ब्लौग सेतु....

22 दिसंबर 2014

पीड़ा -- आशा सक्सेना


जीवन के अहम् मोड़ पर
लिए मन में दुविधाएंअनेक
सौन्दर्य प्रेम में पूरी  डूबी
सूरत सीरत खोज रही |
एक विचार एक कल्पना
 जिससे बाहर ना आ पाती
डूबती उतराती उसी में
कल्पना की मूरत खोजती |
उसका वर कैसा हो
किसी ने जानना न चाहा
पैसा प्रधान समाज ने
उसे पहचानना नहीं चाहा |
कहने को उत्थान हुआ
नारी  का महत्त्व बढ़ गया
पर इतने अहम मुद्दे पर
उससे पूछा तक न गया  |
विवाह उसे करना था
निर्णय लिया परिवार ने
सारे अरमान जल गए
हवनकुंड की अग्नि में |
नया घर नया परिवेश
धनधान्य की कमीं न थी
पर वर ऐसा न पाया
जिसकी कल्पना की थी |
भारत में जन्मीं थी
संस्कारों से बंधी थी
धीरे धीरे  रच बस गई
ससुराल के संसार में |
कभी कभी मन में
एक हूक सी उठती
प्रश्न सन्मुख होता
क्या यही कल्पना थी |
अब मन ने नई उड़ान भरी
हुई व्यस्त सृजन करने में
खोजती सौन्दर्य अपने कृतित्व में
हुई सम्पूर्ण खुद ही में !

लेखक परिचय - आशा सक्सेना


16 दिसंबर 2014

मौसमे-मुहब्बत

मुहब्बतों के मौसम में यूँ तूफानों का आना क्यों |
बातों हों तो प्यार की ये दर्द भरा अफ़साना क्यों ||

मैं सुलझाऊं जुल्फ़ें तेरी आ मोतियन से माँग भरूँ |
बैठ जा नज़रों के आगे शर्मो-हया का बहाना क्यों ||

बरसों से बसेरा दिल है तेरा इस दीवाने-यार का |
पूछ रहे गैरों से जाकर मन में बसा ठिकाना क्यों ||

रिमझिम करते आए बादल सावन ने रंग घोला है |
मुहब्बतों की बारिशें हैं जलता मगर जमाना क्यों ||

कहले जो कुछ कहना मुझसे मैं तेरी सब सुन लूँगा |
मुहब्बत के झगड़ों की बातें गैरों को बतलाना क्यों ||

आँखों में उमड़े हैं अरमां झिलमिल करते सपने हैं |
उड़ना हैं अंबर से आगे आँधी से घबराना क्यों ||


...............................................© केशरीलाल स्वामी केशव

खंडित साँसें -- साधना वैद


खुशियों का संसार सुहाना टूट गया,
जनम-जनम का बंधन पल में छूट गया,
जिसके नयनों में मीठे सपने रोपे थे
पलक मूँद वह जीवन साथी रूठ गया !
मन के देवालय की हर प्रतिमा खण्डित है ,
जीवन के उपवन की हर कलिका दण्डित  है,
जिसकी हर मंजिल में जीवन की साँसें थीं 
चूर-चूर हो शीशमहल वो टूट गया !


12 दिसंबर 2014

पवन बहे

सननन सननन पवन बहे,
घनन घनन घन गर्जन करे ।
हुलस-हुलस कर नाचे मनवा,
महके उपवन सुमन झरे ॥

                       बहकी कलियां महके फूल,
                       भंवरे के मन उठता शूल ॥
                       तितली रानी रंग भरे,
                       स्वर्णमयी लगती है धूल ॥

कोकिल केकी करें धमाल,
मस्तानी हिरणों की चाल ।
उड़ते पांखी गाएं गीत,
सूरज सब पर मले गुलाल ॥

                       झूमें लहरें हरियल खेत,
                       सोना बनकर निखरी रेत ।
                       रंग लाई मेहनत अब देखो,
                       धरती ने उमड़ाया हेत ॥

आज खुशी क्या ठिकाना
गाती है कुदरत खुद गाना ।
करवट ली किस्मत ने मेरी,
उपजी हैं फसलें भी नाना ॥

                       चारों और आशा ही आशा,
                       दूर कहीं भागी निराशा ।
                       मचला जाए मनवा मेरा,
                       मौसम भी बहका जरा सा ॥
                           


