विचारों
की सुन्दरतम् प्रस्तुति का नाम कविता
+रमेशराज
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कविता लोक
या मानव के रागात्मक जीवन की एक रागात्मक प्रस्तुति है। कविता रमणीय शब्दावली से उद्भाषित
होने वाला रमणीय अर्थ है। कविता आलंकारिक शैली में व्यक्त की गयी संगीत से युक्त एक
ऐसी सौन्दर्यमय छटा है, जिससे सामाजिकों
को आत्मतोष का अनुभव या अनुभूति होती है। कविता लोक-व्यवहार,
लोकानुभव या लोकानुभूतियों की रसात्मक प्रस्तुति है।
कविता के
बारे में कहे गये उपरोक्त तथ्यों की सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन कविता
में अन्तर्निहित रागात्मकता, रमणीयता,
आलंकारिकता, रसात्मकता
यदि सत्य और शिव तत्त्व के समन्वय से युक्त नहीं है तो सामाजिकों को जिस आंनद या तोष
की अनुभूति होगी, वह असात्विक
और मानवीय मूल्यवत्ता से विहीन होगी। इसलिये कविता का प्रश्न-सीधे-सीधे
वैचारिक मूल्यों से जुड़ा हुआ है।
वस्तुतः कविता
कवि की वह वैचारिक सृष्टि है, जिसमें
वह अपनी वैचारिक अवधारणाओं, मान्यताओं
निर्णयों की प्रस्तुति अपनी रागात्मक दृष्टि के साथ करता है या ये कहा जा सकता है कि
कवि की हर प्रकार की मान्यताओं, अवधारणाओं
और निर्णयों के बीच एक रागात्मक धारा बहती है। कवि की वैचारिक सृष्टि की यही रागात्मक
धारा आलम्बन विभावों के धर्म को सौन्दर्यमय और सत्योन्मुखी बनाती है। अतः कहा जा सकता
है कि विचारों की सुन्दरतम् प्रस्तुति का नाम ही कविता है।
कविता के
संदर्भ में कोई भी विचार सुन्दर तभी हो सकता है, जबकि
उसमें सत्य और शिव-तत्त्व का समन्वय हो। कविता के संदर्भ में सत्य और शिवतत्त्व ऐसे
वैचारिक मूल्य हैं, जिनमें समूची
मानवजाति के मंगल और रक्षा का विधान अन्तर्निहित है। यदि हमारे संवेग,
हमारे भाव आदि समूची मानवजाति के मंगल का रसात्मकबोध
सौन्दर्यानुभूति का ऐसा आलोक पैदा करेगा, जिसकी
आंनदमय छटा क्रान्तिकारी भगतसिंह जैसे देश-भक्तों
के मुख पर फाँसी के समय भी ओज और मुस्कान में देखी जा सकेगी। कविता में यदि आलम्बनों
के धर्म लोकोन्मुखी और जन-मूल्यों से
ओतप्रोत हों तो कविता सत्योन्मुखी चिन्तन की एक सात्विक आस्वाद्य सामग्री बन जाती है।
इसलिये विचारों की सौन्दर्यात्मक मूल्यवत्ता इस बिन्दु पर अधिक केन्द्रित है कि विचार
जिस रागात्मकबोध को जन्म दें, वह
मानवीय मूल्यों को विखण्डित करने वाला न हो।
रति को ही
लीजिए- हमारे
हिन्दी कवियों ने रति स्थायी भाव परकीया की स्थिति के बीच अपनी कुशल कारीगरी के साथ
रस के चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया है लेकिन इसके पीछे जिस वैचारिक दृष्टि की महती भूमिका
रही है, वह दृष्टि असामाजिक और भोग-विलास
से युक्त रही। यदि इस दृष्टि का प्रगतिशील कवियों, आलोचकों
ने विरोध किया है तो इसका कारण इसके वह सामाजिक प्रभाव हैं जो आस्वादकों को व्यक्तिवादी,
भोग-विलासी
बनाते हैं। जो आलोचक या काव्य-मर्मज्ञ
कविता को सिर्फ आस्वादन की प्रक्रिया तक ही सीमित रखकर कविता को मात्र रस,
आनंद या चमत्कार के परिप्रेक्ष में मूल्यांकित या संदर्भित
करते हैं, वह हीनग्रन्थियों के शिकार ऐसे आस्वादक हैं,
जिन्हें कविता की सामाजिक उपादेयता से कोई लेना देना
नहीं। वर्ना क्या कारण है कि काव्य से जो लोग प्रेमी-प्रेमिका
की अवैध क्रियाओं को सार्थक और सात्विक ठहराते हैं, वही
क्रियाएँ उन्हें वास्तविक जीवन में अवांछनीय, असामाजिक
और रसाभास पैदा करने वाली महसूस होती हैं। यदि प्रेमी-प्रेमिका
के कथित मिलन में कोई सार्थकता है तो एक बाप के लिए बेटी का,
भाई के लिए बहिन का, पत्नी
के लिये प्रेमी का यह प्रेम क्रोध का कारण क्यों बन जाता है?
