डॉ.
नामवर सिंह की आलोचना के प्रपंच
+रमेशराज
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डॉ .नामवर
सिंह अपनी पुस्तक ‘कविता के
नये प्रतिमान’ में लिखते
हैं कि-‘‘जागरूक समीक्षक शब्द के इर्दगिर्द
बनने वाले समस्त अर्थवृत्तों तक फैल जाने का विश्वासी है। वह संदर्भ के अनुसार अर्थापत्तियों
को पकड़कर काव्य-भाषा के आधार
पर ही काव्य का पूर्ण मूल्यांकन कर सकता है, जिसमें
नैतिक मूल्यांकन भी निहित है।’’
अपनी बात
की पुष्टि में उन्होंने ‘विजयदेव नारायण
साही’ का कथन सामने रखा है कि-‘‘गहरे
अर्थ में आज के जीवन के स्पन्दन की तलाश, भाषा
के भीतर से ‘निचुड़ते
हुये रक्त की तलाश’ है,
क्योंकि आज के कवि का सत्य,
यथार्थ से बाहर किसी लोकोत्तर अदृश्य में नहीं,
यथार्थ के भीतर अन्तर्भुक्त संचार की तरह अनुभव होता
है।’’
‘कविता के
नये प्रतिमान’ नामक पुस्तक
में डॉ . सिंह द्वारा
प्रस्तुत की गयी इन मान्यताओं से स्पष्ट है कि डॉ .
नामवर सिंह के लिये आलोचना का कर्म लोकोत्तर अदृश्यों
में नहीं । वे अर्थवृत्तों में अर्थापत्तियों को पकड़ते हैं और निचुड़े हुये रक्त के
भीतर स्पंदन को तलाशते हैं। यह मूल्यांकन कितने नैतिक तरीके़ से होता है,
एक उदाहरण प्रस्तुत है-
‘हर ईमानदारी
का
एक चोर दरवाज़ा
है
जो संडास
की बगल में खुलता है।’
सुदामा
पाँडेय ‘धूमिल’
की उक्त पंक्तियों को डॉ .
नामवर सिंह ‘शब्दों
और तुकों से खेलने की अपेक्षा सूक्तियों से खेलने की वृत्ति की अधिकता’
बतलाते हैं ।
उनको इन पंक्तियों के माध्यम से भाषा या आदमी के भीतर से ‘रक्त
निचोड़ने वाले चरित्र’ नज़र नहीं
आते। ऐसे चरित्र-जो चेहरे
पर सौम्यता, सदाचार,
परोपकार, मंगलचार
का मुखौटा लगाये होते हैं, किन्तु मन
में दुराचारों, धूर्तता और
ठगी की सडाँध भरी होती है। चुनौतीपूर्ण वर्गसंघर्षीय रचनात्मक आलोक,
जो अँधेरे
की नाक पर बिना किसी लाग-लपेट के रोशनी
का व्यंजनात्मक घूँसा जड़ता है, ‘धूमिल’
की इस कविता में पूरी तरह उपस्थित है। किंतु डॉ .नामवर
सिंह इस कविता को मात्र ‘सूक्तियों
से खेलने की वृत्ति’ कहकर मौन
साध लेते हैं।
यही नहीं
वह ‘निराला’
की ‘कुकुरमुत्ता’
जैसी अर्थ-गम्भीर
और सत्योन्मुखी चेतना से युक्त कविता को ‘मात्र
कुतूहल और हास्य-व्यंग्य के
प्रति एक विशेष प्रकार का पूर्वग्रह’ घोषित
कर डालते हैं।
अब सवाल है
कि डॉ. नामवर सिंह
की दृष्टि में ऐसी कौन-सी कविताएँ
ओजस् और सत्योमुखी हैं? वे अपनी पुस्तक
‘कविता के नये प्रतिमान’
के जिस पृष्ठ पर ‘धूमिल’
की कविता पर सूक्तियों से खिलवाड़ का आरोप लगाते हैं,
ठीक उसके ऊपर वे श्रीकांत वर्मा के ‘सधे हुये हाथों से’ सृजित
कविता को ‘कम से कम
शब्दों में अधिक से अधिक
गहरे अर्थ की व्यंजना से युक्त कविता’ घोषित
करते हैं। कवि के सधे हुए हाथों से सृजित इस कविता में कितने गहरे अर्थ
की व्यंजना है और वह भी कम शब्दों में ?, कविता
प्रस्तुत है-
‘‘मैं हरेक
नदी के साथ
सो रहा हूँ
मैं हरेक
पहाड़
ढो रहा हूँ
मैं
सुखी
हो रहा हूँ
मैं दुःखी
हो रहा हूँ
मैं सुखी-दुःखी
होकर
दुःखी-सुखी
हो रहा हूँ
मैं न जाने
किस कन्दरा में
जाकर चिल्लाता
हूँ ! मैं
हो रहा हूँ
! मैं
हो रहा हूँ
ऽ ऽ ऽ ।’
डॉ .
