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14 अप्रैल 2017

समय-समय पर सत्ता से टकराते रहे हैं संत +रमेशराज




समय-समय पर सत्ता से टकराते रहे हैं संत

+रमेशराज
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बोफोर्स तोप, कॉमनवेल्थ गेम, 2 जी स्पेक्ट्रम, आदर्श हाउसिंग जैसे एक नहीं अनेक घोटालों के पापकुण्ड में गोते लगाती कांग्रेस सरकार अब विदेशा बैंकों में जमा कालेधन के मुद्दे पर विपक्ष के ही वार नहीं झेल रही, उसे योगी बाबा रामदेव ने भी अपने निशाने पर बुरी तरह ले लिया है। रामदेव कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह हमला बोल रहे हैं, उससे कांग्रेसियों का तिलमिला उठना स्वाभाविक है। एक कांग्रेसी सांसद ने उन्हें एक सभा के दौरान जहां अपशब्दों का अशोभनीय प्रयोग किया, वहीं कांग्रेस महासचिव दिगविजय सिंह और कांगे्रस प्रवक्ता संजय निरुपम ने कांग्रेस की गाली-संस्कृति को तो जायज ठहराया ही, बाबा से उनके दो ट्रस्ट पतंजलि योग पीठऔर दिव्य योग मंदिरके कुल टर्नओवर की धनराशि 1100 करोड़ में कालेधन के इस्तैमाल को लेकर तीखे सवालों की बौछार कर दी। टिहरी से कांग्रेस के विधायक किशोर उपाध्याय ने आरोप लगाये कि ‘‘पतंजलि योग पीठ में काम कर रहे मजदूरों से काम ज्यादा लिया जाता है और वेतन कम दिया जाता है। कई सरकारी डाॅक्टर यहां अवैध रूप से काम कर रहे हैं। बाबा फाइव स्टार सुविधाओं में रहते हैं। बाबा के साथ-साथ अन्य साधुओं में भी यहां विलासिता बढ़ रही है। कालेधन के मुद्दे पर मुहिम चलाने वाले स्वामी रामदेव को अपने धन का भी ब्यौरा प्रस्तुत करना चाहिए।’’
कांग्रेस महासिचव दिग्गी राजा ने तो यहां तक कह डाला कि ‘‘भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ अनर्गल बातें करने वाले रामदेव को सरकार की ताकत का अन्दाजा नहीं है। एक बार यदि उनकी सम्पत्ति की जांच हो गयी और अगर वे कानून के चक्रव्यूह में फंस गये तो बाहर निकलना मुश्किल हो जायेगा।’’
बाबा रामदेव का कहना है कि ‘‘वे सरकारी आतंक के आगे झुकेंगे नहीं, उनके पास न तो काला धन है और न किसी से दानस्वरूप काला धन लेते हैं।’’ कालेधन के खिलाफ निरंतर आक्रामक रूप अख्तियार करते बाबा को धमकाने के साथ-साथ विनम्र लहजे में कांग्रेस के महासचिव, प्रवक्ता और टिहरी के कांग्रेस विधायक बाबा को सलाह भी देते हैं कि ‘‘यदि वे योग-गुरु हैं तो सबको योग ही सिखायें। साधु-संत का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होता। अतः उनकी भलाई इसी में है कि वे राजनीति में दखल न दें।’’
बाबा रामदेव की काले धन के खिलाफ छेड़ी गयी जंग को लेकर कुछ लेखकों-चिंतकों का मानना है कि-‘‘ राजनीति में स्थापित होने को आतुर बाबा रामदेव कालाधन, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर बयानबाजी के जरिए राजनीति के गलियारों में चर्चित तो हुए हैं लेकिन इससे योग-गुरु के रूप में स्थापित उनकी प्रतिष्ठा को खासा आघात पहुंचा है। आज देश की जो राजनीतिक स्थिति है उसमें वह कोई बड़ा बदलाव ला पायेंगे, इसमें शंका ही है। क्योंकि पूर्व में उनसे भी बड़े संत करपात्रीजी महाराज और बाबा जय गुरुदेव ऐसा करने के प्रयास में अपना सबकुछ गंवा चुके हैं। इतिहास गवाह है कि जिन संतों और साधुओं ने राजनीति में प्रवेश किया उन्हें क्षणिक सत्ता-सुख भले मिल गया हो, लेकिन संत के रूप में कमायी गयी उनकी इज्जत कम हो गयी। राजनीतिक पार्टियों ने साधु-संतों का इस्तैमाल कर उन्हें कहीं का न छोड़ा। चाहे योगी आदित्यनाथ हों अथवा सतपाल महाराज, इन सभी ने जब तक राजनीति में प्रवेश नहीं किया था तो जनता की इनमें आस्था थी, लेकिन राजनीति में कदम रखते ही यह भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह हो गये।’’