दिनकर की काव्य-कृति
‘उर्वशी’
का ‘पुरूरवा
और उर्वशी का मिलन’ ‘औशीनरी’
में डाह क्यों पैदा करता है। उसे दुखान्त अनुभूति से
सिक्त क्यों करता है?
सच तो यह
है कि स्थायी भाव रति सिर्फ ऐसी वैचारिक प्रक्रिया के अन्तर्गत ही सार्थक और लोक-सापेक्ष
हो सकता है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका
का प्रेम या प्रेमोन्माद हमारे सामाजिक जीवन पर किसी भी प्रकार का कुप्रभाव नहीं डालता।
रति के संदर्भ
में विचारों की सुन्दर प्रस्तुति तभी हो सकती है, जबकि
पात्र वैध-अवैध का ध्यान
रखकर रति के चरमोत्कर्ष तक पहुँचते हैं।
हमारे पूर्वजों
ने बहिन-भाई,
पिता-पुत्री,
पति-पत्नी,
माँ-बेटे
के रूप में जो मानवीय मूल्य निर्धारित किये हैं, यदि
इन मूल्यों की सार्थकता को वर्जित कर कोई कवि
रति की शृंगारपरक प्रस्तुति करता है तो उसकी कविता से सौन्दर्य की वास्तविक और सात्विक
अनुभूति पूरे लोक या मानव को नहीं हो सकती।
रति का चरमोत्कर्ष
या उसका उद्दात्त रूप तो हमें इस प्रकार के संदर्भों में ही मिल सकता है जिनमें प्रेमी-
प्रेमिका वैचारिक सूझ-बूझ
के साथ जीवन की समस्याओं के हल खोजते हैं। उनके प्रेम की डोर भोगविलास,
देह- उन्माद
नहीं, सामाजिक-पारिवारिक
दायित्व-बोध से जुड़ी होती है-
‘‘प्यारे जीवें
जगहित करें गेह न चाहे आवें।
या
बुरे
दिनों में तेरी पहचान लगी प्यारी
फटी
हुई धोती जैसी मुस्कान लगी प्यारी।
स्थायी भाव
क्रोध- स्थायी भाव क्रोध अपनी रस परिपाक की अवस्था रौद्रता
के अन्तर्गत शत्रु का विनाश करने में अनुभावित होता है,
लेकिन यह शत्रुता अकारण,
स्वार्थवश, सनक
पूरी करने के लिये या मात्र किसी को कुचलने के लिये व्यक्त होती है तो ऐसी स्थिति में
क्रोध के रस परिपाक रौद्रता की अनुभूति पाठकों को अवश्य होगी,
लेकिन यह रौद्रता ठीक उसी प्रकार की रहेगी जैसे उग्रवादी
निर्दोष जनता का रोज कत्ले-आम कर रहे
हैं। या जिस प्रकार अनेक सनकी बादशाह अपने देशों की सेनाओं को युद्ध की आग में झोंकते
आ रहे हैं।
जबकि भारतीय
स्वतंत्राता संग्राम के क्रान्तिकारियों का गोरी सरकार के प्रति व्यक्त किया गया क्रोध
एक ऐसी वैचारिक दृष्टि से युक्त था जिसमें देश या समाज के वास्तविक शत्रु के विनाश
के पीछे समूचे भारतवर्ष के मंगल का विचार अन्तर्निहित था। इस प्रकार की वैचारिक-दृष्टि
से उत्पन्न भाव जिस प्रकार के सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं,
