डॉ.
नामवर सिंह की दृष्टि में कौन-सी
कविताएँ गम्भीर और ओजस हैं??
+रमेशराज
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कविता के
क्षेत्र में यह प्रश्न कि ‘कविता क्या
है? कोई नया प्रश्न नहीं हैं। यह
प्रश्न अपने-अपने सलीके-से
समीक्षकों तथा आलोचकों ने उठाया है और अपने-अपने
तरीके से इसका उत्तर देने का जीतोड़ प्रयास भी किया है। लेकिन कविता के इस प्रश्न के
मूल में जाने के बजाय आलोचकों-समीक्षकों
ने जिस तरह से इसे सुलझाने की कोशिश की है, उससे
‘कविता क्या है’
के प्रति अपनी-अपनी
मान्यताएँ, अपने-अपने
दावे लेकर मैदान में कूदने वाले चिंतकों ने अपनी सारी की सारी मानसिक ऊर्जा कविता को
तय करने के बजाय किसी कवि विशेष की कविता को तय करने में खपा डाली है। परिणाम यह है
कि ‘कविता क्या है’
जैसे ज्वलंत प्रश्न का समाधान आज भी उस गुफा की तरह
व्यक्त हो रहा है, जिसमें रोशनी
का एहसास तो बेहद कम होता है, पर
अँधेरे की खौपफनाक सत्ता पूरी तरह जीवंत हो उठती है। अँधेरे के इसी खौफनाक तिलिस्म
को तोड़ने के लिये सन् 1968 में
प्रख्यात प्रगतिशील आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने अपने तरीके से फिर यह प्रश्न उठाया कि-कविता
क्या है? उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कविता
के नये प्रतिमान’ में डॉ. जगदीश
गुप्त का कविता के विषय में हवाला देते हुए कहा कि-‘‘डॉ.
जगदीश गुप्त का यह कथन सर्वथा समयोचित है कि किसी काव्य-कृति
का कविता होने के साथ ही नयी होना अभीष्ट है। वह नयी हो और कविता न हो,
यह स्थिति साहित्य में कभी स्वीकार्य नहीं। फिर नयी
कविता का विरोध आज नयेपन के आग्रह के कारण उतना नहीं हो रहा,
जितना इस कारण कि जो वाह्यतः और साधाणतः कविता नहीं
लगता, उसे उसके अन्तर्गत कविता कहा
जाता है। अतएव नया क्या है? इस प्रश्न
के साथ ही यह प्रश्न भी जीवित प्रश्न है कि ‘कविता
क्या है?’’
उन्होंने
डॉ. गुप्त के प्रश्न को समयोचित और सार्थक इसलिये माना क्योंकि डॉ. सिंह का कहना है
कि-‘‘ कविता में अब नयी कविता के
आगे नयी प्रवृत्तियों का उदय हो चला है। डॉ. गुप्त यह मानते हैं कि ‘जो
कथन सृजनात्मकता तथा संवेदनीयता से रहित हो उसे किसी भी स्तर पर कविता नहीं कहा जा
सकता। इस विवेचन से स्पष्ट है कि सृजनात्मकता नवीनता का पर्याय है और संवेदनीयता कविता
का। किन्तु इस विवेचन के बाद जब डॉ. जगदीश गुप्त कविता की परिभाषा प्रस्तुत करते हैं
तो जाने कैसे सृजनात्मकता का तत्त्व गायब हो जाता है।’’
उक्त सारे प्रकरण में ध्यान देने योग्य बात यह है कि डॉ. जगदीश गुप्त
यह मानते हों या मानते हों कि सृजनात्मकता नवीनता का पर्याय है और संवेदनीयता कविता
का’। लेकिन डॉ. नामवर सिंह तो
बहरहाल यह मानकर चलते ही हैं कि सृजनात्मकता नवीनता होती है और संवेदनीयता कविता।
अब डॉ. नामवर सिंह जैसे महान और प्रगतिशील आलोचक से कौन पूछे कि
जब संवेदनीयता का मतलब कविता होता है तो बेचारे जगदीश गुप्त की सृजनात्मकता के पीछे
हाथ धोकर क्यों पडे हैं? केवल नवीनता
से क्यों इतना व्यामोह? बात यदि कविता
के संदर्भ में चल रहीं है तो संवेदनीयता की पूंछ, केश
कुछ भी पकड़ लेते, कविता अपने
आप पकड़ में आ जाती। लेकिन नामवर सिंह की खूबी यह है कि उन्हें पकड़कर कुछ भी नहीं
चलना है, बस हवा में हाथ-पैर पटकते रहना
है, सो वह डॉ. गुप्त पर ‘सृजनात्मकता
की भूल’ का आरोप लगाते हुए यह बात बड़े
ही निर्भीक होकर गर्व के साथ कह जाते है कि ‘प्राचीन
चिन्तकों के साथ अपनी बात को जोड़ने की धृष्टता’ से
अभिभूत डॉ. जगदीश गुप्त अपनी काव्य-परिभाषा
में वह तत्त्व भूल गये जिसे नयी कविता ने हिंदी काव्य-परम्परा
