विचार और रस [ तीन ]
+रमेशराज
------------------------------------------------------------------------------
रसाचार्यों द्वारा गिनाए विभिन्न प्रकार के रसों का
रसात्मकबोध अंततः इस तथ्य पर आधारित है कि इन रसों की आलंबन सामग्री किस प्रकार की
है और वह आश्रयों को किस तरीके से उद्दीप्त करने का प्रयास कर रही है। आलंबन विभावों
का आश्रयों को उद्दीप्त करने का तरीका ही, उनके मन में विभिन्न प्रकार के रसों
का बोध कराता है।
आलंबन एवं उद्दीपनविभाव का जो परंपरागत ताना-बाना तैयार
किया गया है, वह अधूरा इसलिए है कि नायक और नायिका के गुण-धर्म तथा इनसे अलग प्रकृति
के जो गुण-धर्म रस-सामग्री के रूप में रसाचार्यों द्वारा बताए गए हैं, वह गुण-धर्म ही रसोद्बोधन के मूल आधार
हैं, न कि नायक और नायिका। बात अटपटी अवश्य लग सकती है लेकिन यह एक ऐसी वास्तविकता
है जिसको समझे बिना रसात्मकबोध के वैज्ञानिक स्वरूप को किसी भी हालत में नहीं समझा
जा सकता है। इसलिए विभिन्न रसों पर चर्चा करने से पूर्व यह समझ लिया जाये कि जिस आश्रय
में जिस प्रकार का रस बनता है, उसमें आलंबन और उद्दीपनविभाव के वे कौन-से गुण-धर्म रहे हैं, जो आश्रय को उस रसदशा तक ले जाने में
सहायक हुए हैं?
रस में विचारणीय क्या है-आलंबन या आलंबन के गुणधर्म ? उद्दीपन विभाव या उसके गुणधर्म ? इसकी व्याख्या के लिए हम कुछ रसों
की, रससामग्री पर मनोवैज्ञानिक रूप से विचार करते हैं-
[ क ] शृंगार रस-
शृंगार रस की रस-सामग्री के रूप में [ परंपरागत चिंतन के अनुसार ] नायक
और नायिका आलंबन होते हैं। लेकिन आलंबन विभाव के अंतर्गत इनकी उत्तम प्रकृति, गुणरूप संपन्न्ता, चिरसाहचर्य एवं श्रेष्ठता के जो गुण-धर्म
जोड़े गए हैं तथा उद्दीपनविभाव के अंतर्गत
नायक-नायिका की वेशभूषा, शारीरिक चेष्टाएँ आदि आलंबनगत-उद्दीपनविभाव के रूप में तथा ऋतुसौंदर्य, नदी-तट, चंद्रज्योत्स्ना, वसंत, एकांत, उपवन, कविता, मधुर संगीत, पक्षियों का कलरव आदि प्रकृतिगत उद्दीपनविभाव
के रूप में दर्शाए गए हैं | दरअसल ये सब आलंबन या उद्दीपन के गुण आलंबनों को आश्रय
के रूप में जब रति की अवस्था में ले जाते हैं तो इस रति के निर्माण के पीछे जो विचार
कार्य करता है, उसके अंतर्गत नायिका के प्रति नायक में रति इस कारण जागृत होती है, क्योंकि नायक यह निर्णय ले चुका होता
है कि नायिका प्रकृति श्रेष्ठ, गुणसंपन्न, उत्तम है तथा वह अपने हाव-भावों, वेशभूषा से यह संकेत दे रही है कि
चांदनी रात है, नदी का किनारा है, पंछियों का कलरव, एकांत, ऋतु-सौंदर्य मन को मादक बनाए जा रहा है, ऐसे में आओ स्पर्श, आलिंगन और चुंबन आदि का सुख भोगें।
नायिका की मोहक भंगिमाओं की संकेतक्रिया से नायक-नायिका की मनःस्थितियों को भाँपकर, ऐसे में यह निर्णय लेता है कि सारी
स्थिति-परिस्थिति उसके पक्ष में है और हर तरह से प्रेम को सुरक्षा प्रदान करने वाली
हैं, अतः वह नायिका का सामीप्य-सुख भोगने के लिए बेचैन हो उठता है। नायिका
के साथ नायक का यह सामीप्य ही उसमें रति को जागृत करता है, जिसकी निष्पत्ति शृंगार के रूप में
होती है। आश्रय के रूप में नायिका के प्रति भी उपरोक्त वैचारिक प्रक्रिया उसे रति से
सिक्त करती है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि रस-सामग्री के रूप में रसाचार्यों
ने चिरसाहचर्य को भी रखा है। यह चिरसाहचर्य ही वह वैचारिक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत नायक-नायिका एक-दूसरे
के प्रति प्रेमी-प्रेमिका बनने की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते हैं। प्रेमी-प्रेमिका