उनकी सात्विकता पर संदेह नहीं किया जा सकता।
भय की अवस्था-
भय की अवस्था में व्यक्ति या समाज अपना धैर्य और साहस त्यागकर परिस्थिति का सामना करने
से पूर्व ही भाग छूटता है। बात समझने की है कि युद्ध के दौरान यदि किसी देश की सेना
दूसरे देश की सेना को शक्तिशाली समझ, मुकाबला
करने से पूर्व, भाग छूटती
है तो वह कायर या भगोड़ा तो कहलायेगी ही, साथ
ही वह अपने देश की रक्षा करने में भी असफल रहेगी। ठीक इसी प्रकार यदि लोक या समाज गुंडों-अपराधियों से भयग्रस्त होकर चुप्पी साध लेता है या उनकी गलत
प्रवृत्तियों का विरोध नहीं करता है तो गुन्डे-अपराधी
और ज्यादा अपराध-गुन्डागर्दी
करने के लिये प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिये कविता के संदर्भ में भय की सार्थकता इस विचार-धारा
के द्वारा ही दर्शायी जा सकती है कि अपने वतन पर आये संकट के समय अविवेकी क्रूर राजा
के इशारे पर बढ़ने वाली सेना का सामना कुछ इस प्रकार किया जाये कि वह भयग्रस्त होकर
भाग छूटे। गुन्डे-अपराधियों का विरोध इस प्रकार किया जाये कि या तो वे सींखचों
के भीतर जि़न्दगी बिताने पर मजबूर हो जाएँ या इतने डर जाएँ कि अपराध करना ही छोड़ दें।
करुणा का
सम्बन्ध- करुणा का सम्बन्ध किसी दीन-दुःखी
की रक्षा करने से है। लेकिन यदि हमारे पास यह वैचारिक दृष्टि नहीं हो कि दीन-दुःखी
वास्तविक रूप से दीन-दुःखी है
अथवा नहीं तो करुणा के वास्तविक सौन्दर्य की अनुभूति सामाजिक को नहीं हो सकती। धर्म
की आड़ लेकर आज ऐसे हजारों दीन-दुःखी
बने घूमते मिल जाएँगे, जो आंसू ढरकाते
हुए अपनी दुर्दशा का बखान करने लगेंगे, ऐसे
लोगों पर दर्शायी गयी करुणा निरर्थक और सौन्दर्यविहीन होगी। ठीक इसी प्रकार एक अपराधजगत का माना हुआ तस्कर-डकैत
चोर यदि पुलिस की गोली या लाठियों का शिकार होकर चीखता-विलखता
हुआ भागता है तो उसके प्रति मन में आये करुणा के भाव अतार्किक और सौन्दर्यविहीन होंगे।
जबकि रेल
या बस दुर्घटना में आपदाग्रस्त विलखते-सिसकते
प्राणियों की दुर्दशा पर उत्पन्न विचारों से मन में उमड़ी करुणा का सौन्दर्य वास्तविक
और सात्विक होगा। ठीक इसी प्रकार समूचे लोक या प्राणियों पर किसी भी प्रकार के संकट
के समय, लोक या प्राणियों को संकट से
बचाने या निकालने का विचार जिस तरह ऊर्जस्व करेगा, उसका
करुणा का रूप उत्तरोत्तर सौन्दर्य से युक्त होता चला जायेगा।