में जोड़ा है। इसीलिये अनुभूति तो उन्हें याद रह गयी,
लेकिन सृजनात्मता को भूल गये।’’
यही नहीं
डॉ. नामवर सिंह ने डॉ. गुप्त के इस तथ्य को भी स्पष्ट करने कि कोशिश नहीं की कि-‘‘कविता
में नवीनता की उत्पत्ति वस्तुतः सच्ची कविता लिखने की आकांक्षा से ही होती है।’’
जब डॉ. नामवर
सिंह को ‘संवेदनीयता’
और ‘सच्ची
कविता’ से कुछ लेना देना नहीं है ।
अतः वह अपने कथनों के माध्यम से ऐसे अंतर्विरोध और उलझाव पैदा करते चले जाते हैं कि
अन्त तक यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि आखिर डॉ. सिंह क्या कहना चाह रहे हैं या क्या स्पष्ट
करना चाह रहे हैं।
बानगी के
तौर पर यहाँ उन्हीं की पुस्तक से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
डॉ. नामवर
सिंह अपने निबन्ध ‘काव्य-बिम्ब
और सपाट बयानी’ के अन्तर्गत
काव्य में नैतिकता के समावेश को जायज ठहराते हुए यह मानते हैं कि-‘‘आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल सीधे भावोद्गार को ‘
काव्य शिष्टता’ के
विरुद्ध मानते थे। स्पष्टतः यह भद्दापन काव्य-दोष
ही नहीं बल्कि ‘नैतिक दोष’
है। विचार क्रम में वस्तुयोजना को स्पष्ट करते हुए शुक्लजी
ने बतलाया कि आवश्यकता से अधिक अप्रस्तुत विधान का सहारा लेना कविता के लिये हानिकारक
है। उन्ही के शब्दों में-‘‘यों ही खिलवाड़
के लिये बार-बार प्रसंग
प्राप्त वस्तुओं से श्रोता या पाठक का ध्यान हटाकर दूसरी वस्तुओं की ओर ले जाना,
जो प्रसंगानुकूल भाव उद्दीप्त करने में भी सहायक नहीं,
काव्य के गाम्भीर्य और गौरव को नष्ट करना है,
उसकी मर्यादा बिगाड़ना है।’’
यहाँ मूल्य-निर्णय
में ‘मर्यादा’
शब्द नैतिक रंग की सूचना देता है। इस प्रकार के नैतिक
निर्णयों के लिये कुछ लोगों ने शुक्लजी पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने काव्येतर मूल्यों
का प्रयोग किया’, किन्तु संदर्भ
से स्पष्ट है कि वे तथाकथित काव्येतर मूल्य, काव्य-मूल्यों
के तार्किक परिणाम थे।’’
इस प्रकार
हम पाते हैं कि उक्त कथन के माध्यम से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य-निर्णयों
पर डॉ. सिंह अपनी सहमति की मुहर लगाते हैं तथा एक अन्य स्थान पर लिखते हैं-‘‘जागरूक
समीक्षक शब्द के इदिगिर्द बनने वाले समस्त अर्थवृत्तों तक फैल जाने का विश्वासी है।
वह संदर्भ के अनुसार शब्द में निहित अर्थापत्तियों को पकड़कर काव्य-भाषा
के आधार पर ही काव्य का पूर्ण मूल्यांकन कर सकता है,
जिसमें उसका नैतिक मूल्यांकन भी निहित है।’’
कविता में
इसी ‘नैतिकता’
के समावेश के आधार पर उन्होंने यह तथ्य सामने रखे कि-‘‘नयी
प्रयोगशील कविता के साथ काव्य-भाषा
के निर्माण की दिशा में जो यह मान्यता आयी कि कविता की भाषा का आधार बोलचाल की भाषा
होनी चाहिए, वह केवल भाषागत
स्वाभाविकता अथवा स्थूल प्रकृतिवादी [नेचुरलिस्ट] प्रवृत्ति का ही सूचक नहीं,
बल्कि उसके साथ कवि का एक गम्भीर नैतिक साहस जुड़ा हुआ
है, जिसके अनुसार अपने आसपास की
दुनिया में हिस्सा लेते हुए ही कविता को इस दुनिया के अन्दर एक दूसरी दुनिया की रचना
करना आवश्यक हो जाता है।’’
अपनी बात
की पुष्टि में उन्होंने साही का यह कथन भी उधृत किया कि-‘‘गहरे
अर्थ में आज के जीवन के स्पन्दन की तलाश भाषा के भीतर से ‘निचुडते
हुए रक्त’ की तलाश है,
क्योंकि आज के कवि का सत्य यथार्थ के बाहर किसी लोकोत्तर
अदृश्य में नहीं, यथार्थ के
भीतर अन्तर्भुक्त संचार की तरह अनुभव होता है।’’
डॉ. नामवर
सिंह के उक्त तथ्यों के आधार पर उन्हीं के निष्कर्षों को उनकी सहमति के रूप में हम
इस प्रकार चुन-चुन कर रख
सकते हैं-
1.
