ग़ौर से देखो गुलशन में
बयाबान का साया है ,
ज़ाहिर-सी बात है
आज फ़ज़ा ने बताया है।
इक दिन मदहोश हवाऐं
कानों में कहती गुज़र गयीं,
उम्मीद-ओ-ख़्वाब का दिया
हमने ही बुझाया है।
आपने अपना खाता नम्बर
विश्वास में किसी को बताया है
तभी तो तबादला होकर दर्द
आपके हिस्से में आया है।
दर्द अंगड़ाई ले लेकर
जाग उठता है पहर-दर-पहर
कुछ ब्याज का हिस्सा भी
बरबस आकर समाया है।
आपके तबस्सुम में रहे
वो रंग-ओ-शोख़ियां अब कहाँ ?
उदास तबियत का
दिन-ओ-दिन भारी हुआ सरमाया है।
बिना अनुमति के खाते में
न कुछ जोड़ा जाए
अब जाकर राज़दार का पता
बैंक से की इल्तिजा में बताया है।
#रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी रचना बहुत ही सराहनीय है ,शुभकामनायें ,आभार
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय ध्रुव जी रचना की सराहना के लिए।
हटाएंहार्दिक आभार आदरणीय ध्रुव जी रचना को मान देने और पाँच लिंकों का आनन्द में शामिल करने के लिए के लिए।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी रचना को चर्चामंच के ज़रिये अधिक से अधिक सुधि पाठकों तक पहुँचाने के लिए।
जवाब देंहटाएंवाह ! बेहतरीन
जवाब देंहटाएंवाह!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर... सार्थक अभिव्यक्ति...
लाजवाब...
दर्द अंगड़ाई ले लेकर
जाग उठता है पहर-दर-पहर
कुछ ब्याज का हिस्सा भी
बरबस आकर समाया है।
वाह ! क्या बात है ! बेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय ! बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंइक दिन मदहोश हवाऐं
जवाब देंहटाएंकानों में कहती गुज़र गयीं,
उम्मीद-ओ-ख़्वाब का दिया
हमने ही बुझाया है।
बेमिसाल बेमिसाल रविन्द्र जी। बेहद दिलकश। विरल दृष्टि। समृद्ध चिंतन। सादर