-    केशरीलाल स्वामी केशव

6 दिसंबर 2014

माँ ...........तेरे जाने के बाद






जब मै जन्मा तो मेरे लबो सबसे पहले तेरा नाम आया,
बचपन से जवानी तक हर पल तेरे साथ बिताया.
लेकिन पता नहीं तू कहा चली गयी रुशवा होकर,
की आज तक तेरा कोई पौगाम ना आया.
मै तो सोया हुआ था बेफिक्र होकर,
और जब जागा तो न तेरी ममता, ना तुझे पाया.
मुझसे क्या ऐसी खता हो गयी,
जिसकी सजा दी तूने ऐसी की मै सह ना पाया.
तू छोड़ गयी मुझे यु अकेला,
मै तो तुझे आखरी बार देख भी ना पाया.
तू तो मुझे एक पल भी छोड़ती नहीं थी,
फिर तूने इतना लम्बा अरसा कैसे बिताया.
तू इक बार आ जा मुझसे मिलने,
देखना चाहता हूँ माँ तेरी एक बार काया.

18 नवंबर 2014

अटक गया विचार-- बृजेश नीरज

माथे पर सलवटें;

आसमान पर जैसे

बादल का टुकड़ा थम गया हो;

समुद्र में

लहरें चलते रूक गयीं हों,

कोई ख्याल आकर अटक गया।

धकियाने की कोशिश बेकार,

सिर झटकने से भी

निशान नहीं जाते।

सावन के बादलों की तरह

घुमड़कर अटक जाता है

वहीं

उसी जगह

उसी बिन्दु पर।

काफी वजनी है;

सिर भारी हो चला

आंखें थक गईं,

पलकें बोझल।

सहा नहीं जाता

इस विचार का वजन।

आदत नहीं रही

इतना बोझ उठाने की;

अब तो घर का राशन भी

भार में इतना नहीं होता कि

आदत बनी रहे।

बहुत देर तक अटका रहा;

वह कोई तनख्वाह तो नहीं

झट खतम हो जाए।

अभी भी अटका है वहीं

सिर को भारी करता।

बहुत देर से कुछ नहीं सोचा।

सोचते हैं भी कहां

सोचते तो क्यों अटकता।

इस न सोचने,

न बोलने के कारण ही

अटक गयी है जिंदगी।

तालाब में फेंकी गई पालीथीन की तरह

तैर रहा है विचार

दिमाग में

सोच की अवरूद्ध धारा में मंडराता।

अब मजबूर हूं सोचने को

कैसे बहे धारा अविरल

फिर न अटके

सिर बोझिल करने वाला

कोई विचार।

- बृजेश नीरज

15 नवंबर 2014

सौ संस्कारों के ऊपर भारी मजबूरी एक - कुँवर जी

सौ संस्कारों के ऊपर भारी मजबूरी एक
आचरण बुरा ही सही पर है इरादे नेक!

खुद बोले खुद झुठलाये जो करे कह न पाए
अजब चलन चला जग में चक्कर में विवेक

भ्रष्टाचार से लड़ाई में हाल ये सामने आये
विजयी मुस्कान लिए सब रहे घुटने टेक!

मेहनत से डर कर खुद को मजबूर कहलवाए 
जब तक मौका न मिले तब तक है सब नेक!
 

7 नवंबर 2014

आम की खेती बबूल से करवायी है

हमने एक और ग़लती अपनायी है
आम की खेती बबूल से करवायी है

पिछले मौसम में गर्मी भ्रष्ट थी
अबके मात्र वादों की बाढ़ आयी है

कुबेर और भिखारी एक ही जानो 
भेद बतलाने में वादाखिलाफ़ी है

उसने मक्कारी से सही कमाई तो है
फ़िज़ूल में हाय हाय और दुहाई है

लूटने का मौसम आया, लूटेरे आयें
बाँझ मिट्टी की बोली लगने वाली है

हवा अब भी बेपरवाह है फिरती
कोई बताये उस पर भी शामत आयी है

शाख से झूलते मुर्झाये जिस्म ने बताया
इस इलाके में सूखे की कारवायी है

गर गूंगे हो 'शादाब' तो गूंगे रहो
जिसने मुँह खोला जान पे बन आयी है !

