काव्य
में भाव और ऊर्जा
+रमेशराज
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पाठक, श्रोता
या दर्शक जब किसी काव्य-सामग्री का आस्वादन करता है तो उस सामग्री के रसात्मक प्रभाव,
आस्वादक के अनुभावों [ स्वेद,
स्तंभ, अश्रु,
रोमांच, स्वरभंग
आदि ] में स्पष्टतः देखे या अनुभव किए जा सकते हैं। सवाल यह है कि इस प्रकार के अनुभावों
के प्रगटीकरण के पीछे क्या किसी प्रकार की कोई ऊर्जा कार्य करती है?
ऊर्जा के बारे में वैज्ञानिकों का मत है-‘‘जिस कारण से किसी वस्तु में कार्य करने की
क्षमता रहती है, उसे ऊर्जा
कहते हैं।“ अर्थ यह कि वस्तु या व्यक्ति में निहित वह क्षमता ऊर्जा है जो उससे विभिन्न
प्रकार के कार्य संपन्न कराती है।
काव्य के संदर्भ में वैज्ञानिकों के ऊर्जा संबंधी
मत को लागू करते हुए सोचने की बात यह है कि क्या किसी आस्वादन सामग्री के आस्वादन से
आश्रयों के मन में जागृत भाव, संचारीभाव,
स्थायीभावादि किसी प्रकार की ऊर्जा के द्योतक होते हैं?
जो कि आश्रय के अनुभावों से शक्ति के रूप में पहचाने
जा सकते हैं?
रसाचार्यों के अनुसार-‘‘भावों का उद्गम यद्यपि आश्रय में होता है,
पर उनका संबंध किसी वाह्य वस्तु,
विषय या पात्र से होता है। भावों का उद्गम जिस मुख्य
पात्र, वस्तु या विषय से होता है,
वह काव्य में आलंबन कहा जाता है।’’
अर्थ यह कि भावों के निर्माण में मुख्य भूमिका आलंबन निभाते हैं।
अब प्रश्न यह है कि क्या भाव किसी प्रकार की ऊर्जा के स्वरूप हैं?
काव्य के पात्रों को लें- यह पात्र अपनी-अपनी स्थितियों
में कभी आश्रय होते हैं तो कभी आलंबन। आलंबनों के रूप में पात्रों का धर्म अर्थात्
उनका व्यवहार, हाव-भाव,
चेष्टाएँ, विभिन्न
प्रकार की क्रियाएँ, उनके मन में
उद्बुद्ध भावों द्वारा ही सम्पन्न होती हैं। जैसे यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति
को अपशब्द या गाली दे रहा है, उसे
जान से मारने की बात कह रहा है, उसका
स्वर-भंग हो रहा है तो इसका कारण उसके मन में उद्बोधित क्रोध है। उद्बोधित क्रोध का कारण निश्चित रूप से दूसरे व्यक्ति का
वह व्यवहार रहा है, जिससे इस
व्यक्ति को मानसिक या शारीरिक पीड़ा हुई। बहरहाल इस व्यक्ति की सारी-की-सारी क्रियाशीलता
या कार्य करने की क्षमता का मूल आधार क्रोध है। इसलिए यह बात सप्रमाण कही जा सकती है
कि भावों में ही किसी भी कार्य को करने या कराने की क्षमता होती है,
अतः भाव एक प्रकार की ऊर्जा ही होते हैं। बात को स्पष्ट
करने के लिए यहाँ एक उदाहरण आवश्यक है-
अन्याय
के शैतान का सिर धड़ से उड़ा दो
हम
जुल्म के खिलाफ हैं, दुनिया को
बता दो।
इन पंक्तियों में आश्रय के रूप में कवि के मन में
उत्पन्न विद्रोह का वह भाव है, जिसकी
क्षमता के बल पर कवि अन्यायियों, अत्याचारियों
के सर धड़ से उड़ाने की बात कह रहा है। विरोध की क्षमता उसे ‘जुल्म के खिलाफ’ दुनिया-भर
को यह बताने के लिए प्रेरित कर रही है कि अब अत्याचार को बिल्कुल सहन नहीं किया जाएगा।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कवि के मन में विद्रोह का भाव यहाँ ऊर्जा के रूप में ही
कार्य कर रहा है। कवि के मन में यह ऊर्जा, आलंबन
स्वरूप वर्तमान आतातायी व्यवस्था के कारण उत्पन्न हुई है। इसका सीधा अर्थ यह है कि
एक आश्रय के मन में स्थित ऊर्जा को जब किसी आलंबन द्वारा बल मिल जाता है तो वह गतिज
ऊर्जा में तब्दील हो जाता है, जिसे
काव्य के क्षेत्र में भाव कहा जाता है।
भाव
अर्थात् ऊर्जा के विभिन्न स्वरूप
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1.ध्वन्यात्मक
ऊर्जा
विभाव की उद्दीपन क्रिया के द्वारा जब आश्रय सुखानुभूति
