लोककवि रामचरन गुप्त की
लघुकथाओं
में
युगबोध
+ डॉ. रामगोपाल
शर्मा
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युगबोध
के
अभाव
की
सर्जना
सामाजिक
सन्दर्भों
से
कटे
होने
के
कारण
साहित्य
के
नाम
पर
शाब्दिक
खिलवाड़
या
कल्पना
के
साथ
मानसिक
अय्याशी
मात्र
होती
है।
ऐसी
रचनाएं
शिल्प
के
धरातल
पर
कसावट
के
कारण
पाठक
या
श्रोताओं
को
कुछ
क्षण
के
लिए
भले
ही
मनोहर
लगें
लेकिन
कभी
स्थायी
प्रभाव
नहीं
छोड़तीं।
इसलिए
स्वयं
भी
स्थायी
नहीं
होतीं।
साहित्य
का
स्थायी
आधार
‘सहितस्य’ भाव
है
और
‘साहित्य’ की
सार्थक
प्रस्तुति
युगबोध
की
गहरी
पकड़
के
अभाव
में
सम्भव
ही
नहीं।
लोककवि
रामचरन
गुप्त
एक
ऐसे
ही
रचनाकार
थे
जो
साहित्य
के
आधारभूत
तत्त्व
युगबोध
के
प्रति
बड़े
सचेत
दिखाई
देते
हैं।
श्री गुप्त
की
रचनाधर्मिता
के
प्रथम
दृष्टि
के
अवलोकन
से
ही
यह
बात
पूरे
विश्वास
के
साथ
कही
जा
सकती
है
कि
उनकी
साहित्यिक
यात्रा
वास्तव
में
युगबोध
पर
उनकी
मजबूत
होती
जाती
पकड़
की
यात्रा
है।
वैसे
वे
यह
मानते
भी
हैं
कि-‘‘ शिल्प
तो
अभ्यास-प्रदत्त
होता
है।’’ हाँ-‘‘राजा
की
सवारी
जब
निकलती
है
तो
बीहड़ों
में
भी
रास्ता
बना
लेती
है।’’
लोक कवि रामचरन गुप्त ने कभी
रास्ते
[ शिल्प] पर
ध्यान
नहीं
दिया।
यह
दूसरी
बात
है
कि
जब-जब
उनके
राजा
[कथ्य] की
सवारी
निकली, बीहड़ों
में
स्वमेव
बहार
आ
गयी।
उनके
लोकगीतों
का
शिल्प
इसी
सौंदर्य
का
साक्षी
है।
लेकिन
उन्होंने
राजा
की
सवारी
के
लिए
सोने
की
सड़कें
बनाने
में
कभी
सायास
अपनी
ऊर्जा
व्यर्थ
नहीं
की।
यह
तथ्य
उनके
रचनाकाल
के
उत्तरार्ध में
लिखी
गयीं
लघुकथाओं
में
स्पष्ट
देखा
जा
सकता
है।
वक्त
के
थपेड़े
खाते-खाते
श्री
गुप्त पूरी
तरह
निढाल, वृद्ध और
लाचार
हो
गये
थे।
न
बहुत
देर
तक
शब्द-संयोजन
कर
सकते
थे
और
न
तेज
आवाज
में
गा
सकते
थे।
हां
गीत
लिखने
के
लिए
उनके
मन
में
बैचनी
लगातार
रहती
थी।
उन
दिनों
लघुकथा
पर
गोष्ठियों
का
दौर
था।
मैं
और
श्री
गुप्त
के
सुपुत्र
रमेशराज
लघुकथा
के
कथ्य
और
शिल्प
पर
विचार
कर
रहे
थे।
श्री
गुप्त
पास
ही
लेटे
हुए
थे।
अचानक
उन्होंने
एक
प्रसिद्ध
कवि
लेखक
की
लघुकथा
को
सुनते-सुनते
हमें
बीच
में
ही
टोका-‘अरे
जेउ
कोई
लघुकथा
है’ और
चुप
हो
गये।
दूसरे
ही
दिन
उन्होंने
दो
लघुकथाएं
लिखकर
हमें
दीं, जो
बाद
में
प्रकाशित
हुईं।
फिर
तो
उन्हें
कम
शब्दों
में
शांति
के
साथ
अपनी
भावनाओं
को
कागज
पर
उतार
देने
का
रास्ता
मिल
गया
था।
उसी
जीवन
के
अंतिम
समय
में
उनकी
दर्जनों
लघुकथाएं
सामने
आयीं, जिनमें
उनका
सुस्पष्ट
सामाजिक
चिन्तन
और
जुझारू
व्यक्तित्व
एकदम
साफ
झलकता
ही
है, सन्
1973 से
कविकर्म
से
विमुख
रचनाकार
की
लघुकथा
के
रूप
में
रचनात्मक
ऊर्जा
का
आलोक
भी
प्रकट
होता
है।
श्री रामचरन
गुप्त
के
जीवन
का
अधिकांश
भाग
घोर
आर्थिक
तंगी
और
बदहाली
में