5 नवंबर 2014

हर रोज बैठे रहते हैं अकेले -- संध्या शर्मा


हर रोज बैठे रहते हैं अकेले 
कभी टी वी के निर्जीव चित्र देखते 
कभी मोटे चश्मे से अखबार छानते 
एक वक़्त था कि फुर्सत ही न थी 
एक पल उसकी बातें सुनने की
आज कितनी याद आती है वह 
वही सब मन ही मन दोहराते
बीच-बीच में नाती से कुछ कहते 
क्या कहा कोई सुनता नहीं 
अभी - अभी बहु ने गुस्से से 
ऐसे पटकी चाय की प्याली 
फूटी क्यों नहीं वही जानती होगी 
बेटों ने ऐसे कटाक्ष किये कि
जख्मों पर नमक पड़ गया  
तन-मन में सुलगती आग
फिर भी गूंजी एक आवाज़ 
"बेटा शाम को घर कब आएगा"
ठण्ड से कांपता बूढ़ा शरीर
सिहर उठता है रह-रह कर
अपनी ही आँखों के आगे  
अपने शब्द और अस्तित्व 
दोनों को  धूं -धूं करके
गुर्सी की आग में जलते देख 
जो उड़कर बिखर रहे हैं 
वक़्त क़ी निर्मम आंधी में 
कागज़ के टुकड़ों क़ी तरह...!!



29 अक्टूबर 2014

गजल


गर आप फरमाइश करें
-राजेश त्रिपाठी
हमने आज जलाये हैं, हौसलों के चिराग।
हवाओं से कहो, वे जोर आजमाइश करें।।

हम तो रियाया हैं, हमारी क्या बसर।
आप आका हैं, जो सात को सत्ताइश करें।।

झुनझुने की तरह , हम आगे-पीछे बजते रहे।
सजदे में झुक जायेंगे, गर आप फरमाइश करें।।

मुसलसल आपकी जफाओं ने, मारा है हमें।
कितने आंसू अब तक बहे, आप पैमाइश करें।।

हाथों को काम मुंह को निवाला मिलता रहे।
खुदारा आप बस इतनी तो गुंजाइश  करें।।

भूखे पेट जी रही है, देश की आधी अवाम।
और आप हैं कि शानो शौकत की नुमाइश करें।।

देश का अमनो अमान हो गया है काफूर।
आग है लगी हुई, आप वो करें जो तमाशाई करें।।



27 अक्टूबर 2014

ढलता हुआ सूरज नहीं देखा -- सदा जी


खोजते थे तुम पल कोई ऐसा 
जिसमें छिपी हो 
कोई खुशी मेरे लिए 
मैं हंसती जब भी खिलखिलाकर 
तुम्‍हारे लबों पर 
ये अल्‍फ़ाज होते थे 
जिन्‍दगी को जी रहा हूं मैं
ठिठकती ढलते सूरज को देखकर जब भी 
तो कहते तुम 
रूको एक तस्‍वीर लेने दो 
मैं कहती 
कभी उगते हुए सूरज के साथ  भी
देख लिया करो मुझे 
चिडि़यों की चहचहाहट  
मधुरता साथ लाती है 
तुम झेंपकर 
बात का रूख बदल देते थे 
कुछ देर ठहरते हैं 
बस चांद को आने दो छत पे 
जानते हो 
वो मंजर सारे अब भी 
वैसे हैं 
मेरी खुशियों को किसी की 
नजर लग गई है 
मैने बरसों से  
ढलता हुआ सूरज नहीं देखा ... !!



18 अक्टूबर 2014

आये थे तेरे शहर में -- साधना वैद


आये थे तेरे शहर में मेहमान की तरह,
लौटे हैं तेरे शहर से अनजान की तरह !

सोचा था हर एक फूल से बातें करेंगे हम,
हर फूल था मुझको तेरे हमनाम की तरह !

हर शख्स के चहरे में तुझे ढूँढते थे हम ,
वो हमनवां छिपा था क्यों बेनाम की तरह !

हर रहगुज़र पे चलते रहे इस उम्मीद पे,
यह तो चलेगी साथ में हमराह की तरह !

हर फूल था खामोश, हर एक शख्स अजनबी,
भटका किये हर राह पर गुमनाम की तरह !

अब सोचते हैं क्यों थी तेरी आरजू हमें,
जब तूने भुलाया था बुरे ख्वाब की तरह !

तू खुश रहे अपने फलक में आफताब बन,
हम भी सुकूँ से हैं ज़मीं पे ख़ाक की तरह !