बनने की यह कसौटी रागात्मक संबंधों की प्रगाढ़ता के बिना किसी प्रकार संभव नहीं। रागात्मक
संबंधों की यह प्रगाढ़ता निस्संदेह उस विचार
के कारण जन्म लेती है जिसमें एक-दूसरा, एक-दसरे के आत्म को संतुष्टि और सुरक्षा
प्रदान करने का निश्छल और भरसक प्रयास करता है।
इस प्रकार रति संबंधी उक्त
व्याख्या से जो तथ्य उभरकर सामने आते हैं, उन्हें संक्षिप्त रूप में इस प्रकार
व्यक्त किया जा सकता है-
1. नायक और नायिका में रति चिरसाहचर्य से रति इस कारण पैदा होती है, क्योंकि नायक और नायिका लगातार यह
विचार करते हैं कि-‘‘ एक-दूसरे का सामीप्य सुख भोगा जाए।’’ ‘सामीप्य सुख’ का यह विचार
ही उन्हें एक-दूसरे के प्रति लगातार आकर्षित करता है।
2. नायक-नायिका का चिरसाहचर्य एक-दूसरे के मन में यह धारणाएँ निर्धारित
कर देता है कि-‘‘जिसके साथ वह प्रेम-संबंध स्थापित करने जा रहे हैं या कर रहे हैं, वह श्रेष्ठ प्रकृति, उत्तम गुणधर्म वाला है, जो प्रेम में विश्वासघात नहीं कर सकता।
उसका प्रेम सच्चा, पवित्र और निश्छल है।’’
3. नायक-नायिका का प्रेम इस विचार
के द्वारा भी तय होता है कि वे जिसे प्रेम कर रहे हैं, उसके साथ चुंबन-विहँसन-आलिंगन [ चाहे
चोरी-छुपे ही सही ] असामाजिक नहीं है।’’ अर्थात् उन दोनों के बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं, जो बहिन-भाई, पिता-पुत्री, माँ-बेटे के पावन संबंधों को अपराधबोध से ग्रस्त कर सके।
4. काव्य के नायक-नायिका का परकीया-प्रेम, अधिकांशतः उन स्थलों पर उभरा है जहाँ
चांदनी रात, नदी का किनारा, पक्क्षियों का कलरव, अर्थात् कुल मिलाकर सामाजिक एकांत हो। इसका कारण भी नायक-नायिका के वे
निर्णय हैं, जिनके तहत वे निर्विघ्न, निर्द्वन्द्व होकर रतिक्रिया कर सकें।
कुल मिलाकर भारतीय काव्य में
शृंगाररस की निष्पत्ति नायक-नायिका के उस स्वरूप में निर्धारित है, जिसमें नायक-नायिका के शारीरिक भोग
की तीव्र उत्कंठा की शांति, समाज से छुपकर ऐसे स्थलों पर प्राप्त होती है, जहाँ उन्हें रतिक्रिया के समय किसी
भी प्रकार की असुविधा , असुरक्षा अनुभव न हो।
इस प्रकार शृंगाररस का सारा-का-सारा
प्रसंग इस बात पर निर्भर है कि नायक और नायिका चोरी-छुपे इंद्रिय भोग का सुख लूटें।
इंद्रिय भोग के सुख लूटने के समय नायिका के पिता, भाई या माँ यकायक यदि उस स्थल पर उपस्थित
हो जाएँ तो सारा-का-सारा शृंगाररस भय, जुगुप्सा, लज्जा में तब्दील में हो जाता है।
ऐसा नायक-नायिका के मन में आए इस विचार के कारण होता है कि वे माता-पिता के सामने सामाजिक-अपराध
करते पकड़े गए हैं। अब उनकी खैर नहीं।’’
उक्त उदाहरणों से यह तो स्पष्ट
है ही कि मन में जिस प्रकार का विचार उपस्थित होता है, उसके अनुसार ही उनमें रस की स्थिति
देखी जा सकती है। ठीक इसी तरह वियोग शृंगार के अंतर्गत नायक और नायिका में मिलन की
उत्कंठा तो तीव्र रहती है, लेकिन ‘मेरा प्रेमी मुझसे बिछुड़ गया है और अब न जाने कब मिलेगा?’ का विचार उनके नयनों में अविरल अश्रुधार, चेहरे पर मलिनता, अंग-प्रत्यंग में जड़ता और मन में
दुख का समावेश बनाए रखता है।
अतः काव्य का यह शृंगारिक संयोग और वियोगपक्ष मात्र
आलंबन या उद्दीपनविभाव के ही द्वारा तय नहीं किया जा सकता, इसके लिए आवश्यक तत्त्व
जहाँ नायक-नायिका के गुणधर्म हैं, वही दूसरी ओर उद्दीपन की गुणधर्मिता भी रतिक्रिया
को रसाभास या विपरीत रस में तब्दील कर सकती है। जो नायक-नायिका को तरह-तरह से प्रताडि़त
करता हो, यातनाएँ देता हो, उन दोनों के बीच रति का चरमोत्कर्ष शायद ही देखने को मिले। ठीक इसी प्रकार