नामवर सिंह इस कविता की तारीफ़ में लिखते हैं-‘‘शुरू
का शाब्दिक खिलवाड़, अन्त तक जाते-जाते,
‘मैं हो रहा हूँ’ की
जिस अर्थ-गम्भीरता
में परिणत होता है, वह आज की
कविता की एक उलब्धि है। ‘अरथ
अमित, आखर अति थोरे’
के ऐसे उदाहरण आज कम ही मिलते हैं।’’
‘कविता के
नये प्रतिमान’ पुस्तक के
‘विसंगति और विडम्बना’
नामक निबंध के अंतर्गत प्रस्तुत की गयी उक्त कविता में
विसंगति या विडंबना भले ही न हो, किंतु
शब्दों से लेकर अर्थ तक असंगति ही असंगति की भरमार है। फिर भी डॉ.
नामवर सिंह को इस कविता से प्यार है। ‘आज
की कविता की एक उपलब्धि इस कविता में अबाध गति से बहती हुई नदी के साथ सोने
का उपक्रम अवास्तविक ही नहीं, नदी
की गति या उसके संघर्ष में विराम या बाधा उत्पन्न करता है। अबाध गति में नदी या अन्य किसी
को विश्राम कहाँ? निद्रा कहाँ?
गतिशील नदी के साथ कथित रूप से सोने वाला कवि कैसे और
क्यों पहाड़ों को ढो रहा है? पहाड़ ढोने
की यह क्रिया किसके लिये किया गया संघर्ष है? जबकि
वह नींद में है, सो रहा है।
यह क्या हो रहा है? ‘सुखी’
की तुक ‘दुःखी’
से मिला देने-भर
से क्या कोई कथित कविता, कविता होने
का दम्भ भर सकती है? ‘अरथ अमित,
आखर अति थोरे’ के
रूप में कविता का यह कैसा उदाहरण है कि एक निरर्थक बात को पंद्रह पंक्तियों में,
नयी कविता के नाम पर खींचा और ताना गया है या पेज भरने
के लिये फैलाया गया है। ‘मैं’
से शुरू होकर ‘हो
रहा हूँ ऽ ऽ ’ की प्रतिध्वनि
यह कविता किस प्रकार के गहरे अर्थ की व्यंजना है? कविता
में कोहरा घना है। समझाना मना है। यह डॉ.
नामवर सिंह की आलोचना है।
डॉ.
नामवर सिंह कहते हैं कि-‘‘काव्य-बिम्ब
पर चर्चा का आरम्भ यदि एक कविता के ठोस उदाहरण से न हो तो फिर वह चर्चा क्या?’’ कविता
का वह ठोस उदाहरण भी प्रस्तुत है-
‘इस अनागत
का करें क्या
जो कि अक्सर
बिना सोचे, बिना जाने
सड़क पर चलते-चलते
अचानक दीख जाता है।’
केदारनाथ
सिंह की उक्त कविता के बारे में डॉ.
नामवर सिंह लिखते हैं-‘‘अनागत
अमूर्त है, किंतु कवि-दृष्टि
उसकी आहट को अपने आस-पास के वातावरण
में देख लेती है और वातावरण के उन मूर्त संदर्भों के द्वारा अमूर्त अनागत को मूर्त
करने का प्रयास करती है। जीवंत संदर्भों के कारण अनागत एक निराकार भविष्य के स्थान
पर, जीवित सत्ता मालूम होता है।
एक प्रेत-छाया के समान
वह कभी कि़ताबों में घूमता प्रतीत होता है तो कभी वीरान गलियों-पार
गाता हुआ। इसी तरह खिड़कियों के बन्द शीशों को टूटते,
किबाड़ों पर लिखे नामों को मिटते और बिस्तरों पर पड़ी
छाप देखकर उसके आने का एहसास होता है। उसका आना इतना अप्रत्याशित और रहस्यमय है कि
‘हर नवागन्तुक उसी की तरह लगता
है।’’
उदाहरण के
रूप में तीन पंक्तियों का दिया गया उपरोक्त कवितांश क्या उन सब बारीकि़यों,
सूक्ष्म संवेदनाओं, गम्भीर घटनाओं को व्यक्त करने में कितना समर्थ है?