गुजरा।
ग़रीबी
की
पीड़ा
और
निर्बल
की
वेदना
को
उन्होंने
स्वयं
भोक्ता
होकर
जीया।
साथ
ही
कवि
मनीषी
स्वयंभू
के
स्वाभाविक
स्वाभिमान
ने
उन्हें
परिस्थितियों
से
जूझने
की
प्रेरणा
दी
और
इसी
संघर्ष
में
उन्होंने
नौकरशाही
का
उत्पीड़क
चेहरा
देखा।
नौकरशाहों
और
इस
देश
के
रहनुमाओं
के
दोगले
चरित्र
उनकी
कवि-दृष्टि
से
छुपे
नहीं
रह
सके।
श्री
गुप्त
के
मानस
साहित्य
में
ऐसे
ही
चरित्र
इतनी
गहराई
से
बैठे
हैं
कि
उनकी
समूची
रचनाधर्मिता
चाहे
वह
काव्य
में
हो
या
गद्य, गरीबों
की
वेदना, नौकरशाही
के
उत्पीड़न
और
राजनेताओं
के
शोषण
से
आक्रांत
दिखाई
देती
है।
श्री गुप्त ताले
के
लघु
व्यवसाय
के
रूप
में
अपनी
कड़ी
मेहनत
और
बड़े
व्यवसाइयों
की
मुनापफाखोरी
से
वे
इतने
पीडि़त
नहीं
होते, जितने
बिजली
की
कटौती
करके
सरकारी
मशीनरी
द्वारा
बंद
करा
दी
गयी
मशीनों
को
देखकर
दुःखी
होते
हैं।
छोटे
व्यवसाइयों
की
रोजी-रोटी
की
संचालिका
मशीनों
को
लगातार
बंद
देखकर
वे
इतने
क्षुब्ध
होते
हैं
कि
उनकी
लघुकथा
‘घोषणा’ का
एक
पात्र
अघोषित
बिजली
कटौती
को
एक
अधिकारी
द्वारा
घोषित
ठहराने
के
विरोध
में
गाली-गलौज
पर
उतर
आता
है-‘‘ सालो! यह
और
कह
दो
कि
अगर
हम
बिल्कुल
बिजली
न
दें
तो
जनता
यह
समझ
ले
कि
अभी
बिजली
का
अविष्कार
ही
नहीं
हुआ
है।’’
‘बिल साथ
रखो’ लघुकथा
में
सेलटैक्स
अधिकारी
द्वारा
एक
चूड़ी
वाले
की
चूडि़यों
को
माल
देखने
के
बहाने
डंडे
से
तोड़
देना
और
फूट-फूट
कर
रोते
चूड़ी
वाले
को
यह
कहकर
झिड़क
देना
कि-‘‘ आइन्दा
बिल
अपने
साथ
रखना।’’ एक
ओर
जहां
सेलटैक्स
अधिकारी
के
प्रति
घृणा
घनीभूत
करता
है, वहीं
चूड़ी
वाले
लाचार
गरीब
के
प्रति
करुणा
से
सराबोर
कर
देता
है।
‘खाना’ लघुकथा
में-‘‘विदेशी
तोपों
से
घबराने
की
क्या
जरूरत
है, हमारे
मंत्री
तो
तोपों
को
ही
खाते
हैं।’’ कहकर
घोटालों
पर
व्यंग्य
कसा
गया
है।
‘ग्राहक’ लघुकथा
में-‘‘रे
भूरख
किलो
में
नौ
सौ
ग्राम
तो
पहले
ही
तोले
हैं
अब
और
क्या
कम
करें’ कहकर
लालाओं
की
लूट-खसोट
या
घटतौली
की
मानसिकता
पर
करारे
व्यंग्य
किये
गये
हैं।
‘इमरजैंसी’ लघुकथा
पुलिस
के
आतंक
और
चाहे
जिसको
‘इमरजैंसी
है’ कहकर
बंद
कर
देने
की
दूषित
मनोवृत्ति
पर
आघात
करती
है।
लघुकथा ‘रिमोट
कंट्रोल’ में
मरीज
के
पेट
में
कैंची
छोड़
देने
की
एक
डाक्टर
की
लापरवाही
को
व्यंग्यात्मक
रूप
में
जनता
के
सामने
रखती
है।
उक्त
सभी
लघुकथाएं
लेखक
के
साथ घटी
अथवा
सामने
घट
रही
घटनाओं
के
प्रति
क्षुब्ध्
मन
की
प्रतिक्रियाएं
हैं।
लोककवि
रामचरन
गुप्त
की
लघुकथाएं
कुत्सित
सामाजिक
व्यवस्था
के
प्रति
क्षुब्ध
मन
की
ईमानदार
प्रतिक्रियाएं
हैं, जो
व्यंग्य
के
माध्यम
से
कुव्यवस्थाओं
पर
आघात
और
एक
निरापद
समाज
की
स्थापना
को बेचैन दिखायी देती हैं ।
डॉ. रामगोपाल शर्मा
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित