काव्य
में विचार और ऊर्जा
+रमेशराज
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डॉ. आनंद शंकर बापुभाई ध्रुव अपने ‘कविता’ शीर्षक
निबंध में कहते हैं कि-‘जिस कविता में चैतन्य नहीं है अर्थात् जो वाचक को केवल किन्हीं
तथ्यों की जानकारी मात्र प्रदान करती है, परंतु
आत्मा की गहराई में पहुँचकर उद्वेलन नहीं करती अथवा चेतना की घनता व समत्व उत्पन्न
नहीं कर सकती, वह कविता
हो ही नहीं सकती। ऐसी जड़ कविताएँ भूगोल, इतिहास
अथवा पफार्मूला की संज्ञा पाने योग्य हैं। ‘जानेवरी जाण जो फेब्रुआरी होय अर्थात् जनवरी
जानिए पुनि फरवरी होय’ यह कविता नहीं है,
परंतु ‘सहु चलो जीतवा जंग ब्यूगलो वागे’ अर्थात् सब
जंग जीतने चलो, बिगुल बज
रहे हैं’-यह कविता है।’’1
डॉ. ध्रुव ने कविता के कवितापन को तय करने के लिए कविता के जिस चैतन्यस्वरूप
का जिक्र किया है, वह चेतनता,
वाचक अर्थात् आश्रय की आत्मा की गहराई में उद्वेलन के रूप में पहचानी जा सकती है। प्रश्न
यह है कि कविता में ऐसा क्या तत्त्व होता है जो पाठक को उद्वेलित करता है?
इस उद्वेलित करने वाले तत्त्व का स्वरूप क्या है?
भूगोल, इतिहास
अथवा फार्मूला की संज्ञा पाने वाली कविता जड़ क्यों होती है?
इन सारे प्रश्नों का समाधान एक ही है कि कविता के माध्यम
से पाठक या आश्रय के मन को किसी न किसी तरह ऊर्जा उद्वेलित करती है। बिना ऊर्जा के
पाठक के मन में किसी भी प्रकार का उद्वेलन संभव नहीं,
यह एक वैज्ञानिक प्रामाणिकता है। किसी भी प्रकार के
कार्य को कराने की क्षमता का नाम चूंकि ऊर्जा है, अतः
सोचने का विषय यह है कि वह ऊर्जा काव्य या कविता से किस प्रकार प्राप्त होती है?
इसका उत्तर यदि हम डॉ. ध्रुव के ही तथ्यों में खोजें तो भूगोल,
इतिहास और फार्मूला की संज्ञा पाने वाली ‘जनवरी जानिए
पुनि फरबरी होय,’ पंक्तियाँ,
इसलिए कविता नहीं हो सकतीं,
क्योंकि इसमें पाठक के मन को उद्वेलित करने की क्षमता
नहीं है। या रसाचार्यों के मतानुसार कहें तो इसके द्वारा पाठक के मन में किसी भी प्रकार
की भावात्मकता उद्बुद्ध नहीं होती। अर्थ साफ है कि पाठक के मन में भाव-निर्माण की प्रक्रिया,
ऊर्जा के निर्माण की प्रक्रिया होती है। क्योंकि जब
तक पाठक के मन में किसी कविता के पाठन से कोई भाव नहीं बनता,
तब तक उसकी शारीरिक क्रियाएँ [ अनुभाव ] जागृत नहीं
होतीं। क्रोध के समय शत्रु पर प्रहार करना, रति
में चुंबन, विहँसन,
आलिंगन तथा दया में संकटग्रस्त व्यक्ति या लोक या बचाने
या सहायता करने की क्रियाएं भाव या ऊर्जा के द्वारा ही संपन्न होती हैं। अतः ‘जनवरी
जानिए पुनि फरबरी होय’ कविता इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि
इसके द्वारा पाठक के मन में किसी भी प्रकार के भाव या ऊर्जा के निर्माण की संभावना
नहीं, जबकि ‘सब जंग जीते चलो,
बिगुल बज रहे हैं’ को कविता की श्रेणी में इसलिए रखा
जा सकता है क्योंकि यह पंक्तियाँ सामाजिक को इस तथ्य से अवगत करा रही हैं कि युद्ध
का समय हो गया है, बिगुल बज
रहे हैं और जंग को जीतना है।’’ उक्त कविता से पाठक के मन में पहुँचा ‘ जंग जीतने का
विचार’ पाठक में साहस का संचार करेगा। पाठक के मन में आया यह साहस का भाव,
ऊर्जा के रूप में पाठक के मन को उद्वेलित कर डालेगा।
डॉ. ध्रुव के उपरोक्त तथ्यों की इस मनौवैज्ञानिक
व्याख्या से निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-
1.