14 अक्टूबर 2014

खुदा कि रजायें ..तय होती हैं -- वंदना सिंह


वफायें  ..जफ़ाएं   तय होती है 
इश्क में सजाएं  तय होती हैं 

पाना खोना हैं जीवन के पहलू 
खुदा की  रजाएं.. तय होती हैं 

ये माना... के गुनहगार हूँ मैं 
मगर कुछ खताएं तय होती हैं 

कोई मौसम सदा नहीं रहता 
जिन्दगी में हवाएं तय होती हैं 

होनी को चाहिए ...बहाना कोई 
अनहोनी कि वजहायें तय होती हैं !



4 अक्टूबर 2014

      साथी था अब अजनबी है-सुरेन्द्र भुटानी




मुल्क का मुल्क ही  अपनी यादाश्त खो बैठा है यहां
अब जो खिलाडी आया है वो अपना खेल दिखायेगा
तुम भी अपने दिलो-दिमाग़ की खिड़कियां बंद कर लो
वक़्त नहीं वक़्त का साया है तुम से क्या मेल बढ़ायेगा
ये मौसमी ना'रे हैं इनकी भी इक मीयाद होगी आखिर
फिलहाल साँसों के सिवा सब हमसफ़र तो छूट गये 
हर सुबह बदलता रहेगा ये ज़माना नित नए रंग अपने 
शोरीशे-हस्ती का इक  बहाना है सब रहबर तो लूट  गये
ले उडा  तमाम नींदें ,क्या ख़्वाब की ता'बीर देखोगे
सर-चश्मा-ए -ज़ुल्मत में अब  खुर्शीद की आमद क्या
रुदादे -ग़मे-वफ़ा से  लोगों के अफ़साने जुड़ते जायेंगे
झूठी चमक की शोहरत में अब  हुस्ने-दीद की आमद क्या
एक अजब सा खौफ बना रहेगा, अब ऐसी ही  दुश्वारी है
नीम सी कड़वी  बातों पे तुम्हे  अपने तंज़ करते रहना है
तुम अपने हो कर फिर अजनबी बने, ये रीत तो पुरानी है
गल्त वक़्त की मुलाक़ातों पे तुम्हे अपने तंज़ करते रहना है

3 अक्टूबर 2014

विजय दशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ :)


कविता मंच ब्लॉग की ओर से आप सभी ब्लोगर मित्रों को विजय दशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ .....!!

 -- संजय भास्कर


26 सितंबर 2014

भीगे शब्द -- शिवनाथ कुमार


भीगे गीले शब्द 
जिन्हें मैं छोड़ चुका था 
हर रिश्ते नाते 
जिनसे मैं तोड़ चुका था

सोचा था कि
अब नहीं आऊँगा उनके हाथ 
पर आज महफ़िल जमाए बैठा हूँ 
फिर से 
भीगी रात में 
उन्हीं भीगे शब्दों के साथ.... !!



23 सितंबर 2014

मेरे शब्द -- शिवानी गौर

मेरे शब्द ,
अब
मुझसे भी कुछ नहीं कहते ,
चुप से खड़े हैं
परछाईयाँ थामे ,
कर दिया है
उनका श्राद्ध ,

प्रेम के मन्त्रों ने

 शिवानी गौर जी की कलम से निकली कुछ पंक्तियाँ


20 सितंबर 2014

उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं

एक गज़ल


उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं

.









राजेश त्रिपाठी
सदियां गुजर गयीं पर, तकदीर नहीं बदली।
मुफलिस अब तलक जहान में, पीछे खड़े हैं।।

औरों का हक मार कर, जो बन बैठे हैं अमीर।
उन्हें खबर नहीं कैसे-कैसे लोग तकदीरों से लड़े हैं।।

पांव में अब तलक जितने भी छाले पड़े हैं।
वे न जाने कितने बेबस लिए नाले खड़े हैं।।

कोई रहबर अब तो राह दिखलाए ऐ खुदा।
जिंदगी के दोराहे पे , हम जाने कबसे खड़े हैं।।

उनको अपनी शान-शौकत की बस है फिकर।
कितने गरीब मुसलसल, बिन निवाले के पड़े हैं।।

उनकी दहशत, उनके रुतबे का है ये असर।
मजलूम खामोश हैं, उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं।।

चौराहे पे भीख मांगता है, देश का मुस्तकबिल।
उनको क्या फिकर, जिनके जूतों में भी हीरे जड़े हैं।।

मुल्क का माहौल अब पुरअम्न कैसे हो भला।
हैवान जब हर सिम्त हाथों में लिये खंजर खड़े हैं।।