सीधे भावोद्गार काव्य-शिष्टता
के विरुद्ध होते हैं।
2.
अधिक अप्रस्तुत विधानों का सहारा लेना कविता के लिये
हानिकारक होता है।
3.
कविता में मार्यादाओं का पालन करना नैतिक रंग का सूचक
है और नैतिक निर्णय भले ही कुछ लोगों के लिये काव्येत्तर मूल्य रहे हों,
लेकिन इन्हें कविता के संदर्भ में तार्किक रूप से स्वीकारा
जाना चाहिए।
4.
जागरूक समीक्षक को संदर्भ के अनुसार शब्द में निहित
अर्थापत्तियों पकड़ कर काव्य-भाषा
के आधार पर काव्य का पूर्ण मूल्यांकन करना चाहिए, जिसमें
उसका नैतिक मूल्यांकन भी निहित है।
5.
कविता में बोलचाल की भाषा केवल भाषागत स्वाभविकता ही
या प्रकृतिवादी प्रवृत्ति की ही सूचक नहीं होती, बल्कि
इसमें कवि का एक गम्भीर नैतिक साहस जुड़ा हुआ होता है।
6.
अपने आसपास की दुनिया में हिस्सा लेते हुए कवि को कविता
के भीतर एक नयी और जरूरी दुनिया का निर्माण करना चाहिए।
7.
अगर हमें जीवन के स्पन्दन को तलाशना है तो आवश्यक है
कि भाषा के भीतर से ‘निचुड़ते
हुए रक्त’ को तलाशना
होगा क्योंकि आज के कवि का सत्य काव्य के बाहर किसी लोकोत्तर अदृश्य में नहीं।
डॉ. नामवर
सिंह के उक्त तथ्य निस्संदेह कविता के कवितापन को तय करने में बड़े ही सारगर्भित-सार्थक
और तर्कसंगत हैं लेकिन अपने इन्ही तथ्यों के माध्यम से वे कविता के नाम पर कुछ कवियों
को स्थापित करने की गरज से एक ऐसा खूबसूरत घपला या घोटाला कर जाते हैं जिसे सुदामा
पांडेय ‘धूमिल’
के शब्दों में यूँ कहा जा सकता है कि-
‘हर
ईमानदारी का
एक
चोर दरवाजा है
जो
संडास की बगल में खुलता है।’’
डॉ. नामवर
सिंह धूमिल की इन पंक्तियों में ‘शब्दों
और तुकों से खेलने की अपेक्षा सूक्तियों से खेलने की वृत्ति की अधिकता’
बतलाते हैं। इनके अर्थ गाम्भीर्य पर कोई चर्चा नहीं
करते। उन्हें इन पंक्तियों के माध्यम से भाषा या आदमी के भीतर से ‘रक्त
निचोड़ने वाले’
रक्तभक्षी चरित्र नजर नहीं आते जिनके मुख पर सौम्यता,
सदाचार, मंगलाचार
के मंत्र होते है लेकिन मन के भीतर दुराचारों, धूर्तता
और ठगी की सडांध भरी होती है। यह अँधेरे में परम अभिव्यक्ति की कैसी खोज है जो अँधेरे
की सत्ता को तहस-नहस करने
के बजाय अँधेरे को ही और ज्यादा जीवंत और पुष्ट करती है।
अँधेरे के
बीच रोशनी के सूत्रों को खत्म करने की यह साजिश कितनी खूबसूरती के साथ की जाती है,
इसका अन्दाजा डॉ. नामवर सिंह की काव्य के मूल्यों के
प्रति की जाने वाले घपलेबाजी से सहजतापूर्वक लगाया जा सकता है। वह सुदामा पांडेय धूमिल
कविताओं के चुनौतीपूर्ण वर्गसंघर्षीय रचनात्मक आलोक [ जो अंधेरे की नाक पर बिना किसी लागलपेट के रोशनी का व्यजनात्मक
घूँसा जड़ता है ] को सूक्तियों से खेलने की वृत्ति कहकर खारिज कर देते हैं । यही नहीं
वह निराला की ‘कुकुरमुत्ता’
जैसी अर्थ गम्भीर और सत्योन्मुखी चेतना से युक्त कविता
को ‘मात्र कुतूहल,
हास्य-व्यंग्य
के प्रति एक विशेष प्रकार का पूर्वग्रह’ घोषित
कर डालते हैं।
सवाल पैदा होता है कि डॉ. नामवर सिंह की दृष्टि में कौन-सी
कविताएँ गम्भीर और ओजस हैं??