से सिक्त होता है तो उसमें रति, उत्साह,
हास, स्नेह,
प्रेम, हर्ष,
मोह, गर्व,
आशा, संतोष,
धैर्य आदि भावों के रूप में ध्वन्यात्मक ऊर्जा का संचार
होता है, जिसके कारण आश्रय का स्पर्श,
चुंबन, आलिंगन,
हँसना, मीठी-मीठी
बातें करना, वाणी का गद्गद्
हो जाना, रोमांचित हो उठना जैसे अनुभावों
के रूप में अनेक क्रियाएँ प्रारंभ हो जाती है। उदाहरणस्वरूप-
जतीले
जाति के सारे प्रबंधें को टटोलेंगे
जनों
को सत्य सत्ता की तुला से ठीक तोलेंगे।
बनेंगे
न्याय के नेगी, खलों की पोल
खोलेंगे
करेंगे
प्रेम की पूजा रसीले बोल बोलेंगे।
उक्त पंक्तियों में जन के प्रति बरते जा रहे सत्ताई
भेदभाव के कारण आश्रय [ कवि ] के मन में उत्साह का भाव जागृत हो उठा है और यही वह ध्वन्यात्मक
ऊर्जा है जिसके कारण कवि जतीले जाति के प्रबंधों को टटोलते हुए,
जनों को सच्चा न्याय दिलाने की कोशिश करता है,
खलों की पोल खोलने के लिए अपनी वाणी में ओज पैदा करता
है तथा पूरे समाज को प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए रसीले बोल अर्थात् वाणी में मृदुलता
लाता है।
2.ऋणात्मक
ऊर्जा
आलंबन के अनाचार,
अत्याचार आदि से जब आश्रय के मन में दुःखानुभूति जागृत
होती है तो उसका मन शोक, क्रोध,
भय, आश्चर्य,
विस्मय, शंका,
चिंता, आवेग,
ग्लानि, विषाद,
निराशा, उत्साहहीनता,
घृणा, जुगुप्सा
आदि भावों के रूप में ऋणात्मक ऊर्जा से सिक्त हो जाता है।
इस प्रकार की ऋणात्मक ऊर्जा की विशेषता यह होती है कि इसके अंतर्गत
आश्रय आलंबनों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करता है,
उसके मन से ‘रमणीयता’ जैसा तत्त्व गायब हो जाता है।
मन से उत्साह खत्म होने के कारण व्यक्ति कोई संवेदनात्मक या सकारात्मक साहसपूर्ण कार्य
करने के प्रति उदासीन हो जाता है। आलंबनों के प्रति यह ऋणात्मक ऊर्जा अनुभवों के रूप
में आँखें मींच लेना, थूकना,
नाक सिकोड़ना, काँप
उठना, मुख का पीला पड़ जाना या घबराहट
बढ़ना, आँखें लाल होना,
कठोर उक्तियाँ, गर्जन-तर्जन,
शस्त्र-संचालन, दाँत
पीसना, फड़कना आदि क्रियाएँ जागृत
हो जाती हैं। उदाहरण के लिए-
पेट
को रोटी नहीं, तन पर कोई
कपड़ा नहीं
अब
किसी के वास्ते शृंगार कोई क्या करे।
इन पंक्तियों में गरीबी और भुखमरी की शिकार आश्रय
[नायिका ] की अनुभूतियाँ इतनी दुःखात्मक हैं कि उसमें रति के प्रति सारा-का-सारा उत्साह,
निराशा-उदासीनता में बदल गया है। यह उत्साहहीनता एक ऐसी ऋणात्मक ऊर्जा है,
जो नारी के मन में रमणीय तत्वों का ह्रास कर रही है।
भाव
या ऊर्जा के विभिन्न गतिशील स्वरूप
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आश्रय जब आलंबनगत उद्दीपन धर्म या प्रकृतिगत उद्दीपन
धर्म के प्रति संवेदनशील होता है तो उसमें विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का संचय होता
है। ऊर्जा-संचयन की यह प्रक्रिया निश्चित गति से एक दिशा या भिन्न दिशाओं में उत्तरोत्तर
वृद्धि पाती है। ऊर्जा-संचयन की इस प्रक्रिया में विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का उद्भव
होता है। इस उद्भव के उपरांत यह समस्त ऊर्जाएँ एक विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा में तब्दील
हो जाती हैं। काव्य के अंतर्गत इन विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं को भाव और स्थायी भाव
कहा जाता है। ऊर्जा अपने विभिन्न स्वरूपों में किस प्रकार गतिशील होकर एक विशिष्ट प्रकार
की ऊर्जा में तब्दील हो जाती है, इसे
समझाने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है-
मैया
मोरी मैं नहिं माखन खायौ।
भोर
भये गैयन के पीछे मधुवन मोहि पठायौ
