माना
नारी अंततः नारी ही होती है.....
+रमेशराज
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किसी भी काव्य-रचना की उपादेयता इस बात में निहित होती
है कि उसके प्रति लिये गये निष्कर्ष वैज्ञानिक परीक्षणों पर आधारित हों। वैज्ञानिक
परीक्षणों से आशय, उसके कथ्य
और शिल्प सम्बन्धी चरित्र को तर्क की कसौटी पर कसना,
जांचना, परखना
होना चाहिए। उक्त परीक्षण के अभाव में जो भी निष्कर्ष मिलेंगे,
वे साहित्य में व्यक्त किये गये मानवीय पक्ष का ऐसा
रहस्यवादी गूढ़ दर्शन प्रस्तुत करेंगे जिसमें कबीर या कबीर जैसे रचनाधर्मिता का कोई
महत्व नहीं होगा। अतार्किक दर्शन से चिपके लोग यदि ऐसे रचनाकारों को सरकार और सुविधाभोगी
कवियों की संज्ञाओं से विभूषित करने लग जायें तो इसमें अचरज जैसी कोई बात नहीं होनी
चाहिए। क्योंकि जिन लोगों के लिये उनकी ‘निजी
समझ’ भी एक रहस्य बनी हुई है,
वे उन परम्पराओं से क्यूं कर कटना चाहेंगे,
जिनके तहत पूरे समाज को उस ‘सच’
से काटकर अलग कर दिया गया है या किया जा रहा है,
जिसे ‘वैज्ञानिक
सच’ कहा जाता है।
यदि हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किया जाये तो यह
बात एकदम साफ हो जाती है कि उर्दू, हिन्दी
की ही एक शैली या बोली मात्र है, जिसमें
अरबी-फारसी के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग मिलता है। डॉ. कमल नारायण टंडन के अनुसार-‘‘फारसी
तुर्की आदि हिन्दी से अधिक जटिल थीं। इसलिए हिन्दुओं में इन भाषाओं के सीखने के शताब्दियों
पहले, मुसलमानों ने हिन्दी बोलना
सीख लिया था। वे इसमें कविता भी करने लगे थे... उर्दू कभी किसी भाषा से नहीं निकली
बल्कि... हिन्दी का ही नाम उर्दू रख लिया गया।’’ उन्होंने
अपनी इस बात को पुष्ट करते हुए आगे लिखा है-‘‘ उर्दू
में सब क्रियाएं हिन्दी की ही हैं... केवल संज्ञा-शब्दों के आधार पर कोई भाषा नयी नहीं
कही जा सकती... उदाहरण के लिये अगर उर्दू-फारसी पढ़ा व्यक्ति कहता है-‘‘
मैं कलकत्ते से रवाना हुआ और जुमा को सबेरे की गाड़ी
से इलाहाबाद पहुंच गया, मरीज को देखा
उसके जीने की उम्मीद नहीं है’’ तो
इसी बात को एक ग्रेजुएट इस तरह बोलता है-‘‘ मैं
कलकत्ता से चला, फ्राइडे को
मार्निंग की ट्रेन से इलाहाबाड पहुंचा। पेशन्ट को देखा,
वह होपलेस कंडीशन में है।“ यदि उक्त मुसलमान की भाषा
का एक अलग नाम उर्दू रखा जाएगा तो उस ग्रेजुएट की भाषा का क्या नाम होगा?
हम तो दोनों को हिन्दी ही मानेंगे। जब हिन्दी-उर्दू
का व्याकरण एक है, तब उर्दू
स्वतन्त्र भाषा कैसे हो सकती है।’’
[उर्दू साहित्य का इतिहास, ले.-डॉ. क.ना.
