डॉ.
नगेन्द्र की दृष्टि में कविता
+रमेशराज
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‘‘कविता क्या है?
यह एक जटिल प्रश्न है। अनेक आलोचक यह मानते हैं कि कविता
की परिभाषा और स्वरूप विवेचन संभव नहीं। परन्तु मेरा मन उतनी जल्दी हार मानने को तैयार
नहीं है।’’
यह वाक्य डॉ. नगेन्द्र के हैं और डॉ. नगेन्द्र जटिल से जटिल प्रश्न
का समाधन, बिना निराश
हुए, बिना उद्वेलित हुए खोज ही लेते
हैं। अतः कविता के बौद्धिक चमत्कार से, बिना
कोई छूत रोग का ग्रहण किए, ‘कविता क्या
है’ जैसे जटिल प्रश्न का समाधान
प्रस्तुत न करें, असम्भव है।
इसलिए कविता की परिभाषा के प्रश्न पर निराश नहीं होना चाहिए। डॉ. नगेन्द्र अपने ‘कविता
क्या है’ निबंध में एक उदाहरण देकर,
इस जटिल प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास इस प्रकार करते
हैं--
‘‘श्याम गौर
किम कहहुँ बखानी
गिरा अनयन
नयन बिनु पानी।’’
इन पंक्तियों
को डॉ. नगेन्द्र ‘तुलसी’
की अर्धाली कविता का उत्कृष्ट उदाहरण मानते हुए और बिना
कोई संदेह किये कहते हैं कि-‘‘राम और लक्ष्मण
के सौंदर्य से प्रभावित सीता की यह सहज भावाभिव्यक्ति है। श्यामांग राम और गौरवर्ण
लक्ष्मण के सौंदर्य का वर्णन किस प्रकार संभव हो सकता है?
क्योंकि वर्णना की माध्यमा इन्द्रिय-वाणी,
नेत्रविहीन है और सौंदर्य वर्णन के माध्यम नेत्रों के
वाणी नहीं हैं। अर्थात् नेत्र उनके सौंदर्य का आस्वाद तो कर सकते हैं,
किन्तु उसका वर्णन नहीं कर सकते और वाणी उस सौंदर्य
का वर्णन करने में तो समर्थ है, किन्तु
उसका वास्तविक आस्वाद वह नहीं कर सकती। इसका मूल भाव है,
सौन्दर्य के प्रति सात्विक आकर्षण-इन
शब्दों में पुरुष के सौंन्दर्य के प्रति नारी का सहजोन्मुखी भाव व्यंजित है।’’
डॉ. नगेन्द्र
द्वारा प्रस्तुत की गई तुलसी की यह अर्धाली माना संदेह-विहीन
कविता का उत्कृष्ट उदाहरण है, लेकिन
हमारा संदेह दूसरा है-
1.
क्या कविता का अर्थ मात्र तुलसी की यह अर्धाली है?
2.
क्या कविता का अर्थ मात्र शृंगार-रस
की कविता है?
यदि ऐसा नहीं
है तो डॉ. नगेन्द्र ने कविता के प्रश्न का समाधान मात्र रति जैसे सकारात्मक पक्ष में
ही क्यों खोजा? फिलहाल इन
प्रश्नों को दरकिनार कर भी दें, तब
भी इन्द्रिय-बोध के जाल
में उलझे, उक्त उदाहरण
की व्याख्या कच्ची और अवास्तविक है। उक्त पंक्तियों का मूल भाव वे ‘सौंदर्य
के प्रति सात्विक आकर्षण’ मानते हैं।
क्या इस प्रकार का कोई भाव या मूल भाव होता है?
चलो,
इस प्रश्न में भी नहीं उलझते और डॉ. नगेन्द्र की ही
बात को आगे बढ़ाते हैं कि-‘‘प्रस्तुत
सूक्ति में औचित्य अनुमोदित अर्थात् नैतिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शुद्ध,
जीवन के अत्यंत मधुर भाव,
किशोर वय आकर्षण की अभिव्यंजना है।’’
इसका सीधा
अर्थ यह है कि ‘कविता औचित्य
द्वारा अनुमोदित अर्थात् नैतिक, मनोवैज्ञानिक
दृष्टि से शुद्ध, जीवन के अत्यंत
मधुर भाव, किशोर वय
के आकर्षण की अभिव्यंजना होती है।’ मतलब
यह कि कविता जैसे जटिल प्रश्न का मिल गया समाधान?