चार
पहर वंशीवट भट्क्यौ, साँझ परे
घर आयौ
मैं
बालक बँहियन को छोट्यौ, छींकौ कहि
विधि पायौ
ग्वाल-बाल
सब बैर पड़े हैं, बरबस मुँह
लिपटायौ
यह
लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुत ही नाच
नचायौ
सूरदास
तब विहँसि यशोदा ले उस कंठ लगायौ।
महाकवि सूरदास के उक्त पद में ऊर्जा या भाव का
संचयन दो प्रकार से हो रहा है। प्रथम स्थिति आलंबन के रूप में यशोदा की है,
जो कृष्ण की माखन चोरी पकड़े जाने पर,
उनसे माखन चोरी उगलवाने या स्वीकारवाने के लिए,
गुस्से में धमकी, मार,
पिटाई करने पर आमादा है। दूसरी स्थिति श्रीकृष्ण की
है, जो यशोदा मैया का क्रोधित रूप
देखकर भय से ग्रस्त हो गए हैं, लेकिन
अपनी चोरी पकड़े जाने के प्रति अपने बचाव में विभिन्न प्रकार के भावों से सिक्त हो
रहे हैं, जिनका प्रगटीकरण उनके वाचिक
अनुभावों में हो रहा है।
पद की प्रथम पंक्ति में श्रीकृष्ण के मन में भय
तथा दैन्य के भाव हैं, जो एक ऐसी
ऊर्जा का परिचय दे रहे हैं, जिसमें श्रीकृष्ण
माखन चोरी न किए जाने का मैया से निवेदन कर रहे हैं।
पद की दूसरी पंक्ति में श्रीकृष्ण के वाचिक अनुभावों
में माखन चोरी के आरोप से बचने के लिए चतुराई के भाव का प्रस्पफुटन हो रहा है जिसकी
ऊर्जा भोर होते ही गाय चराने के लिए माँ यशोदा द्वारा मधुवन भेजे जाने जैसे तर्क में
व्यक्त हो रही है।
पद की तीसरी पंक्ति में श्रीकृष्ण के अनुभावों
से [ चार पहर वंशीवट भट्क्यौ, साँझ
परे घर आयौ ] के तर्क के रूप, थकान
और व्यस्तता की ऊर्जा का परिचय मिलता है।
पद की चौथी पंक्ति में श्रीकृष्ण अपने बालपन,
छोटी-छोटी बाँहों और ऊंचे स्थान पर छींके की स्थिति
के पीछे विवशता की ऊर्जा को उजागर कर रहे हैं, जिसकी
क्षमता माखनचोरी जैसा कार्य नहीं कर सकती।
पद की पाँचवीं पंक्ति में इन सारे तर्कों के असपफल
हो जाने , श्रीकृष्ण एक नया तर्क ग्वाल-बालों
द्वारा उनके मुँह पर माखन लिपटा देने के कारण वैरभाव दर्शा रहे हैं,
जिसके मूल में असमर्थता एवं निष्छलता की ऊर्जा कार्य
कर रही है।
पद की छठवीं पंक्ति में श्रीकृष्ण के सारे तर्क
असपफल हो जाने पर, उनके मन में
एक नयी रोष एवं विरक्ति की ऊर्जा का संचयन हो रहा है,
जिसका प्रदर्शन लाठी और कंबल फैंकने के कार्य एवं विभिन्न
प्रकार से सताए जाने की शिकायत के रूप में हो रहा है।
उक्त पद की प्रथम पंक्ति से लेकर छठवीं पंक्ति
तक भय, दैन्य,
थकान, व्यस्तता,
रोष, शिकायत,
धौंस के माध्यम से जिस प्रकार की ऋणात्मक ऊर्जा के विभिन्न
रूप बन रहे हैं, यह ऊर्जाएँ
कुल मिलाकर चोरी के आरोप से बचाव की ऊर्जा बनकर उभर रही है,
जो शुरू से लेकर अंत तक चतुराईजन्य या झूठजन्य ही हैं।
सूरदास के इस पद में आश्रय के रूप में यशोदा की
दूसरी स्थिति है, जिसके मन
में क्रोध की ऊर्जा विद्यमान है, लेकिन
जब वह श्रीकृष्ण के बालमुख से चोरी पकड़े जाने के बचाव के प्रति दिए गए श्रीकृष्ण के
तर्कों के प्रति चतुरता और चपलता का अनुभव करती है तो क्रोध की सारी-की-सारी ऊर्जा
वात्सल्य में तब्दील हो जाती है, वह
मुस्कराती हैं और श्रीकृष्ण को गले से लगा लेती हैं।
सूरदास के उपरोक्त पद के माध्यम से ऊर्जा के गतिशील
स्वरूप के विवेचन से हम यह कहना चाहते हैं कि प्राणी के मन में उत्पन्न हुई ऊर्जा का
संबंध उसके चिंतन या विचार करने की प्रक्रिया से होता है। जैसे-जैसे उसके मन में विचारों
में परिवर्तन आता है, वैसे-वैसे
ऊर्जा के विभिन्न रूप बदलते चले जाते हैं।
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रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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