टंडन]
जब यह भाषा वैज्ञानिक कटु सत्य है कि उर्दू हिन्दी ही
है, ऐसे में ग़ज़ल के साथ हिन्दी
विशेषण लगाकर उसे ‘हिन्दी ग़ज़ल’
बनाना, क्या
अज्ञानता का परिचायक नहीं? साथ ही हमारे
साम्प्रदायिक होने का द्योतक भी। पूर्व में हिन्दी और उर्दू के नाम पर हमारे साहित्यकारों
ने भाषाई अलगाव की नीति अपनाकर जिस तरह की साम्प्रदायिकता खड़ी की थी,
अफसोस यह है कि उसी साम्प्रदायिकता की पहल आज ‘हिन्दी
ग़ज़ल’ के नाम से की जा रही है।
साहित्यकारों में यह संकीर्णता या साम्प्रदायिकता इस
कदर हावी है या रही है कि अरबी-फारसी के शब्दों से युक्त कबीर की रचना ‘हमन
है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी
क्या’ तो ग़ज़ल का श्रेणी में रख
दी गयी, जबकि ठीक इस तरह के तथाकथित
ग़ज़ल शैली के पद, पद ही माने
गये। इसी प्रकार आज तक उक्त शैली से युक्त तुलसी, सूर,
मीरा, विद्यापति,
घनानंद केशवदास आदि के सवैया,
कवित्त, घनाक्षरी
आदि छंद ग़ज़ल नहीं स्वीकारे गये।
यदि कोई इन्हें गीतात्मक शैली के आधार पर ग़ज़ल से अलग करता है तो यही
गीतात्मक शैली आज तथाकथित ‘हिन्दी ग़ज़ल’
में भी दृष्टिगोचर हो रही है। ऐसे में क्या कोई यह बताने
का कष्ट करेगा कि यह ‘हिन्दी ग़ज़ल
क्या है और इसका शिल्प किस प्रकार का है? क्या
हिन्दी ग़ज़ल के पितामह दुष्यन्त से लेकर आज तक इसमें अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार
नहीं है? यदि है तो इस ‘हिन्दी
ग़ज़ल’ को भाषा वैज्ञानिक कसौटी पर
क्यों नहीं कसा जा रहा है?
तेवरी को ग़ज़ल कहने वाले रचनाकार अपने पक्ष में कोई
तर्क भी प्रस्तुत करेंगे या यूं ही तेवरी या तेवरीकारों को गरियाते रहेंगै। अगर यूं
ही अतार्किक बहसें होती रहीं और यह गालीगलौज का सिलसिला जारी रहा तो ऐसे में श्री बाबू
राम वर्मा की बात कितनी बात सार्थक महसूस होती है कि -‘
कुछ लोग तेवरी को ग़ज़ल ही मानें तो क्या करोगे?
कैसे और किस-किस से लड़ोगे?
उन्हें कैसे समझाओगे कि ‘नयी
विधाएं समय की मांगानुसार बनती रहती है।’
साहित्यिक और सामाजिक चरित्र की पहचान के लिए हमें अपनी
समझ तो साफ ही करनी पड़ेगी साथ ही इस सत्य को मानना ही होगा कि माना आदमी अन्ततः आदमी
है, फिर भी उसकी पिता,
पुत्र, पति,
पूंजीपति, सर्वहारा,
राजा, प्रजा,
नेता, मंत्री,
शोषित, शोषक
आदि के रूप में कहीं न कहीं सार्थक पहचान निहित है। ऐसा न होता तो आदमी को इन रूपों
में प्रस्तुत करने की क्या आवश्यकता थी? ‘आदमी
अन्ततः आदमी है’ से अगर ग़ज़लगो
यह कहना चाहते हों कि कविता अन्ततः ग़ज़ल है तो हमारा ऐसे लोगों से विनम्र निवेदन है
कि पहले वे समाज और साहित्य का अध्ययन करें। तब शायद वह यह बात समझ सकें कि-
किताब
अन्ततः किताब ही है लेकिन उसे पत्रिका, संग्रह,
स्मारिका, वेद,
गीता, पुराण,
कुरान आदि संज्ञाओं से विभूषित करना उसकी चारित्रिक
पहचान को दर्शाना है।
पेड़ अन्ततः पेड़ ही है फिर भी उन्हें जड़,
पत्ती, शाखा,
फूल, से
लेकर आम, नीम,
