नदी-खेत-पोखर पर
चिड़िया-सा चहचहा रहा है
यह मंजुल प्रकाश भर
पंखड़ियों को धरा पर
बिखरा रहा है
जाफ़रानी हवाओं-सा
डाल-डाल. पात-पात पर
तितली-सा मंडरा रहा है
वसुधा में कर परिवर्तन
कोमल वत्सल-सा
शांत अविरल-सा
नदी, बादल
समुद्र, पहाड़ पर
ओस कण की
वंदनवार सजाकर
आत्ममुग्ध-सा
चला आ रहा है *
-डॉ. सरस्वती माथुर
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह, उजाले की आभा बिखराती सुंदर रचना..
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