जिनका जिक्र डॉ. नामवर सिंह अबाध गति से करते
हैं। अनागत का प्रेत-छाया-सा
घूमना, खिडकियों के बन्द शीशों का
टूटना, किबाड़ों पर लिखे नामों का
मिटना आदि बिम्ब इस कविता में मूर्त या अमूर्त
रूप में कहाँ विद्यमान हैं? क्या यह कविता
की काल्पनिक व्याख्या नहीं? जिसे कवि
ने नहीं, स्वयं आलोचक ने गढ़ा है और
गढ़ने का भी तरीका देखिये कि ‘कवि-दृष्टि
आहटों को सुनती नहीं, देखती है’।
अगर उक्त
कवितांश से आगे इस कविता में उल्लेखित संदर्भ स्पष्ट होते हैं तो क्या इस पुस्तक में
पूरी कविता को प्रस्तुत किया जाना आवश्यक नहीं था? अतः
उक्त सारी व्याख्या काव्येतर ही नहीं, डॉ.
नामवर सिंह के दिमाग़ की कोरी उपज मानी जानी चाहिए।
अस्तु!
केदारनाथ सिंह की इस कविता की बेहद मार्मिक और जीवंत
व्याख्या करने के साथ-साथ जब यह
कहते हैं कि-‘‘यह सब कुछ
तो मात्र अपरिचित चित्रों की लड़ी है,’ यह
बताकर वह अपनी व्याख्या का मोहक मुलम्मा स्वयं उतार डालते हैं। मगर विडंबना देखिए कि
इस कमजोर व्याख्या की स्वीकारोक्ति के बावजूद वे शब्दों को नये तरीके से खँगालते हैं
और लिखते हैं कि-‘‘ इन अपरिचित
चित्रों की लड़ी को छोड़कर कविता सहसा बिम्ब-निर्माण
के लिये दूसरे सोपान की ओर अग्रसर होती है’’-
‘फूल जैसे
अँधेरे में दूर से
ही चीख़ता हो
इस तरह वह
दर्पनों में कौंध जाता है।’
डॉ.
नामवर सिंह के मतानुसार-‘‘माना
यह कविता, कविता का
ठोस उदाहरण है और बिम्ब बनने का दूसरा चरण है’’।
किन्तु सवाल यह है कि अँधेरे के बीच क्या दर्पण पर चीख़ अंकित की जा सकती है?
अँधेरे में यह कुशल कारीगरी या तो केदारनाथ सिंह कर सकते
हैं या डॉ. नामवर सिंह।
अँधेरे में बेचारे
दर्शकों या पाठकों को तो दर्पण ही दिखायी नहीं देगा,
फूल की चीख़ या फूल के बिम्ब की तो बात ही छोडि़ए। इन
बातों का अर्थ यह भी नहीं कि इस अक्षमता से डॉ. नामवर सिंह वाकिफ़ नहीं। कविता
का विश्लेषण करते-करते वह भी
यह सच्चाई उगल देते कि-‘‘यही बिम्ब
कविता की कमज़ोरी खोल देने वाला भेदिया भी साबित होता है।’’
अगर यह कविता
अपने बिम्ब-विधान
में कमज़ोर है तो ‘कविता के
ठोस उदाहरण’ के रूप में
प्रस्तुत करने के पीछे, डॉ.
नामवर सिंह का मक़सद क्या है?
इसका उत्तर यह है कि डॉ.
नामवर सिंह इसी पुस्तक के अपने निबंध ‘कविता
क्या है’ में स्पष्टरूप से घोषित करते
हैं कि‘‘ औसत नयी कविता क्रिस्टल या
स्फटिक के समान है। .....तत्त्व
विश्लेषण में अन्ततः कुछ भी प्राप्त नहीं होना।’’
अतः स्पष्ट
है कि डॉ. नामवर सिंह
जिन तथ्यों को कविता के पक्ष में चुन-चुन
कर रखते हैं, वही तथ्य
कविता की परख के लिये एकदम बेजान और बौने महसूस होने लगते हैं। कारण सिर्फ इतना है
कि नामवर सिंह की सारी की सारी मग़ज़मारी, कविता
को स्पष्ट करने में कम, अपने चहेते
कवियों की खोखली कविताओं को सार्थक और सारगर्भित सिद्ध करने में अधिक
है।
‘‘ कविता के
नये प्रतिमान’ पुस्तक में
पृ0 102 पर रघुवीर
सहाय की ‘नया शब्द’
शीर्षक कविता के बारे में डॉ.