किसी भी कविता को कविता तभी माना जा सकता है जबकि वह पाठक को कुछ सोचने-विचारने के
लिए मजबूर कर सके। इस तथ्य को हम इस प्राकर भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि कविता पाठक
के मन पर एक ऐसे बल का कार्य करती है, जिसके
द्वारा उसके मन में ऊर्जा का समस्त जड़स्वरूप, गतिशीलस्वरूप
में तब्दील हो जाता है। [ ऊर्जा के समस्त जड़स्वरूप से यहाँ आशय उन विचारों,
भावों एवं स्थायीभावों से है,
जो काव्य-सामग्री के वाचन से पूर्व अचेतन अवस्था में
आश्रयों के मस्तिष्क में रहते हैं। ]
2.
काव्य-सामग्री के वाचन या आस्वादन के समय पाठकों के मन में जब विभिन्न प्रकार के विचार
उत्पन्न होते हैं तो वह विचार ही पाठक के मन को विभिन्न प्रकार से ऊर्जस्व बनाते हैं।
अतः यह भी कहा जा सकता है कि विचारों से उत्पन्न ऊर्जा का नाम ही भाव है या
भाव, विचारों से जन्य एक ऊर्जा है।
3.
इस निष्कर्ष से यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि काव्य जब पाठक के मन पर बल का कार्य
करता है तो पाठक उस बल के आधार पर कुछ निर्णय लेता है। पाठक द्वारा लिए गए इस निर्णय
के अनुसार ही उसके मन में विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं का निर्माण होता है,
जिन्हें भाव कहा जाता है। चूंकि ऊर्जा अर्थात् भावों
का प्रकटीकरण अनुभावों अर्थात् आश्रय के क्रियाकलापों में होता है अतः यहाँ यह कहना
भी अतार्किक न होगा कि अनुभाव शक्ति के द्योतक होते हैं,
क्योंकि विज्ञान के अनुसार शक्ति से आशय होता है-कार्य
करने की दर।
डॉ. ध्रुव के तथ्यों के सहारे निकाले गए उक्त निष्कर्षों
का आधार चूंकि काव्य चेतनामय होना है, अतः
यह बताना भी जरूरी है कि काव्य की सारी की सारी चेतना जहाँ पाठकों को ऊर्जस्व बनाती
है, वहीं काव्य का चेतनामय स्वरूप
भी पूर्णतः गतिशील ऊर्जा या भाव का क्षेत्र होता है। काव्य में यह गतिशील ऊर्जा हमें
आलंबन और आश्रय दोनों ही स्तरों पर देखने को मिलती है। इसी कारण प्रो. श्री कंठय्या
मानते हैं कि काव्य का आस्वाद कोई निर्जीव बौद्धिक ज्ञान नहीं है,
पाठक को व्यक्तित्व की प्रत्येक शिरा में उसकी मूलवर्ती
प्रेरणा का ज्ञान करना पड़ता है।’’1
काव्य तथा उसके आस्वादन के विषय में आचार्य शुक्ल
के तथ्यों की इस मार्मिकता को समझना अत्यंत आवश्यक है कि ‘‘जो भूख के लावण्य,
वनस्थली की शुष्मा, नदी
या शैलतटी की रमणीयता... जो किसी प्राणी के कष्ट व्यंजक रूप और चेष्टा पर करुणाद्र
नहीं होता, जो किसी पर
निष्ठुर अत्याचार होते देख क्रोध से नहीं तिलमिलाता,
उसे काव्य का प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता कभी नहीं
हो सकती।2
आचार्य शुक्ल के काव्य तथा उसके आस्वादकों के विषय
में प्रस्तुत किए गए उक्त विचारों से भी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किसी भी
आश्रय में काव्य से ऊर्जा का समावेश तभी हो सकता है जबकि वह काव्य-जगत से अलग लौकिक