अपनी पुस्तक
‘कविता के नये प्रतिमान’
के जिस पृष्ठ पर धूमिल की कविता पर वे ‘सूक्तियों
से खिलवाड़ का आरोप’ लगाते हैं
, ठीक उसके ऊपर वे ‘श्रीकांत
वर्मा के सधे हुए हाथ से सृजित कविता’ को
वे ‘कम से कम शब्दों में अधिक से
अधिक गहरे अर्थ की व्यंजना से युक्त कविता’ घोषित
करते हैं। कविता में कितने गहरे अर्थ की व्यंजना है और वो भी ‘कम
से कम शब्दों में’, कविता प्रस्तुत
है-
मैं हरेक
नदी के साथ
सो रहा हूँ
मैं हरेक
पहाड़
ढो रहा हूँ
मैं सुखी
हो रहा हूँ
मैं दुखी
हो रहा हूँ
मैं सुखी-दुखी
होकर
दुखी-सुखी
हो रहा हूँ
मैं न जाने
किसी कन्दरा में
जाकर चिल्लाता
हूँ
हो रहा
हूँ।
मैं हो रहा हूँ।
डॉ. नामवर
सिंह इस कविता की तारीफ करते हुए कहते हैं-‘‘शुरू
का शाब्दिक खिलवाड़ अन्त तक जाते-जाते
‘मैं हो रहा हूँ’
की जिस अर्थ गम्भीरता में परिणत होता है,
वह ‘आज
की कविता की एक उपलब्धि है। ‘अरथ
अमित आखर अति थोरे’ के ऐसे उदाहरण
आज कम ही मिलते हैं।’’
अन्तर्विरोध
देखिए कि उक्त कविता को आज की कविता की उपलब्धि बताने के बावजूद डॉ. नामवर सिंह लिखते
है कि- “इस कविता में शुरूआत ही शब्दों
के साथ खिलवाड़ से होती है।“
इसका
सीधा अर्थ क्या यह नहीं कि कविता में शब्दों का खिलवाड़ मौजूद है। सही बात तो यही है
कि कविता की जिस कमी को डॉ. सिंह जिस बात को दबे स्वर में स्वीकारते हैं,
वह बात इस कथित कविता को आदि से लेकर अन्त तक ‘
कविता की एक कमजोरी’ के
रूप में सर्वत्र व्याप्त है। ‘विसंगति
और विडम्बना’ नामक निबंध
के अन्तर्गत प्रस्तुत इस कविता में विसंगति या विडम्बना भले न हो,
लेकिन शब्दों से लेकर अर्थ तक असंगति ही अंसगति की भरमार
है। अबाध गति से बहती हुई नदी के साथ सोने का उपक्रम अवास्तविक ही नहीं नदी की गति
या उसके संघर्ष में विराम और बाधा का द्योतक है। अबाध गति में नदी को या अन्य किसी
को विश्राम या निद्रा कहाँ? अबाध गतिधा
नदी के साथ कथित रूप से सोने वाला कवि कैसे और क्यों पहाड़ों को ढो रहा है? पहाड़ ढोने
की यह क्रिया किसके लिये किया गया संघर्ष है? जबकि
वह नींद में है, सो रहा है।
यह क्या हो रहा है? कविता में
कहीं स्पष्ट नहीं। सुखी की तुक दुखी से मिला देने भर से क्या कोई कथित कविता,
कविता होने का दम्भ भर सकती है?