साहब यह स्वीकारते हैं कि-‘‘इन
पंक्तियों में न तो कोई नया शब्द है और न कोई अनुभव,
नये शब्द द्वारा व्यंजित किया गया है,
क्योंकि कवि के पास ‘आज
न तो शब्द ही रहा है और न भाषा’।’’
जिस कविता
में न तो कोई शब्द है, न कोई भाषा,
ऐसी कविताएँ डॉ.
नामवर सिंह के लिये कविता के ठोस उदाहरण हैं। ऐसी कविताओं
के कथित संकेतों में वे नये अनुभवों की खोज करते हैं। काव्येतर व्याख्या के मूल्यों
का ओज भरते हैं।
इसी पृष्ठ
पर रघुवीर सहाय की एक अन्य कविता ‘फिल्म के बाद चीख़’ व्याख्या
के लिये विराजमान है। जिसके बारे में वे लिखते हैं कि-‘भाषा
सम्बन्धी खोज
की छटपटाहट का एक पहलू और है, जिसमें
भाषा की खोज ‘आग की खोज’
में बदल गयी है।’’
डॉ.
साहब की इस बात में कितना दम है,
जबकि स्वयं कवि रघुवीर सहाय अपनी कविता के माध्यम से
यह घोषणा करते है कि-‘‘न सही यह
कविता, यह भले ही उसके हाथ की छटपटाहट
सही।’’
अतः मानना
पडे़गा कि-‘‘आग खोजने
की सारी की सारी प्रकिया’ जब कविता
होने का प्रमाण ही उपस्थित नहीं करती तो सृजनशीलता, काव्य-भाषा,
संवेदनीयता को निष्प्राण करेगी ही। कवि के भीतर का छुपा
हुआ चोर यदि यह स्वीकारता है कि यह कविता नहीं है तो इस कविता में नये प्रतिमान खोजने
का अर्थ ? सब कुछ व्यर्थ।
डॉ.
नामवर सिंह कहते हैं कि-‘‘छायावाद
के विपरीत, नयी कविता
में रूप-भाव ग्रहण करता है,
तथ्य सत्य हो जाता है और अन्ततः अनुभूति निर्वैयक्तिक
हो जाती है। उससे स्वयं कविता की संरचना में गहरा परिवर्तन आ जाता है।’’
उक्त क्रिया
किस प्रकार सम्पन्न होती है, जिससे कविता
की संरचना में एक गहरा परिवर्तन आ जाता है, तथ्य
सत्य होकर निवैयक्तिक कैसे होते हैं? इसके
लिये डॉ. नामवर सिंह
के निबंध ‘काव्य बिम्ब
और सपाटबयानी’ से एक ‘सुबह’
शीर्षक कविता का उदाहरण प्रस्तुत है। इस कविता में वे
‘बिम्बवादी प्रवृत्ति के दर्शन’
कर अभिभूत होते हैं-
‘‘जो कि सिकुड़ा
बैठा था, वो पत्थर
सजग होकर
पसरने लगा
आप से आप।’’
इस कथित कविता
का रूप क्या है? उत्तर-पत्थर।
सिकुड़े हुए पत्थर का सजग होकर पसर जाना, किस
तथ्य का सत्य हो जाना है? उत्तर-पत्थर।
इस प्रकार इस कविता की अनुभूति निर्वैयक्तिक होती है तो अचरज कैसा?
पत्थर जैसी
निर्जीव वस्तुओं में बिम्ब की सघनता के साथ यदि यह एक नयी कविता [कविता का नहीं] का
उदाहरण है तो डॉ. नामवर
सिंह बधाई के पात्र हैं,
क्योंकि वे इसी सघनता के माध्यम से कविता को हीरा या
क्रिस्टल बना देना चाहते हैं, ताकि
तत्व-विश्लेषण में अन्ततः कुछ भी
प्राप्त न हो।
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-15/109,ईसानगर,
निकट-थाना
सासनीगेट, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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