किसी बुजुर्ग के चेहरे को जरा गौर से पढ़ो।
हर झुर्री गवाह है, वो कितनी आफतों से लड़े हैं।।

आप अपनी डफली लिए, राग अपना छेड़िए।
छोड़िए मुफलिसों को , आप तकदीर वाले ब़ड़े हैं।।

चांदी-सोने की थाल में जो जीमते छप्पन प्रकार।
खबर उनकी नहीं, जिंदगी के लिए जो कचडों से भिड़े हैं।।

आपका क्या, मौज मस्ती, हर मौसम त्यौहार है।
कुछ नयन ऐसे हैं, जिनके हिस्से सिर्फ आंसू ही पड़े हैं।।

इनसान होंगे जो इनसानों की मुश्किल जानते।
आप तो लगता है कि इनसानों से भी बड़े हैं।
* नाले = विलाप, चीख-पुकार
* पुरअम्न = शांतिपूर्ण

17 सितंबर 2014

चाँद तारों की गुफ्तगू सुनता रहा रात भर

-गूगल से साभार


चाँद तारों की गुफ्तगू सुनता रहा रात भर
जलन से बादल रंग बदलता रहा रात भर

नज़र में आने को बेताब एक परिंदा 
हवा में कलाबाजियाँ करता रहा रात भर

जलती शमा के इश्क़ में पागल परवाना
काँच पर  सर  पटकता  रहा  रात  भर

किसी और को न पा कर हवा फिर से
सोते पेड़ को  जगाती  रही  रात  भर

मखमल के बिस्तर से सड़क के फूटपाथ तक
ख़ाबों का सौदा होता रहा रात  भर

नादान औलादों की गुस्ताखी माफ़ कर, वो 
फ़िज़ा को शबनम से सजाता रहा रात भर

सबकी जरूरत जान कर थका हारा सूरज
फिर से जलने को तैयार होता रहा रात भर

16 सितंबर 2014

फांसी - श्याम कोरी 'उदय'


बहुत हो गया, एक काम करो -
चढ़ा दो
उसे फांसी पर !

क्यों, क्योंकि -
वह गांधीवादी तो है
पर तालीबानी गांधीवादी है !

वह अहिंसा का पुजारी तो है
पर हिटलर है !

वह बहुत खतरनाक है !
क्यों, क्योंकि -
वह खुद के लिए नहीं
आम लोगों के लिए लड़ रहा है !

ऐंसे लोग बेहद खतरनाक होते हैं
जो खुद के लिए न लड़कर
आम लोगों के लिए लड़ते हैं !

वह किसी न किसी दिन
हमारे लिए
खतरा साबित होकर रहेगा !

जितना बड़ा खतरा आज है
उससे भी कहीं ज्यादा बड़ा खतरा !

इसलिए -
जाओ, पकड़ के ले आओ उसे
ड़ाल दो, किसी अंधेरी काल कोठारी में !

और तो और, मौक़ा मिलते ही -
चढ़ा दो
उसे फांसी पर !!


लेखक परिचय -- श्याम कोरी 'उदय'


12 सितंबर 2014

किस कदर गिर गया इनसान देखिए

 राजेश त्रिपाठी 
 किस कदर गिर गया है अब इनसान देखिए।
रिश्तों की कद्र नहीं, पैसे की पहचान देखिए।।

सारे उसूल, अब सारी रवायत दफन हुई।
दर-दर है बिक रहा अब ईमान देखिए।।

पैसा ही आज सब है, ये माई-बाप है।
पैसा जैसे चलाये, चल रहा इनसान देखिए।।

कुछ लोग ऊंचे ओहदों पर बैठ यों ऐंठ रहे हैं।
 खुद को वो समझते हैं, धरती का भगवान देखिए।।

बेटे को पढ़ा-लिखा काबिल बना दिया।
वृद्धाश्रम में पल रहे वे मां-बाप देखिए।।

वो दिन-रात तरक्की का ढोल पीट रहे हैं।
भूखा सो रहा आधा हिंदोस्तान देखिए।।

हम क्या कहें किस तरह मुल्क के हालात हो रहे।
हर तरफ हैं अब तूफानों के इमकान देखिए।।

हर गली, हर गांव, हर शहर में खौफ का साया।
कितने मुश्किलों में घिर गयी अब जान देखिए।।

'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' भूल गये हैं।
मजहब के नाम पर उठ रहे हैं कितने तूफान देखिए।।

इस कदर चलता रहा गर ये हंगामा मुसलसल।
फिर टुकड़ों में न बंट जाये हिंदोस्तान देखिए।।