‘‘अरथ अमित आखर अति थोरे” के रूप में कविता का यह कैसा
उदाहण है कि एक निरर्थक बात को पंन्द्रह पंक्तियों में नयी कविता के नाम पर खींच-खींच
कर सिर्फ पेज भरने के लिये फैलाया गया है। ‘मैं’
से शुरू होकर ‘हो
रहा हूँ’ की प्रतिध्वनि यह कविता किस
प्रकार के गहरे अर्थ की व्यंजना है? क्या
यह कथित कविता छायावादी, रोमांसवादी,
व्यक्तिवादी संस्कारों से मुक्त है?
यह कविता में आज की कविता की उपलब्धि के रूप में कैसे
गाम्भीर्य को ओढ़े हुए है, डॉ. नामवर
सिंह इस तथ्य को थोड़ा-सा भी स्पष्ट
करते तो बात शायद कुछ समझ में आती, लेकिन
डॉ. सिंह की विशेषता ही यह है कि वे जिन तत्थों को कविता के पक्ष में चुन-चुन
कर खड़ा करते हैं, वही तथ्य
कविता की परख के लिये एक दम बौने और पंगु हो जाते हैं। ऐसा किसलिये होता है-
क्योंकि यहाँ डॉ. सिंह की रुचि कविता को स्पष्ट करने
में कम, श्री श्रीकांत वर्मा कविता
को सारगर्भित और सार्थक घोषित सिद्ध करने में अधिक है।
‘कविता के
नये प्रतिमान’ पुस्तक में
पृष्ठ 102 पर रघुवीर सहाय की ‘नया
शब्द’ शीर्षक कविता के बारे में जब
डॉ. नामवर सिंह यह स्वीकारते हैं कि-‘‘ इन
पंक्तियों में न तो कोई नया शब्द है, क्योंकि
कवि के पास आज ‘न तो शब्द’
ही रहा है और न ‘भाषा’।’’
तब सवाल यह है कि डॉ. नामवर सिंह को यह एहसास कैसे होने
लगता है कि इस कविता का संकेत किसी नये अनुभव की ओर है। यदि इस कथित कविता में कोई
नया अनुभव-संकेत है
तो उसको डॉ. नामवर सिंह स्पष्ट करना था।
एक
अन्य कविता ‘‘फिल्म के
बाद चीख’ की भाषा सम्बन्धी खोज की छटपटाहट का एक पहलू और है जिसमें भाषा की
खोज ‘आग’
की खोज में बदल गयी है। स्वयं कवि के अनुसार ‘न
सही यह कविता’ यह भले ही
उसके हाथ की छटपटाहट सही’ लेकिन इसके
माध्यम से वे आग खोजते हैं। यहाँ गौरतलब और आश्चर्यजनक बात यह है कि आग खोजने की यह
क्रिया [जिसमें मन नहीं, हाथ छटपटाते
हैं ] घोर उजाले में सम्पन्न होती है। क्या घोर उजाले सें कोई घोर अँधेरा है?
इस घोर उजाले का रूप या विद्रूप इस कथित कविता में जब
अस्पष्ट है तो ‘आग’
खोजने की यह सारी की सारी प्रक्रिया काव्य-भाषा
तथा सृजनशीलता को निःशब्द, निष्प्राण
करेगी ही। और कवि के भीतर छुपा हुआ चोर इस तथ्य को स्वीकारेगा ही कि ‘न
सही यह कविता’। इसलिए इस
कविता के लिये नये प्रतिमान की खोज का अर्थ? सब
कुछ व्यर्थ।
तब अर्थपूर्ण क्या है, जिसके
लिये डॉ. सिंह इतनी मगजमारी कर रहे हैं। ‘काव्य
बिम्ब और सपाटबयानी’ निबन्ध के
अंतर्गत डॉ. नामवर सिंह अपनी पोल यह कहकर स्वयं खोल देते हैं कि-‘‘
निष्कर्ष यह है कि कविता बिम्ब का पर्याय नहीं है,
सामान्यतः जिसे ‘ बिम्ब’
कहा जाता है उसके बिना भी कविताएँ लिखी गयी हैं और वे
बिम्बधर्मी कविताओं से किसी भी तरह कम अच्छी नहीं कही जा सकतीं। कविता में बिम्ब रचना
सदैव वास्तविकता को मूर्त ही नहीं करती [ वैसे, मूर्त
और अमूर्त शब्दों का प्रयोग प्रर्याप्त अनिश्चितता अर्थों में होता है ] कविता में
बिम्ब वास्तविकता के साक्षात्कार का सूचक नहीं होता। प्रायः वह वास्तविकता से बचने
का एक ढँग भी रहा है। काव्य-भाषा के लिये
भी प्रायः बिम्ब-योजना हानिकारक
सिद्ध हुई है। बिम्बों के कारण कविता बोलचाल की भाषा से अक्सर दूर हटी है। बोलचाल की
सहज लय खण्डित हुई है। वाक्य विन्यास की शक्ति को धक्का लगा है,
भाषा के अन्तर्गत क्रियाएँ उपेक्षित हुई हैं। विशेषणों
का अनावश्यक भार बढ़ा है और काव्य-कथ्य
की ताकत कम हुई है।’’
काव्य-बिम्ब
के बारे में यह तर्क प्रस्तुत करने के बावजूद जब डॉ. नामवर सिंह यह कहते हैं कि-‘‘काव्यबिम्ब
पर चर्चा का आरम्भ यदि एक कविता के ठोस उदाहरण से न हो तो फिर वह चर्चा क्या?’’