अब भी किसी
को उलझन अनुभव हो रही हो, सौंन्दर्य
के प्रति सात्विक आकर्षण का भाव समझ में न आया हो, औचित्य
द्वारा अनुमोदित नैतिक अभिव्यंजना पल्ले न पड़ी हो तो अभी डॉ. नगेन्द्र निराश नहीं
हैं। वे आगे लिखते हैं कि-‘‘उक्त पंक्तियों
की अभिव्यंजना की दृष्टि से परीक्षा कीजिए-प्रस्तुत
सूक्ति में कवि का साध्य है-सौन्दर्य
द्वारा उत्पन्न प्रभाव, जिसमें रति-उल्लास,
क्रीडा आदि अनेक भावों का मिश्रण है।’’
लीजिए-उक्त व्याख्या
से कविता की एक और परिभाषा गढ़ गयी कि-‘कविता
सौन्दर्य द्वारा उत्पन्न प्रभाव का सम्प्रेषण होती है।’
सौन्दर्य क्या होता है,
डॉ. नगेन्द्र की इन व्याख्याओं से पाठक स्वयं ही समझ
गए होंगे, साथ ही यह
तथ्य भी समझ में आ ही गया हो कि रति, उल्लास
की तरह, ‘क्रीड़ा’
भी एक भाव होता है।
आइए थोड़ा और आगे बढ़ें-डॉ.
नगेन्द्र कहते हैं कि-‘‘वक्ता
की मुग्धावस्था के कारण अभिव्यंजना और भी कठिन होती जाती है। अतः कवि ने वर्णना की
चेष्टा नहीं की-‘किमि कहहुँ
बखानी’ के द्वारा अर्थात् वर्णन की
असमर्थता की स्वीकृति के द्वारा, सौन्दर्य
की अनिर्वचनीयता की व्यंजना की है। यह अनिर्वचनीयता अतिशय की द्योतक है। किन्तु अनिर्वचनीय
होते हुए भी वह अनुभवातीत नहीं है। अर्थात् यह सौंदर्य इतनी तीव्र अनुभूति उत्पन्न
करता है कि उसको व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं।’’
डॉ. नगेन्द्र
की उक्त व्याख्या से अब कविता की कोई नयी परिभाषा गढ़ना तो संभव नहीं जान पड़ रहा है,
हाँ यह अवश्य है कि इससे कविता के कवितापान को तय करने
में कुछ सहायता अवश्य मिल सकती है। मसलन्-कविता
की विशेषता यह हो कि वह सौन्दर्य की इतनी तीव्र अनुभूति उत्पन्न करे कि सब कुछ अनिर्वचनीय
हो जाए, जैसे गूंगे के लिए गुड़ का
स्वाद, जिसे क़ाग़ज पर उतारने की अनुमति
बिल्कुल नहीं दी जानी चाहिए।
खैर!
डॉ. नगेन्द्र की मान्यता को हम गूँगा मानने की धृष्टता
तो कर ही नहीं सकते, अतः उनके
बताए गुणों से आइए-कविता और
उसके कवितापन को तय करने का प्रयास करें। जटिल होता
कविता का प्रश्न अभी सरलता की ओर नहीं है, उसे
सरल बनाने के लिए डॉ. नगेन्द्र की ही व्याख्या का सहारा लें। वे आगे लिखते हैं-‘‘अब
नाद सौंदर्य की दृष्टि से लीजिए-उद्घृत
अर्धाली में अत्यंत प्रसन्न पदावली का प्रयोग है, जिसमें
सूक्ष्म वर्णमैत्री की नाद-सौंदर्य की
अनुगूँज है। कवि ने पवर्ग और कवर्ग के वर्णों की आवृत्ति और दूसरे चरण में न की आवृत्ति
द्वारा सहज वर्ण सामजस्य पर आश्रित शब्द-संगीत
का सृजन किया है, उधर लघु मात्रिक
चौपाई-छन्द,
मुग्धा के मन की इस भाव-तरंग
का अत्यंत उपयुक्त माध्यम है।’’
सौंन्दर्य
भले ही स्पष्ट न हो पाया हो, लेकिन जब
बात सौन्दर्य की चल रही है तो उसमें नाद सौन्दर्य को भी क्यों न जोड़ा जाए?
