मति गुमान में रहना
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होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
गोकुल कूं तू छोडि कंस के घर काहे कूं जावै
लौटि कंस की नगरी ते तू काली पीली आवै
तेरी फोडूंगो गगरिया,
डालूँ मैं रंग या ही ठाँव री।।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
मलूँ गुलाल अबीर मोहिनी मानि हमारा कहना
कोधी कामी क्रूर कंस के मति गुमान में रहना
लेलूं बाऊ की खबरिया,
डालूँ मैं रंग या ही ठाँव री।।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
ओ मृगनैनी गूँथे बैनी चली कहाँ सिंगार किये
कंचन काया वारी प्यारी मतवारी मदहोश हिये
तेरी रोकि कें डगरिया डालूं मैं रंग या ही ठांव री।।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
मधुवन में मन लगै न तैरो भावै कंस नगरिया
रामचरन इतराय रही तू काहे बोल गुजरिया
लेले हाथ पिचकरिया, डालूँ
मैं रंग या ही ठाँव री।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
+ लोककवि रामचरन
गुप्त
चुनरिया मेरी रंग डारी
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ऐरे होली खेली रे कान्हा ने मेरे संग चुनरिया मेरी रंगि
डारी।।
पिचकारी लयी हाथ साथ में ग्वालन की टोली आयी
गालन मलै गुलाल बोलतौ हौले-से
‘होली आयी’
एरे कान्हा कुंजन में भिगोवै अंग-अंग
चुनरिया मेरी रंगि डारी।।
जिय गोवधर््न गिरवरधरी गैल-गैल
पै खड़ौ मिलै
कबहु चढ़ै कदम्ब की डारन कबहु अटारी चढ़ौ मिलै
एरे नाचु दिखावै रे बजाबै कबहू चंग,
चुनरिया मेरी रंगि डारी।।
कबहु मारै कीच कबहु जि सब के टेसू-पफूल
मलै
होली खेलै कम जिय ज्यादा अंखियन कूं मटकाय मिलै
एरे रामचरन संग में पी आयौ कान्हा भंग,चुनरिया
मेरी रंगि डारी।।
+ लोककवि रामचरन गुप्त
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