वो जिनको प्यार है इस मुल्क, इनसानियत से।
वे चेत जायें वरना होंगे वे भी परेशान देखिए।।

आदम की जात पहले इतनी खूंखार नहीं थी।
क्या हो गया अब हर हाथ में हैं हथियार देखिए।।

वो दिन गये जब दिलों में मोहब्बत का ठौर था।
अब बस नफरत, नफरत, नफत का है राज देखिए।।

हो सके तो इनसानियत की हिफाजत करे कोई।
अब तो दुनिया में है स्वार्थ का व्यवहार देखिए।।

इस कदर शक और खौफ का आलम रवां-दवां।
उठ गया है सब पर से अब ऐतबार देखिए।।

कुछ इस कदर हैं हालात आज दुनिया के ।
डर है कभी हमसाया ही न कर दे वार देखिए।

9 सितंबर 2014

अंतिम कविता -- संध्या शर्मा :)


सृष्टि के अंतिम दिन
उसके और हमारे बीच
कोई नहीं होगा
तब मृत्यु
एक कविता होगी 
एक अंतिम कविता
बिना किसी भेद-भाव के
स्वागत करेगी सबका
उस दिन यह दुनिया
न तेरी होगी
न मेरी होगी
जब धरा लुढ़क रही होगी
खुल जायेगा
सिन्धु का तट बंध
बिखर जायेगा अम्बर प्यारा 
अंधकार के महागर्त में
खो जायेगा जहाँ सारा 
तब हम बहेंगे
पानी बनकर साथ-साथ
नए सिरे से रचना होगी
कुछ क्षण को ही सही
ये दुनिया अपनी होगी 
एक ओर हो रहा होगा पतन
कहीं मिलेगा नवयुग को जीवन..!!



4 सितंबर 2014

आपस में टकराना क्या -- दिगम्बर नासवा

ध्यान रखो घर के बूढ़ों का, उनसे आँख चुराना क्या
दो बोलों के प्यासे हैं वो, प्यासों को तड़पाना क्या

हिंदू मंदिर, मस्जिद मुस्लिम, चर्च ढूँढते ईसाई
सब की मंज़िल एक है तो फिर, आपस में टकराना क्या

चप्पू छोटे, नाव पुरानी, लहरों का भीषण नर्तन
रोड़े आते हैं तो आएँ, साहिल पर सुस्ताना क्या


अपना दिल, अपनी करनी, फ़िक्र करें क्यों दुनिया की
थोड़े दिन तक चर्चा होगी, चर्चों से घबराना क्या

जलते जंगल, बर्फ पिघलती, कायनात क्यों खफा खफा
जैसी करनी वैसी भरनी, फल से अब कतराना क्या

 लेखक परिचय - दिगम्बर नासवा 


2 सितंबर 2014

हो सके तो किसी का सहारा बनो



राजेश त्रिपाठी

जरूरी नहीं कि तुम आसमां का सितारा बनो।
अगर हो सके तो किसी का सहारा बनो।।

कभी-कभी मझधार में डुबो देती है कश्ती भी।
हो सके तो किसी डूबते का किनारा बनो।।

जन्म आदम का मिलता है भाग्य से।
जरूरी नहीं कि मनुज दोबारा बनो।।

उपकार जितना बन सके करते चलो।
हो सके तो दुखियों की आंख का तारा बनो।।

जो मजलूम हैं महरूम हैं इस दुनिया में।
उनके हक की आवाज, उनका नारा बनो।।

रास्ते खुद मंजिलों तक ले जायेंगे तुमको।
हौसला रखो बुलंद न तुम नाकारा बनो।।

मतलबपरस्त हो गयी है अब दुनिया।
सोचो-समझो फिर किसी का सहारा बनो।।

प्यार इक व्यापार बन गया है आजकल।
इससे बच कर रहो या फिर आवारा बनो।।

अब यहां हवन करते भी हाथ जलते हैं।
जांचो-पऱखो फिर किसी का प्यारा बनो।।

तकदीर ऊपर से लिख कर नहीं आती।
अपनी तकदीर के बादशाह, खुदारा बनो।।

26 अगस्त 2014

पीछे मुडकर देखना जिंदगी को -- आशा जोगळेकर :)

 @फोटो : गूगल से साभार

अब अच्छा लगता है
देखना जिंदगी को
पीछे मुडकर।

जब पहुंच गया है
मंजिल के पास
अपना ये सफर।

क्या पाया हमने
क्या खोया
सोचे क्यूं कर।

अच्छे से ही
कट गये सब
शामो सहर।

सुख में हंस दिये
दुख में रो लिये
इन्सां बन कर।

कुछ दिया किसी को
कुछ लिया
हिसाब बराबर....!!!