बात अटपटी-सी
लगती है। फिर भी चूकि चर्चा डॉ. नामवर सिंह कर रहे हैं और वह भी एक कविता के ठोस उदाहरण
से, इसलिये उनकी बात पर पूरी तरह
ध्यान देते हुए कविता का वह ठोस उदाहण प्रस्तुत है-
इस अनागत
को करें क्या ?
जो कि अक्सर
बिना सोचे, बिना जाने
सड़क पर चलते
अचानक दीख जाता है
डॉ. सिंह,
केदारनाथ सिंह की इस कविता के बारे में लिखते हैं कि-‘‘अनागत
अमूर्त है किन्तु कवि-दृष्टि उसकी
आहट को अपने आस-पास के वातावरण
में देख लेती है और वातावरण के उन मूर्त संदर्भों के द्वारा अमूर्त अनागत को मूर्त
करने का प्रयास करती हैं। जीवंत संदर्भों के कारण अनागत एक निराकार भविष्य के स्थान
पर जीवित सत्ता मालूम होता है। एक प्रेत-छाया
के समान वह कभी किताबों में घूमता प्रतीत होता है तो कभी रात की वीरान गलियों-पार
गाता हुआ। इसी तरह खिडकियों के बन्द शीशों को टूटते,
किबाड़ों पर लिखे नामों के मिटते और बिस्तरों पर पड़ी
छाप देखकर उसके आने का एहसास होता है। उसका आना इतना अप्रत्याशित और रहस्यमय है कि
हर नवान्तुक उसी की तरह लगता है।’’
तीन पंक्तियों
का उदाहण के रूप में दिया गया उपरोक्त कवितांश क्या इन सब खूबियों को व्यक्त करने में
समर्थ है, जिनका धाराप्रवाह
जिक्र डाक्टर नामवर सिंह यहाँ कर रहे हैं। अनागत कविता में प्रेत छाया सा घूमना,
खिड़कियों बन्द शीशों का टूटना,
किबाड़ों पर लिखे नामों का मिटना आदि-अदि
बिम्ब इन पक्तियों में मूर्त या अमूर्त रूप में कहाँ विद्यमान हैं। क्या यह कविता की
बचकानी और कोरी काल्पनिक व्याख्या नहीं, जिसे
कवि ने नहीं, स्वंय आलोचक
ने गढ़ा है। और गढ़ने का भी तरीका देखिये कि कवि-दृष्टि
आहटों को सुनती नहीं, देखती
है’।
अगर इन पंक्तियों से आगे की पंक्तियों में कहीं यह उल्लेखित संदर्भ
खुलते हैं तो उन पंक्तियों को प्रस्तुत किया जाना यहाँ हर तरह से आवश्यक था। इसलिये
यह सारी व्याख्या ही काव्येतर नहीं, एक आलोचक के दिमाग की कोरी
उपज कही जाये तो कोई अतिशियोक्ति न होगी।
अस्तु डॉ. सिंह का यह कहना भी कि आसपास के वातावरण से चुनी हुई ये
वस्तुएँ मन में उस निराकार अनागत की हरकतों का एक मूर्तरूप प्रस्तुत करती हैं, वास्तविक
दुनिया जमीन की पकड़ के लिये हवा में हाथ-पैर
फैंकने-चलाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं।
उल्लेखित सदंर्भों की इतनी जीवंत और मार्मिक व्याख्या करने के बावजूद जब डॉ. नामवर
सिंह आगे यह कहते हैं कि ‘यह सब कुछ
तो मात्र ‘अपरिचित चित्रों
की लड़ी है’ तो अपनी व्याख्या
का मुलम्मा वह स्वयं उतार डालते हैं। यह उनकी कमजोर व्याख्या की एक सच्ची स्वीकारोक्ति
नहीं तो और क्या है?
हार वे फिर भी नहीं मानते और आगे लिखते है कि---‘‘इन
अपरिचित चित्रों की लड़ी को छोड़कर कविता सहसा बिम्ब निर्माण के लिये दूसरे सोपान की
ओर अग्रसर होती है-
‘‘फूल जैसे
अँधेरे में दूर से ही चीखता हो
इस तरह वह
दर्पनों मे कौंध जाता है।’’
सवाल यहाँ
यह है कि क्या अँधेरे में दर्पन पर चीख अंकित की जा सकती है। अँधेरे में यह कुशल कारीगरी
या तो केदारनाथ सिंह कर सकते हैं या डॉ. नामवर सिंह। बेचारे पाठक को तो अँधेरे में दर्पण ही दिखायी नहीं देगा,
फूल की चीख या फूल के बिम्ब की तो बात ही छोडि़ए। गरज
यह कि केदारनाथ की इस कविता की बिम्ब योजना हर प्रकार कथ्य की ताकत को कमजोर करती है।
कविता की सहज लय को खण्डित करती है। यह योजना वास्तविकता से बचने का प्रयास ही नहीं,
वास्तविकता से साक्षात्कार कराने में भी अक्षम है। अँधेरे
में फूल का चीखना और दूसरी ओर ‘दरपनों
में उसका कोंध जाना’ भले ही ठोस कविता का एक उदाहरण हो और ताजा बिम्ब देने का एक प्रयास।
लेकिन डॉ. नामवर सिंह की तेज धार वाला विश्लेषण भी कविता की कमजोरी खोलने वाला भेदिया
भी साबित होता है। अगर यह कविता अपने बिम्बात्मक सन्दर्भों में कमजोर है तो यह कविता का ठोस उदाहरण कैसे हुआ।
इस सारे प्रकरण में कमजोरी खोलने वाला भेदिया कोई और नहीं डॉ. नामवर सिंह की आलोचना
का ढंग ही ठहरता है, जिसके माध्यम
वे चाहे एक बदसूरत तर्क को खूबसूरत बना डालते हैं।
‘अँधेरे में
परम अभिव्यक्तिकी खोज’ नामक निबन्ध
में मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’
की अन्तिम पंक्तियों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए डॉ.
नामवर सिंह यह कहते हैं कि-‘‘निस्संदेह
इस कविता का मूल उद्देश्य है अस्मिता की खोज, किन्तु
कुछ अन्य व्यक्तिवादी कवियों की तरह इस खोज में किसी प्रकार की आध्यात्मिकता या रहस्यवाद
नहीं, बल्कि गली-सड़ी
गतिविधि राजनीतिक परिस्थिति और अनेक मानव-चरित्रों
की आत्मा के इतिहास का वास्तविक परिवेश है। आज के व्यापक सामाजिक सम्बन्धों के संदर्भ
में जीने वाले व्यक्ति के माध्यम से ही मुक्तिबोध् ने ‘अँधेरे
में’ कविता में अस्मिता की खोज को
नाटकीय रूप दिया है।’’
इसी निबन्ध में वे आगे लिखते हैं-‘‘कवि
मुक्तिबोध के लिये अस्मिता की खोज व्यक्ति की खोज नहीं,
बल्कि अभिव्यक्ति की खोज है। एक कवि के नाते उसके लिये
परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है। मुक्तिबोध के लिये भाषागत अभिव्यक्ति जीवन की अभिव्यक्ति
से जुड़ी हुई।’’
डॉ. नामवर
सिंह के उक्त कथन के आधार पर अगर हम उल्लेखित सारे तथ्यों पर विश्वास कर लें तो उन्हीं
के शब्दों में यह भारी मूर्खता होगी क्योंकि अपरोक्त सारी दलीलों से पहले वे अपने निबंध्
‘परिवेश और मूल्य’
के अन्तर्गत यह फरमाते हैं कि-‘‘शुद्ध
साहित्यिक मूल्यों’
की स्थिति जितनी भ्रामक है,
उतनी ही भ्रामक है-कविता
के स्वतः सम्पूर्ण-संसार की
सत्ता’’।
अपनी बात
की तरफदारी में वे मुक्तिबोध को भी उद्घृत करते है कि-‘‘साहित्य
मनुष्य के आंशिक साक्षात्कारों के बिम्बों की एक माणिका तैयार करता है। ध्यान रहे कि