बबूल आदि खानों में बांटना जरूरी है।
रस [भाव] अन्ततः रस ही है,
किन्तु उसका अनुभव शृंगार,
वात्सल्य, वीभत्स,
भक्ति आदि रूपों में किया जाता है।
विचार अन्ततः विचार ही होते हैं लेकिन उनकी अभिव्यक्ति
नैतिक, अनैतिक,
दार्शनिक, आध्यात्मिक,
राष्ट्रीय, अराष्ट्रीय
आदि रूपों में होती है।
समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र,
मनोविज्ञान, दर्शन
शास्त्र का मूल आधार मानव व्यवहार ही है फिर भी उसमें सीमा-रेखा खींचा जाना जरूरी है।
नारी अन्ततः नारी ही है फिर भी उसे मां,
बहिन, बेटी,
बहू, पत्नी,
रखैल, नर्तकी,
वीरांगना के रूप में पुकारना नारी के अस्तित्व को खंड-खंड
करना नहीं है बल्कि उसकी एक सार्थक पहचान बनाना है। यदि इस सार्थक पहचान बनाने वाले
व्यक्ति या रचनाकार को ये ग़ज़लगो अपाहिज, महत्वाकांक्षी,
गैर जिम्मेदार, नपुंसक
आक्रोश का शिकार, साजिशी और
शातिर मानते हैं तो ऐसे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग मादामकामा,
दुर्गा भाभी, कनकलता
जैसे देशभक्तों और विरहाग्नि में जलती लैला, शीरी,
हीर जैसी प्रेमभक्तों के चेहरों के ओज और अभिव्यक्ति
को एक ही तरफ आकना चाह रहे हैं।
ग़ज़लकारों को यदि उन्हें कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई
और रानी लक्ष्मीबाई में कोई अन्तर नजर आता है? तो
उन्हें वैश्या और वीरांगना में अन्तर स्पष्ट करने में शर्म क्यों महसूस होती है,
दम क्यों घुटता है?
यदि
‘ऐसे रचनाकार इस सार्थकता को
कोई नाम नहीं दे पाते हैं तो उन्हें एक खालिस्तानी और एक हिन्दुस्तानी में भला अन्तर
नजर आ ही कैसे सकता है? ग़ज़लकारों
को यह समझाना भी निस्संदेह कठिन कार्य है कि- एक कवि जब आलोचना के क्षेत्र में उतरता
है तो उसे उसकी रचनात्मक विशेषता के आधार पर आलोचक पुकारा जाना बेहद जरूरी है।
विद्यार्थी विद्या ग्रहण करने के उपरान्त जब नौकरी या
व्यवसाय के क्षेत्र में उतरता है तो उसे विद्यार्थी नहीं,
कर्मचारी या व्यावसायी कहा जाता है।
श्री शिव ओम अम्बर के अनुसार-‘ग़ज़ल
अब किसी शोख हथेली पर अंकित मेंहदी की दंतकथा से हटकर युवा आक्रोश की मुट्ठी में थमी
मशाल है।’
क्या
मेंहदी रची हथेली और युवा आक्रोश की मुट्ठी में थमी मशाल में कोई अन्तर नहीं होता?
यदि ग़ज़ल मादक भंगिमाओं से रिझाने वाले,
मदिरापान कराने वाले,
रतिक्रियाओं में डूब जाने वाले अपने चरित्र को त्यागकर
एक समाज सेविका की भूमिका निभा रही है तो इसे नर्तकी या वैश्या की जगह समाज सेविका
कहने में इन रचनाकारों को शर्म क्यूं आती है?
कहीं तेवरी का विरोध करने वाले रचनाकार प्रेमी को बाहों
में जकड़ने के जोश को आक्रोश तो नहीं समझ बैठे है?
समकालीन
हिंदी ग़ज़ल का यदि कोई प्रारूप है तो बताया क्यों नहीं जा रहा है?
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+रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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