 लेखक परिचय -- स्वप्नरंजिता ब्लॉग से आशा जोगळेकर   



21 अगस्त 2014

खाली पड़ा कैनवास -- शिवनाथ कुमार :)


@फोटो : गूगल से साभार

उस खाली पड़े कैनवास  पर
हर रोज सोचता हूँ
एक तस्वीर उकेरूँ
कुछ ऐसे रंग भरूँ
जो अद्वितीय हो
पर कौन सी तस्वीर बनाऊँ
जो हो अलग सबसे हटकर
अद्वितीय और अनोखी
इसी सोच में बस गुम हो जाता हूँ
ब्रश और रंग लिए हाथों में
पर उस तस्वीर की तस्वीर
नहीं उतरती मेरे मन में
जो उतार सकूँ कैनवास पर
वह रिक्त पड़ा कैनवास
बस ताकता रहता है मुझे हर वक्त
एक खामोश प्रश्न लिए
और मैं
मैं ढूँढने लगता हूँ जवाब
पर जवाब ...
जवाब अभी तक मिला नहीं
तस्वीर अभी तक उतरी नहीं
मेरे मन में
और वह खाली पड़ा कैनवास
आज भी देख रहा है मुझे
अपनी सूनी आँखों में खामोशी लिए  !!


 लेखक परिचय - शिवनाथ कुमार

17 अगस्त 2014

ईश सब सन्ताप हरने को प्रकट होता तभी---द्विवेदी गजपुरी




पाप से सद्धर्म छिप जाता जगत में जब कभी
ईश सब सन्ताप हरने को प्रकट होता तभी
धर्म-रक्षा हेतु करके दुर्जनों का सर्वनाश
दूर कर संसार का तम सत्य का करता विकाश
इस तरह अवतार लेता विश्व में विश्वेश है
शेष रहता फिर कहाँ आपत्ति का लवलेश है
कंस ने उत्पात भारी जब मचाया था यहाँ
द्यूतकारी मद्यपी धन लूटता पाता जहाँ
डर उसे था हर घड़ी श्रीकृष्ण के अवतार का
देवती को दुख मिला पतियुक्त कारागार का
भाद्र की कृष्णाष्टमी सब ओर छाया अंधकार
चञ्चला घनघोरमाला में चमकती बार बार
ज्योति निर्मल देवकी के गर्भ में हो भासमान
विश्वपति शिशुरूप में लाया गया गोकुल निदान
नन्द ने अपना समझ कर प्रेम से पाला उसे
इसलिए संसार कहता नन्द का लाला उसे
कृष्ण वंशी को बजा गायें चराता था कभी
दूध माखन चोर कर मन को चुराता था कभी
पूतना केशी तथा कंसादि का संहार कर
द्वारिका जाके बसाया देवद्विज का कष्ट हर
बात ही उलटी हुई हा! अब मुरारी हैं नहीं
अब हमारे बीच में व्रज का विहारी है नहीं
किन्तु उसका रूप सुन्दर है नहीं दिल से हटा
याद आती हाय! अब भी साँवली सुन्दर छटा
है मुझे विश्वास, फिर भी श्याम आवेगा कभी
मोहनेवाली मधुर बंशी बजावेगा कभी
पाप-तापों से हमें वह फिर छुड़ावेगा कभी
सर्व दु:खों को दयामय फिर मिटावेगा कभीमन्नन

’सरस्वती’ पत्रिका के हीरक जयंती विशेषांक में प्रकाशित

14 अगस्त 2014

शहीद की माँ / हरिवंशराय बच्चन

इसी घर से
एक दिन
शहीद का जनाज़ा निकला था,
तिरंगे में लिपटा,
हज़ारों की भीड़ में।
काँधा देने की होड़ में
सैकड़ो के कुर्ते फटे थे,
पुट्ठे छिले थे।
भारत माता की जय,
इंकलाब ज़िन्दाबाद,
अंग्रेजी सरकार मुर्दाबाद
के नारों में शहीद की माँ का रोदन
डूब गया था।
उसके आँसुओ की लड़ी
फूल, खील, बताशों की झडी में
छिप गई थी,
जनता चिल्लाई थी-
तेरा नाम सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा।
गली किसी गर्व से
दिप गई थी।