क्योंकि डॉ. नगेन्द्र ने ‘क
वर्ग’ ‘प वर्ग’
और ‘न’
की आवृति के सहज वर्ण सामजस्य से ही तो लघुमात्रिक चौपाई
छन्द, मुग्धा के मन की भाव-तरंग
का अत्यंत उपयुक्त माध्यम बनाया है, नहीं
तो कोई दीर्घ मात्रिक-छन्द उल्लेखित
सहज वर्णों से विहीन, इस दृष्टांत
में आ जाता तो कविता, कविता नहीं
रहती। सौन्दर्य, सौन्दर्य
न बन पाता। गूँगे के गुड़ के स्वाद का गोबर हो जाता। फिलहाल ऐसा कुछ नहीं हुआ है,
अतः इसे लेकर मन में कोई शंका भी नहीं है। शंका है तो
डॉ. नगेन्द्र के मन में। प्रश्न उबाल ले रहे हैं तो उन्हीं जे़हन में। इसीलिए वे प्रश्नों
की एक लम्बी सूची लेकर पाठकों के सम्मुख हैं और पूछ रहे हैं-‘‘अब
प्रश्न यह है कि इनमें से किस तत्त्व का नाम कविता है?
मूलभाव अर्थात् सौन्दर्य चेतना का?
उक्ति वक्रता अथवा अलंकार के चमत्कार का?
अथवा वर्णमैत्री का? या
फिर छंद संगीत का?
इस लेख में
हमसे सबसे बड़ी धूर्त्तता यह हो गई है कि डॉ. नगेन्द्र के कविता के बारे में प्रस्तुत
किए जा रहे समाधान से पूर्व
ही हमने कविता की दो परिभाषाएँ गढ़ डालीं, जबकि
डॉ. नगेन्द्र तो ‘कविता क्या
है’, प्रश्न का समाधान खोजने का
प्रयास कर रहे हैं। अतः उन्हीं की बात पर आते हैं। वे अपने प्रथम प्रश्न का उत्तर देते
हुए लिखते हैं-‘‘मूल भाव कविता
नहीं है, संयोग से यहाँ यह भाव सौन्दर्यानुभूति
है। भाव कविता नहीं है। न जाने कितने स्त्री-पुरुष
और तिर्यक यौनि में भी जाने कितने नर-मादा,
एक दूसरे के यौवन-सौन्दर्य
के प्रति आकृष्ट होते हैं। किन्तु इस आकर्षण को कविता नहीं कहा जा सकता।’’
हम भी मान
लेते हैं कि मूलभाव यहाँ कविता नहीं हैं, किन्तु
भाव, सौन्दर्यानुभूति कैसे हो जाता
है, वह भी संयोग से?
यह तथ्य पकड़ से परे है। यदि यौनाकर्षण की भावनात्मकता
सौन्दर्यविहीन होती है तो क्या इसी कारण की गई ‘दिनकर’
की ‘उर्वशी’
यौन, कुच
चुम्बन, आलिंगन के सारे के सारे आसनों
का ब्यौरा प्रस्तुत करने के बावजूद महाकाव्य की संज्ञा से कैसे विभूषित हो गई?
जिसके अधिकांश स्थलों,
प्रसंगों में पढ़ने में [ बकौल डाॅ.
नगेंद्र ] उन्हें सौन्दर्यानिभूति के दर्शन हुए,
ब्रह्मानन्द सहोदर रस मिला। अस्तु!
वे ऐसे मूल भाव को फिर भी कविता नहीं मानते,
तो नहीं मानते।
बात अब उनके
दूसरे प्रश्न की- तो वे मानते
हैं कि-‘‘उक्ति वक्रता भी कविता नहीं
होती, क्योंकि हम अपने नित्यप्रति के व्यवहार में अपने आशय को,
न जाने कितनी बार अनेक वचन-भंगिमाओं
के द्वारा व्यक्त करते रहते हैं। बोलचाल में निरंतर हम न जाने कितने मुहावरों के रूप
में लाक्षणिक प्रयोग करते रहते हैं। विरोधाभास का चमत्कार भी सभा चतुर व्यक्तियों के
लिए साधारण चमत्कार है। नवीन आलोचना-शास्त्र
की शब्दावली में उक्ति वक्रता, लाक्षणिक
प्रयोग, अलंकार चमत्कार आदि में कल्पना का वैभव है।....अब
रह जाता है-संगीत तत्त्व-वर्ण-संगीत
और लक्ष्य-संगीत। वह
भी कविता नहीं है।’’
बात सुलझते-सुलझते
फिर उलझ गई है और इस उलझन का मूल कारण वह लौकिक व्यवहार है,
जो डॉ. नगेन्द्र की दृष्टि में पृथक-पृथक
रूप में कविता के उन गुणों को समाहित किये रहता है, जो
उसके कवितापन को तय करते हैं। चूँकि डॉ. नगेन्द्र को कविता लोक से नहीं,
कविता से ही तय करनी है,
अतः लोक के प्राणियों का व्यवहार उन्हें कविता में दिखलाई
दे, वह उसे लोक के स्तर पर कविता
के श्रेणी में रखने के कतई पक्षधर नहीं। अतः डॉ. नगेन्द्र के सामने पुनः यही प्रश्न
है कि-‘‘तो फिर वास्तव में कविता क्या
है?’’
