
उत्तोत्तम भावना [कन्सैप्ट] को सार्थक करने वाली कविता भी मनुष्य की बुद्धि,
हृदय, नैतिकता
और अंतरात्मा अर्थात् धार्मिक आवश्यकताओं की परितुष्टि करने में समर्थ होनी चाहिए।’’
कविता के
व्यापनशील गुण की व्याख्या में डॉ. ध्रुव ने आत्मा को पिण्ड,
ब्रहमाण्ड, व्यष्टि,
समष्टि, बुद्धि,
हृदय, नैतिकता
और धार्मिकता में एक साथ बिठाकर जो कुछ प्रस्तुत किया है,
उससे आत्मा के प्रति असारहीनता तो इसी संदर्भ में देखी
जा सकती है कि हृदय तो मात्र रक्त आपूर्ति का माध्यम होता है,
उसमें आत्मा के स्वरूप के दर्शन किस प्रकार किये जा
सकते हैं? दूसरे चाहे
नैतिकता हो, चाहे धार्मिकता,
इन सब वैचारिक अवधारणाओं का सीधा-सीधा
संबंध हमारी बुदद्धि से होता है। अतः आत्मा की अवस्थिति के प्रति भटकाव आत्मा की स्थिति
और उसके स्वरूप को स्पष्ट करने में ही जब असमर्थ है तो कविता की उत्तोत्तम भावना को
कविता के संदर्भ में कैसे सार्थक माना जा सकता है? यही
कारण है कि डॉ. ध्रुव की यह सारी की सारी व्यापनशीलता ऐसे लगती है जैसे कविता नहीं,
कविता के किसी कथित आध्यात्म पक्ष पर प्रकाश डालने हेतु
हो।
कविता के
संदर्भ में आत्मा का अस्तित्व तो उस रागात्मक चेतना में है जो अपनी सत्यपरक वैचारिक
ऊर्जा की सुगन्ध विभिन्न भावों के रूप में उकेरती है। रागात्मक चेतना की यह सत्योन्मुखी
वैचारिक ऊर्जा रति, हास,
क्रोध, विरोध,
विद्रोह, जुगुप्सा
आदि के रूप में जब तक काव्य में नहीं आयेगी, तब
तक उत्तोत्तम भावना को कविता के संदर्भ में सार्थक नहीं ठहराया जा सकता। यह उत्तोत्तम
भावना तभी उत्तोत्तम हो सकती है जबकि इसकी वैचारिक ऊर्जा लोक-सापेक्ष,
जन-सापेक्ष
हो।
डॉ. ध्रुव
लिखते हैं कि-‘‘एक ही केन्द्रबिन्दु
या सूत्र के चतुर्दिक अनेक पात्रों, प्रसंग,
उक्तियों, वर्णनों
आदि की योजना करने में ही कवि की महिमा है।’’
डॉ. ध्रुव
का कविता के पक्ष में दिया यह तर्क सार्थक तो अनुभव होता है,
लेकिन वह केन्द्रबिन्दु या सारतत्व कौन-सा
और कैसा हो, उसे स्पष्ट
करने में यदि यह मेहनत की गयी होती तो कविता न सही कवितांश तो स्पष्ट हो ही सकता था।
जैसे एक ही केन्द्रबिन्दु रति के चतुर्दिक पात्रों, प्रसंगों,
उक्तियों, वर्णनों
की रसात्मकता पति-पत्नी के
दायित्वपूर्ण जीवन की रागात्मक चेतना को बोध करा सकती है,
जबकि उसी केन्द्र बिन्दु या सूत्र ‘रति’
के चतुर्दिक कुछ पात्र प्रसंग,
उक्तियों के वर्णन यौन,
कुच, नितम्ब
के बिम्बों की रसात्मकता बन सकते हैं। इस स्थिति में केन्द्रबिन्दु या सूत्र की सत्योन्मुखी-असत्योन्मुखी
गुणशीलता पर महत्व देना क्या आवश्यक नहीं?
कविता
के वाग्देवी रूप को स्पष्ट करते हुए डॉ. ध्रुव लिखते हैं कि-‘‘हम
कविता को देवी रूप में पूजते आये हैं। उसकी झिलमिलाती ज्योति जड़ और चेतन पदार्थों
से गहन अंधकार का नाश करती है।’’
यहाँ निवेदन
इतना है कि जब कविता वाग्देवी है और उसकी झिलमिलाती ज्योति जड़ और चेतन पदार्थों के
गहन अंधकार का नाश करती आयी है तो उस वाग्देवी का पूजन करने के बजाय उसके हाथ में साहस
के ऐसे वैचारिक औजार थमा दिये जायें जो शोषक और साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों के आदमखोर
जंगल को काट-छाँटकर मुनष्य
को शांति और सुरक्षा के माहौल में जीने लायक बना सके। वर्ना कथित परमात्मा की लौकिक
सृष्टि यूँ ही रोती-बिलखती रहेगी
और कविता का वाग्देवी स्वरूप इन प्रश्नों के घेरे में आ जायेगा कि क्या यही है कविता
का अमृतस्वरूप और वाग्देवी रूप? क्या
इसी का नाम कविता है?
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-15/109,ईसानगर,
निकट-थाना
सासनीगेट, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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