अस्तु,
सम्प्रदायविशेष, जातिविशेष,
परिवारविशेष, व्यक्तिविशेष
को बचाने की वैचारिक प्रकिया द्वारा करुणा का रूप लोक मंगलकारी तत्त्वों के अभाव में
सौन्दर्य की वास्तविक प्रतीति न करा सकेगा।
साम्प्रदायिक
दंगों के दौरान घायल हुए विभिन्न सम्प्रदायविशेष की ही दुर्दशा पर दुःख,
शोक आदि से सिक्त होता है तथा दूसरे सम्प्रदाय के प्रति
उसमें क्रोध या घृणा का संचार होता है तो यह घृणा-क्रोध
और करुणा की स्थिति मानवीय मूल्यों की वैचारिकता से विहीन होने के कारण सौन्दर्य का
सात्विक रूप न दिखा सकेगी। जबकि सम्प्रदायों के दायरों को तोड़कर दोनों ही सम्प्रदायों
के निर्दोष व्यक्तियों की दुर्दशा को देखकर यदि किसी के मन में करुणा जाग्रत होती है
तो इसकी सौन्दर्यात्मक मूल्यावत्ता सत्य और शिव तत्व के समन्वय से युक्त होगी।
भक्ति के
अंतर्गत आचार्य रामचन्द्र शुक्ल प्रेम और श्रद्धा के योग का नाम भक्ति बतलाते हैं। हमारे अधिकांश कवियों
ने भक्ति के स्वरूप का निरूपण कथित अलौकिक शक्तियों,
देवी-देवताओं
या ईश्वर के प्रति ही किया है। लेकिन यह प्रेम और श्रद्धा की स्थिति यदि अन्धविश्वास,
पाखंड और कोरे व्यक्तिवाद पर अवलम्बित हो तो भक्ति की
इस सौन्दर्यमयता को सात्विक कैसे कहा जा सकता है?
शोषक और साम्राज्यवादी
शक्तियों ने धर्म, अध्यात्म
और अलौकिकत्व का सहारा लेकर ईश्वर जैसे मानसपुत्र का अवतरण किया,
उससे धार्मिक उन्माद,
शोषण और लोक-दुर्दशा
का सीधा-सीधा,
लेकिन रहस्यमय सम्बन्ध आज तक स्थापित है। कथित धर्म
और ईश्वर का सहारा लेकर आज भी विश्व में ऐसे अनेक देशों के राजा,
मंत्री या नेता हैं जो अपने कुशासन,
अत्याचार और जनशोषण को बरकरार रखे हुऐ हैं । धर्म और
ईश्वर के नाम पर विश्व में ऐसी हजारों संस्थाएँ हैं जिनके संस्थापक भक्ति के नाम पर
जनता की खुली लूट कर रहे हैं। लौकिक जगत को निस्सार और मिथ्या बताकर इसी लौकिक जगत
का खुला भोग कर रहे हैं। प्रश्न यह है कि इस प्रकार के शासकों या संस्थापकों या कथित
ईश्वर के प्रति रखा गया प्रेम और श्रद्धा का योग एक विकृत भक्ति के अलावा क्या कुछ
और हो सकता है?
भक्ति के
मूल में यदि श्रृद्धेय के प्रति यह विचार कर उसकी भक्ति नहीं की जाती कि क्या वास्तव
में श्रृद्धेय ऐसा है कि उसके प्रति नतमस्तक हुआ जाये या उसकी सराहना की जाये?
तब तक भक्ति की सौन्दर्यात्मकता वास्तविक और शाश्वत
कैसे कही जा सकती है?