जगत की उन सारी क्रियाओं से उद्वेलित होता रहा हो, जो
कि काव्य की अभिव्यकित का विषय बनी हैं या बनती हैं। बहरहाल इस विषय की व्यापकता में
न जाते हुए अपनी मूल बात पर आएँ कि चाहे काव्य-जगत के पात्र हों या लौकिक-जगत के पात्र,
उनके मन में ऊर्जा के रूप में भावों का निर्माण विचार
के कारण ही होता है और विचार जब तक किसी प्रकार की गतिशील अवस्था ग्रहण नहीं करते,
तब तक आश्रयों के मन में किसी भी प्रकार की भावपरक ऊर्जा
का निर्माण नहीं होता। इस बात को समझाने के लिए यदि हम काव्य के वैचारिक एवं भावात्मक
स्वरूप पर प्रकाश डालें तो यह बात सरलता से समझ में आ जाएगी कि-
श्रृंगार रस के अंतर्गत जब तक नायिका-नायक एक-दूसरे के प्रति यह
विचार नहीं करते कि ‘हमें एक-दूसरे के सामीप्य से असीम सुख मिलेगा’ तब तक उनके मन में
रति के रूप में ऐसी कोई ऊर्जा जागृत नहीं हो सकती जो उन्हें चुंबन,
आलिंगन तक ले जाए। ठीक इसी प्रकार किसी व्यक्ति पर निष्ठुर
अत्याचार होते देख कोई यह विचार नहीं करता कि ‘अमुक व्यक्ति पर निष्ठुर रूप से अत्याचार
हो रहा है, यह गलत है,
इसे अत्याचारी के अत्याचार से बचाया जाना चाहिए’,
तब तक क्रोध के रूप में वह ऐसी कोई ऊर्जस्व अवस्था ग्रहण
नहीं कर सकता, जिसके तहत
वह अत्याचारी का बढ़कर हाथ पकड़ ले या उसके जबड़े पर दो-चार घूँसे जड़ दे। कभी न समाप्त
होने वाला संताप केवल मनुष्य ही झेलता है, कोई
पशु नहीं, क्योंकि वह
इस विचार के कारण विभिन्न प्रकार से ऊर्जस्व बना रहता है कि-‘अमुक व्यक्ति ने मेरा
अपमान किया है, मुझे यातना
दी है, मरा धन लूटा है,
मेरी मानहानि की है’
जब तक मनुष्य के मन में इस प्रकार के विचार स्थायित्व
ग्रहण किए रहेंगे, तब तक उसका
मन विषाद, क्षोभ,
दुःख, आक्रोश,
असंतोष, क्रोध
आदि के रूप में ऊर्जस्व होता रहेगा। महाभारत की नायिका द्रौपदी का अपमान जब दुःशासन
और दुर्योधन ने किया तो वह इस विचार से कि-‘ मेरा भरी सभा में अपमान हुआ है और मैं
चैन से तब तक नहीं बैठँूगी, जब तक कि
इन दोनों की मृत्यु न देख लूँ।’ वह तब तक क्रोधावस्था की ऊर्जा ग्रहण किए रही,
जब तक कि उनका अंत न हो गया । ठीक इसी प्रकार रावण से
अपमानित विभीषण ने अपने क्रोध को रावणवध के उपरांत ही शांत किया। यदि छल-कपट से पांडवों
का राज्य दुर्योध्न ने न छीना होता तो वह इस ऊर्जस्व अवस्था को ग्रहण न करते कि पूरे
कौरव वंश का ही विनाश करना पड़ता।
सारतः हम कह सकते हैं कि ऊर्जा के गतिशील स्वरूप
का जब पाठक आस्वादन करते हैं तो यह गतिशील ऊर्जा उनके मन पर बल का कार्य करती है, परिणामस्वरूप
उनके मन में भी काव्य-सामग्री से तरह-तरह के विचार जन्म लेते हैं,
जिनकी गतिशीलता, ऊर्जा
के रूप में क्रोध, रति,
हास आदि में अनुभावों के माध्यम से देखी या अनुभव की
जा सकती है।
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रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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