वह सिर्फ बिम्बमणिका है और उसका सारा सत्यत्व और औचित्य मनुष्य के जीवन या अन्तर्जगत
में स्थित है, चूँकि सभी
मनुष्यों के अन्तर्जगत होते हैं, इसलिये
उनके और सत्यत्व की अनुभूति सार्वजनीन होती हैं। लेकिन ध्यान रहे एक अनुभूति का होना
सत्यत्व की कसौटी नहीं। हम साहित्य में रम भले ही जायें,
उसमें हम सत्य का एक पर्सपेक्टिव,
एक दिशा, दृश्य,
एक डायमेंशन, एक
आभास ही मिलेगा, एक रोशनी
ही मिलेगी-सिर्फ एक
रोशनी। किन्तु हमें प्रकाश में सत्यों को ढूढ़ना है। हम केवल साहित्यिक दुनिया में नहीं,
वास्तविक जीवन में रहते हैं। इस जगत में रहते हैं।’’
प्रश्न यहाँ यह है कि अगर शुद्ध साहित्यिक मूल्यों की स्थिति भ्रामक
है जैसा कि डॉ. सिंह मानते हैं और मुक्तिबोध के शब्दों में-‘‘हम
साहित्यिक दुनिया में नहीं, वास्तविक
जीवन में रहते हैं , इसलिये साहित्य
पर आवश्यकता से अधिक भरोसा कैसे किया जाए?’’
कमाल की बात
उक्त चुहलबाजी के बाद भी ‘अँधेरे में
’ कविता पर आवश्यकता से अधिक
भरोसा दिलाने का प्रयास डॉ. नामवर सिंह ही करते हैं और इसी कविता की कुछ पंक्तियों
को उधृत करते हैं-
‘अब अभिव्यक्ति
के सारे खतरे
उठाने ही
होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’
वे इन पक्तियों
की व्याख्या कुछ इस प्रकार करते हैं कि-‘‘यहाँ
जिस अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात कही गयी ही, वह
केवल शब्दों की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि
कर्म की भी अभिव्यक्ति है। पूर्वोत्तर संदर्भ से स्पष्ट है कि यहाँ अभिव्यक्ति से अभिप्राय
कविता भी है और क्रान्ति भी।’’
‘अँधेरे में’
कविता का यह क्रान्ति-दर्शन किस तरह बाँहों के दर्शन
में तब्दील हो जाता है, इसकी व्याख्या
डॉ. नामवर सिंह नहीं करते। लेकिन निम्न पंक्तियाँ ब्याख्या तो माँगती ही है-
‘पहुँचना होगा
दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने को मिलेंगी बाहें
जिनमें प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक।
इन पंक्तियों
के बारे में डॉ. नामवर लिखते हैं कि-‘‘अरुण
कमल के लिये दुर्गम पहाड़ों के पार जाने का जोखिम उठाना है।’’
बाँहों और
उनमें काँपते अरुण कमल के लिये उठाये जाने वाले जोखिम की परिणिति क्या एक बौद्धिक स्खलन
में नहीं होगी? क्या यह पंक्तियां
कवि के रूपवादी रुझान को उजागर नहीं करतीं? अस्तु!
यह रूपवादी रुझान यदि कविता है तो यह कैसी कविता है,
इसका उत्तर स्वयं डॉ. नामवर सिंह के शब्दों में-‘‘मुक्तिबोध
ने काव्य-भाषा को एक
नया तेवर दिया है, जो नयी कविता
की सामान्य भाषा की तुलना में काफी अनगढ़ और बेडौल लगता है। किंतु इससे केवल यही सिद्ध
होता है कि मुक्तिबोध की भाषा काव्यात्मक नहीं है।’’
यदि मुक्तिबोध्
की काव्य-भाषा अनगढ़
और बेडौल है, साथ ही काव्यात्मक
भी नहीं है तो इसे कविता कैसे और इसे कविता क्यों माना जाए?
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-15/109,ईसानगर,
निकट-थाना
सासनीगेट, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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