विचार रस
और सौन्दर्य के इस प्रकरण में हमने अभी तक हमने विचारों के सुन्दर रूप की ही चर्चा
की है। विचारों का यह सुन्दर रूप हमें साहित्य की लगभग सभी विधाओं जैसे कहानी,
उपन्यास, नाटक,
लघुकथा, संस्मरण
आदि में मिल जाता है,किंतु कविता
के संदर्भ में विचार अपनी सुंदरतम प्रस्तुति के साथ उपस्थित होते हैं। यह सत्य और शिव-तत्त्व
के समन्वय के द्वारा संभव होता है। कविता में सत्य और शिव-तत्त्व का समन्वय चूकि परिस्थितिसापेक्ष
अर्थात् किसी कालविशेष के लोकजीवन के घटना-दुर्घटना
क्रमों से जुड़ा होता है, अतः कविता
की सौन्दर्यात्माकता भी इन्ही परिस्थितीयों के सापेक्ष देखी जा सकती है। मसलन् परिस्थितियाँ
यदि लोक को संकटग्रस्त, संघर्षपूर्ण,
यातनामय, शोषणमय
बनाये हुए हैं तो ऐसे में कविता के भीतर सत्य और शिवतत्त्व का समन्वय लोकरक्षा के अन्तर्गत
ही देखा जा सकता है। कवि ने कविता में वर्णित आलम्बनों द्वारा किस प्रकार,
किस चिन्तन प्रकिया के तहत लोकरक्षा के प्रयास किये
हैं, यह प्रयास ही आस्वादकों को
सौन्दर्य की अनुभूति कराते है। जैसे कवि इन परिस्थितियों को मात्र शोकाकुल बनाकर पाठकों
में करुणा को अपने चरमोत्कर्ष तक ले जा सकता है, या
वह संघर्षपूर्ण यातनामय, भयावह,
त्रासद और शोषणयुक्त परिस्थितियों के कारकों अर्थात
शोषक और आताताई वर्ग के प्रति कविता के माध्यम से आस्वादकों को ऐसे वैचारिक बिन्दुओं
पर लाकर खड़ा कर सकता है, जहाँ से उनके
मन में आक्रोश, असंतोष,
विद्रोह, विरोध
या क्रोध का लावा भभक उठे। कवि के यह दोनों कर्म ही मानवमंगलकारी और सौन्दर्य की सात्विकता
से युक्त होंगे। लेकिन यदि कवि इन परिस्थितियों को दरकिनार कर कविता में एक कल्पना-लोक
को खड़ा कर सकता है। ऐसा कल्पनालोक पलभर के लिये सामाजिकों को आनन्द प्रदान कर दे,
लेकिन यह आनंद [ सत्य और शिवतत्त्व समन्वय से विहीन
होने के कारण ] लोक को ऐसी कोई दिशा या दृष्टि नहीं प्रदान कर सकेगा,
जिससे लोक अपने ऊपर आये संकटों का सामना कर सके या उनसे
उबरने का प्रयास कर सके। युद्धरत सेनाओं के बीच भ्रातत्व की बातें जिस प्रकार बेमानी
हो जाती हैं, ठीक इसी प्रकार
एक त्रासद परिवेश के बीच भूख से विलख कर बच्चे दम तोड़ते हों,
चारों तरफ कुहराम मचा हो,
इन्सानियत लाश बनती जा रही हो,
हर रात हर सुबह के चेहरे पर कोई न कोई भयंकर हादसा अंकित
कर जाती हो, ऐसे में कविता
की सार्थकता इस बात में अन्तर्निहित है कि वह इस प्रकार की परिस्थितियों के शिकार मानव
या लोक को ऐसी वैचारिक दृष्टि प्रदान करे जो करुणा से गति लेती हुई ऐसी रसात्मकता की
ओर पहुँचे, जिसके भाव
भले ही उग्र और प्रचण्ड हों, लेकिन उनके
द्वारा इन परिस्थितियों से मुक्ति के मार्ग खुल सकें। यह विचारों की ऐसी सुन्दर प्रस्तुति
होगी, जिसमें सौन्दर्य का उत्तरोत्तर
विकास परिलक्षित होने लगेगा।
यथार्थ की
पकड़ के साथ सत्य की ओर जब कविता गतिशील होती है तो वह विचारों का सुन्दर रूप प्रस्तुत
करती है। लेकिन विचारों की यह सुन्दर प्रस्तुति सुन्दरतम तभी बन सकती है जबकि इसे छन्द
लय संगीत, बिम्ब प्रतीक,
उपमान और ध्वनि संकेतों के माध्यम से और ऊर्जस्व बनाया
जाये।
कविता के
संदर्भ में साध्य तो वह विचाधराएँ ही होती हैं, जो