चाँदनी रात, पक्षियों के कलरव और एकांत के बीच यदि कोई प्राकृतिक प्रकोप पैदा हो जाए
तो नायक-नायिका की रति भयानक रस में बदल जाएगी।
[ ख ] अन्य रस-
शृंगार रस के विवेचन के उपरांत यदि हम रौद्ररस का विवेचन करें तो नायक
में स्थायीभाव क्रोध तभी जागृत होता है जबकि वह विचार करता है कि ‘‘उसके आलंबनविभाव
के रूप में जो व्यक्ति उसके सम्मुख है, वह उसे किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाने
के लिए उद्यत है। यदि इसका विनाश नहीं किया गया तो यह मुझे [ नायक को ] खत्म कर सकता
है।’’ यह स्थिति बहुध युद्ध के लिये प्रेरित करती है।
ठीक इसी प्रकार जब वीर नायक
यह अनुभव करता है कि उसके समक्ष एक दीन, दुःखी व्यक्ति या व्यक्ति समूह सहायता
के लिए चीख रहा है तो नायक यह विचार कर कि ‘दीनों पर दया करना तो वीरों का धर्म है’, सहायता के लिए उत्साहित हो उठता है।
नायक के मन में आया यह उत्साह उसकी वीरता का ही परिचायक है, जिसमें वह दीन और दुःखी व्यक्तियों
को बचाने, उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए अपने प्राण तक संकट में डाल देता है।
नायक जब यह विचार करता है कि
‘‘उसके समक्ष कोई भयंकर वस्तु या व्यक्ति, शत्रु अथवा हिसंक प्राणी, भूत, प्रेतादि उपस्थित है, जिससे वह अपनी सुरक्षा नहीं कर सकता, किसी भी क्षण उसका विनाश हो सकता है’’
तो वह भय से ग्रस्त हो जाता है, जिसका चरमोत्कर्ष भयानक रस के रूप में उसे चिंता, दैत्य, त्रास, मूच्र्छा, आवेग, संभ्रम, शंका आदि से सिक्त कर सकता है।
अद्भुत रस के अंतर्गत आलंबन
एवं उद्दीपनविभाव के गुण-धर्म अद्भुत, अलौकिक, असाधरण, अवश्य होते हों, लेकिन उन्हें देखकर नायक के मन में
किसी भी प्रकार की असुरक्षा या विनाश के विचार जन्म नहीं लेते, अतः नायक या आश्रय सिर्फ आश्चर्य या
विस्मय के भाव या उद्बोधित होते हैं, जिसके कारण आलंबनविभाव के प्रति वह
अद्भुत रस से सिक्त हो जाते हैं।
आचार्य भरतमुनि द्वारा बताए
गए अन्य रसों का भी यदि हम वैचारिक विवेचन करें तो सारे-के-सारे रसोद्बोधन के पीछे
वस्तुओं या व्यक्तियों के गुणधर्म ही अपनी अहम भूमिका निभाते हैं।
आलंबन या उद्दीपनविभाव के गुण-धर्म को आश्रय जिस प्रकार
के अर्थ देते जाते हैं, आश्रयों में उसी प्रकार के रस की निष्पत्ति होती चली जाती है।
रस निष्पत्ति की इन विभिन्न
स्थितियों को समझाने के लिए हम रामायण के पात्र राम को आलंबनविभाव के रूप में ले तो
उनका बाल्यकाल आश्रय पिता, दशरथ व माता कौशल्या में जहाँ वात्सल्य रस की निष्पत्ति करता है, वहीं राम जब वनवास को जाते हैं तो
माँ कौशल्या, पिता दशरथ शोक से ग्रस्त हो जाते हैं। राम जब सुग्रीव-हनुमान आदि के समक्ष
मधुर , श्रेष्ठ, मानवीय और प्रभुसमान व्यवहार करते हैं तो सुग्रीव-हनुमान आदि में भक्ति
जागृत होती है, जबकि रावण के विनाश के लिए जब इन्हीं भक्तों को प्ररित करते हैं तो भक्तों
में वीररस की निष्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार यह तथ्य सरलता से समझाया जा सकता है
कि आलंबनविभाव किसी भी प्रकार के रस के निर्माण में योगदान नहीं देता, योगदान देते हैं तो आलंबनविभाव के
गुण-धर्म, जिनसे अपने निर्णयों के अनुसार कोई भी आश्रय विभिन्न प्रकार के रसों से
सिक्त होता है।
---------------------------------------------------------------------
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
स्वागत है आप का इस ब्लौग पर, ये रचना कैसी लगी? टिप्पणी द्वारा अवगत कराएं...