साधुओं-संतो के राजनीतिक प्रवेश और अनीति-कदाचार से टकराने के मुद्दे पर हो सकता है ऐसे विद्वानों-लेखकों के तर्कों में  दम हो, किन्तु इस विवाद में न पड़ते हुए यहाँ सिर्फ यह बताना आवश्यक है कि  भारतीय इतिहास में कल्याणकारी व्यवस्था को स्थापित करने में साधु-समाज की भूमिका मात्र वैचारिक ही नहीं, योद्धा की भी रही है। इतिहास साक्षी है, जब-जब असुरों ने उत्पात मचाया है, जनता के धन को खाया है, अत्याचार किये हैं, दमन-चक्र चलाया है, तब-तब कोई न कोई साधु भी परशुराम की तरह फर्सा लेकर सामने आया है।
स्वामी दयानंद के शिष्य स्वामी श्रद्धानंद का अंग्रेजी हुकूमत से टकराना साधु-धर्म के साथ-साथ देश-धर्म के लिए मर-मिटने का यदि मानक उदाहरण है तो स्वामी विवेकानंद का दरिद्रनारायणकी स्थापनार्थ किया गया कर्म, साधु-धर्म का पालन करते हुए देशधर्म निभाने और शोषित-दलित वर्ग में आत्म गौरव जगाने का अनूठा प्रयास है। स्वामी विवेकांनद के व्यक्तित्व, विचारों और क्रान्तिकारी दर्शन के प्रभाव का प्रतिफलन हमें सुभाषचन्द्र बोस के रूप में दिखायी देता है, जिन्होंने अंग्रेजों के साम्राज्य में आखिरी कील ठोंकी। ऋषि चार्वाक, अगस्त्य मुनि, गुरु गोरखनाथ, कबीर, ईसा मसीह, गौतमबुद्ध ने साधुकर्म के साथ-साथ देश-धर्म और मानव-धर्म का भी पालन किया। जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप होय नरक अधिकारीकहकर संत तुलसीदास ने जहां निरंकुश और अत्याचारी शासकों का विरोध किया, वहीं भक्ति-धर्म को निभाते हुए बिहारी ने तत्कालीन शासक को चेतावनी दी-बाज पराये पान पर इन पच्छिनु मत मार। भ्रर्तहरि ने तो साधु-धर्म निभाते हुए राज-धर्म को भी संचालित किया।
सिखों के प्रथम गुरु नानक ने बाबर जैसे क्रूर और अत्याचारी बादशाह की अनीतियों का विरोध किया और समाज में फैलते वैमनस्य के बीच सद्भाव के संदेश दिये।
गुरु अंगददेव की जहांगीर की क्रूर नीतियों का विरोध जगजाहिर है। जहांगीर के कोप के शिकार गुरुजी को देग गर्म कराकर उसके खौलते पानी में बिठाकर असीम यातनाएं दी गयीं।
गुरु गोविन्द सिंह संत-धर्म का पालन करते हुए अत्याचारी मुगल बादशाहों से युद्ध करके जनता को मुक्त कराते रहे। उन्होंने जहांगीर की कैद से 52 राजाओं को छुड़वाया।
औरंगजेब के संतस्वभावी दाराशिकोह को शरण देकर गुरु हरिराय ने अत्याचारी शासक औरंगजेब से टकराहट मोल ली। घमंडी और क्रूर शासकों को सबक सिखाने की गरज से सिखों को और संगठित करने पर बल दिया।
गुरु तेग बहादुरु ने कश्मीरी पंडितों और हिन्दू-धर्म की रक्षार्थ जब औरंगजेब की क्रूरता के मुखर विरोधी हो गये तो उन्हें चांदनी चौक दिल्ली में सरेआम कत्ल किया गया।
गुरुगोविन्द सिंह ईश्वरीय भक्ति में जहां तल्लीन रहा करते थे, वहीं वे तत्कालीन अत्याचारी शासक के विरुद्ध युद्ध करने से भी नहीं चूकते थे। खालसा पंथ के संस्थापक गुरुजी ने वीरतापूर्वक मुगलों से लोहा लिया, सत्ता से टकराने के जज्बे के रहते अपने चार पुत्रों  का बलिदान दिया। उन्होंने धर्म की नयी परिभाषा गढ़ते हुए धर्म को अत्याचार और शोषण से मुक्त कराने का साधन बताया। उनका शिष्य बंदा वैरागी जो साधु माधोदास के नाम से जाना जाता था, भी सत्ताधारी शासक वर्ग के अत्याचारियों को सबक सिखाने और जालिमों की खबर लेने के लिये उनसे युद्धरत रहते हुए शहीद हुआ।
कहने का अर्थ यह है कि जब-जब शासन और सत्ताएं निरंकुश, आसुरी वृत्तियों वाली, शोषक, लुटेरी, क्रूर, अत्याचारी हुई हैं, तब-तब संतों ने भी योग-धर्म, गुरु-धर्म साधु-धर्म का पालन करने के साथ-साथ देश-धर्म को भी अपनाने में हिचक महसूस नहीं की है।
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