लोक या समाज के लिये एक निश्चित कर्मक्षेत्र को निर्धरित करती हैं। कविता के कर्मक्षेत्र
में वेग लाने के लिये छन्द, अलंकार,
प्रतीक, मिथक,
उपमानों या ध्वन्यात्मकता का उपयोग मात्र एक साधन के रूप में किया जाता है। इस तथ्य को हम इस प्रकार
भी व्यक्त कर सकते हैं कि विचारों की सुन्दर से सुन्दरतम् प्रस्तुति इस बात पर निर्भर
है कि उस विचार को अधिक ऊर्जस्व बनाने के लिये उसमें सत्य शिव-तत्त्व के साथ-साथ
संगीत, लय,
छंद, प्रतीक,
उपमान, ध्वन्यात्मकता
आदि का भी समन्वय हो।
यदि कोई यह
कहता है कि वर्तमान व्यवस्था में आदमी के प्रति हिंसक रूप अपनाये हुए है।’’
तो शायद इसका किसी पर विशेष प्रभाव न पड़े। लेकिन जब
हम इसी बात को एक तेवरी की निम्न पंक्तियों के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त करते है
कि-
‘वक्त के हाथों
व्यवस्था की छुरी
और
हम ऐसे खड़े, ज्यों मैमने।
[ दर्शन बेजार,
देश खण्डित हो न जाए,
पृ. 38
]
तो
वर्तमान व्यवस्था का हिंसक रूप अपने सुन्दरतम् रूप में इस कारण कविता बन जाता है-
क्योंकि इसे
प्रस्तुत करने के लिये इससे छन्द, लय,
संगीत का अभिनव प्रयोग हुआ है।
क्योंकि इसको
प्रस्तुत करने के लिये कवि ने जिसे बिम्ब योजना का सहारा लिया है,
उसकी वास्तविक जानकारी पाठकों को व्यवस्था रूपी वधिक
के हाथ में छुरी और उस छुरी के नीचे थर-थर
काँपते मानव रूपी मैमने के रूप में होती है।
क्योंकि छन्द,
लय, संगीत,
बिम्ब आदि के समन्वय से कवि ने वर्तमान यथार्थ पर सूक्ष्म
पकड़ रखते हुए पाठकों के उन चिन्तन-तन्तुओं
को झकझोरने का प्रयास किया है, जो
उसे व्यवस्था रूपी वधिक की छुरी के नीचे थर-थर
काँपते मानव के असहाय और भयावह हालात का यह पता दे सकें कि वर्तमान व्यवस्था बधिक की
तरह कितनी निर्मम होकर मानव रूपी मैमने की गर्दन पर छुरी चला रही है। पाठकों के मन
में आया यह दशा मानव के प्रति करूणा की वह मार्मिक अवस्था होगी,
जिसका सौन्दर्य सात्विकता लिये हुए होगा।
छन्द,
लय, बिम्ब
के माध्यम से उत्पन्न हुई करुणा की यह सात्विक सौन्दर्यानुभूति अपनी गतिशील अवस्था
में जब सौन्दर्य के चरमोत्कर्ष तक पहुँचेगी तो पाठकों को इस नये विचार के साथ कि ‘‘वर्तमान
व्यवस्था कितनी हिंसक और घिनौनी हो गयी है, इसे
बदला जाना आवश्यक है’’ नयी दशा में
ऊर्जस्व करेगी, जिसका रस
परिपाक आक्रोश के माध्यम से विरोध तक पहुँचेगा। करुणा,
आक्रोश और विरोध से सिक्त उक्त विचार ही इन पंक्तियों
का सत्य ओर शिव-तत्व से समन्वित वह रूप है, जो
लोक या मानव के प्रति गहन रागात्मकता का आभास ही नहीं देता,
बल्कि लोक या मानव पर घिनौनी व्यवस्था के संकट के प्रति
विभिन्न तरीकों से सचेत भी करता है।
इस प्रकार
हम कह सकते है कि इन पंक्तियों में छन्द, लय,
संगीत, बिम्ब,
प्रतीक आदि के माध्यम से कवि ने जो विचारों की सुन्दरतम्
प्रस्तुति की है, उसमें कविता
के वे सारे गुण मौजूद हैं, जिनसे कविता,
कविता कही जाती है।
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-15/109,ईसानगर,
निकट-थाना
सासनीगेट, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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