इसी घर से
तीस बरस बाद
शहीद की माँ का जनाजा निकला है,
तिरंगे में लिपटा नहीं,
(क्योंकि वह ख़ास-ख़ास
लोगों के लिये विहित है)
केवल चार काँधों पर
राम नाम सत्य है
गोपाल नाम सत्य है
के पुराने नारों पर;
चर्चा है, बुढिया बे-सहारा थी,
जीवन के कष्टों से मुक्त हुई,
गली किसी राहत से
छुई छुई।

5 अगस्त 2014

शब्‍दों के रिश्‍ते हैं शब्‍दों से -- सदा जी :)


शब्‍दों के रिश्‍ते हैं
शब्‍दों से
कोई चलता है उँगली पकड़कर
साथ - साथ
कोई मुँह पे उँगली रख देता है
कोई चंचल है इतना
झट से जुबां पर आ जाता है
कोई मन ही मन  कुलबुलाता है
किसी शब्‍द को देखो कैसे खिलखिलाता है
....
दर्द के साये में शब्‍दों को
आंसू बहाते देखा है
शब्‍दों की नमी
इनकी कमी
गुमसुम भी शब्‍दों की द‍ुनिया होती है
कुछ अटके हैं ... कुछ राह भटके हैं
कितने भावो को समेटे ये
मेरे मन के आंगन में
अपना अस्तित्‍व तलाशते
सिसकते भी हैं
....
जब भी मैं उद‍ासियों से बात करती हूँ,
जाने कितनी खुशियों को
हताश करती हूँ
नन्‍हीं सी खुशी जब मारती है  किलकारी,
मन झूम जाता है उसके इस
चहकते भाव पर
फिर मैं  शब्‍दों की उँगली थाम
चलती हूँ हर हताश पल को
एक नई दिशा देने
कुछ शब्‍द साहस की पग‍डंडियों पर
दौड़ते हैं मेरे साथ-साथ
कुछ मुझसे बातें करते हैं
कुछ शिकायत करते हैं उदास मन की
कुछ गिला करते हैं औरों के बुरे बर्ताव का
मैं सबको बस धैर्य की गली में भेज
मन का दरवाजा बंद कर देती हूँ.....!!

लेखक परिचय -- सदा जी

27 जुलाई 2014

एक गजल




हर शख्स तो बिकता नहीं है
·        राजेश त्रिपाठी
खुद को जो मान बैठे हैं खुदा ये जान लें।
ये सिर इबादत के सिवा झुकता नहीं है।।

वो और होंगे, कौड़ियों के मोल जो बिक गये।
पर जहां में हर शख्स तो बिकता नहीं है।।

दर्दे जिंदगी का बयां कोई महरूम करेगा।
यह खाये-अघाये चेहरों पे दिखता नहीं है।।

पैसे से न तुलता हो जो इस जहान में ।
लगता है अब ऐसा कोई रिश्ता नहीं है।।

जिनके मकां चांदी के , बिस्तर हैं सोने के।
उन्हें इक गरीब का दुख दिखता नहीं है।।

इक कदम चल कर जो मुश्किलों से हार गये।
उन्हें मंजिले मकसूद का पता मिलता नहीं है।।

वो और होंगे जो निगाहों में तेरी खो गये।
जिंदगी के जद्दोजेहद में, प्यार अब टिकता नहीं है।।

मत भागिए दौलत, शोहरत की चाह में।
तकदीर से ज्यादा यहां मिलता नहीं है।।

सुहाने ख्वाब दिखा ऊंची कुरसियों में बैठ गये।
लगता है उनका मजलूम के दर्द से रिश्ता नहीं है।।


यह अंधेरा दिन ब दिन घना होता जा रहा है मगर।
उम्मीद का सूरज हमें अब तलक दिखता नहीं है।।


आइए अब तो हम ही कोई जतन करें।
मंजिलों तक जो ले जाये राहबर दिखता नहीं है।।

आपाधापी मशक्कत में ना यों बेजार हों।
यहां किसी को मुकम्मल जहां मिलता नहीं है।।

चाहे जितने पैंतरे या दांव-पेंच खेले मगर।
किस्मत पे किसी का दांव तो चलता नहीं है।।

चाहे कुछ भी हो हौसला अपना बुलंद रखिएगा।
हौसला ही पस्त हो तो काम फिर बनता नहीं है।।