लीजिए अब
उन्होंने प्रस्तुत कर ही दिया इस प्रश्न का उत्तर-‘‘इन
सभी तत्त्वों का समन्वय कविता है। यह समस्त अर्धाली ही कविता है। सौन्दर्य कविता नहीं
है, वक्रता कविता नहीं है। अर्थात्
समान्तर न्यास कविता नहीं है, वर्ण
संगीत कविता नहीं है, चौपाई की
लय भी कविता नहीं है। इन सबका समंजित रूप ही कविता है-अर्थात्
रमणीय भाव, उक्ति,
वैचित्रय, और
वर्ण, लय,
संगीत तीनों ही मिलकर कविता का रूप धारण करते हैं।’’
डॉ. नगेन्द्र
की यदि बात मानें तो उपरोक्त तीनों तथ्यों के समन्वित हो जाने से कविता बन जाती है।
लेकिन एक शंका फिर भी घिर आती है कि रामचरित
मानस के वे प्रसंग या काव्यांग इस कविता की परिभाषा में कैसे समायोजित किये जाएँगे,
जिनमें मन्थरा, कैकैयी,
सूपनखा, कुम्भकरण,
बाली, रावणादि
के अरमणीय रंग हैं। क्या लघु मात्रिक चौपायी छंद में वर्णित ऐसे अरमणीय प्रसंग वर्ण
लय, संगीत,
अलंकार और सौन्दर्यानुभूति का निर्जीव आभास नहीं देने
लगेंगे? यह ऐसे प्रश्न हैं,
जिनके बिना ‘कविता
क्या है’ का प्रश्न सुलझता हुआ दिखाई
नहीं देता। बहरहाल डॉ. नगेन्द्र ने तो अरमणीय पक्ष को दृष्टि में रखे बिना कर ही डाला
है कविता के जटिल प्रश्न का हल। इसलिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम।
डॉ. नगेन्द्र
के पदचिह्नों पर चलते हुए, अन्य विद्वान
भी कविता को ऐसी ही ख़ूबसूरती प्रदान कर सकते हैं और अब आसानी के साथ कह सकते हैं कि‘
कविता क्या है? यह
जटिल प्रश्न नहीं हैं। कोई कह सकता है कि ‘‘कविता
लोगों से भरे हुए भवन में अनिवर्चनीयता का ‘बिहारी’
की तरह वचनीय आभास है या ‘जायसी’
के केले के तनों को उल्टा रखकर पद्मावती के निम्नांगों
की आभा है।’’ अन्य बता
सकते हैं कि-‘‘कविता राधा
का रेशमी नाड़ा खींचने की एक ‘सूरदासमय’
सौन्दर्यानुभूति है। ‘कुलमिलाकर
कविता नारी पुरुष संबंधों की, शुद्ध
धार्मिक दृष्टि से औचित्यपूर्ण ऐसी भावात्मकता है, जिसके
रस या आनन्द में डूबकर ही, मर्म को समझा
जा सकता है।
हम
जैसे बौद्धिक-छूत की बीमारी
से ग्रस्त लोगों की विडम्बना यह है हम मानते हैं कि-‘‘रमणीय
का अर्थ केवल मधुर नहीं है। कोई भी भाव, जिसमें
हमारे मन को रमाने की शक्ति हो, रमणीय
है। इस दृष्टि से क्रोध, ग्लानि,
शोक, आक्रोश,
असंतोष, विरोध,
विद्रोह आदि भावों के भी विशेषरूप रमणीय हो सकते हैं।’’
तब डॉ. नगेन्द्र ने ‘कविता
क्या है?’ जैसे जटिल प्रश्न को सुलझाने
के लिए क्रोध, शोक,
ग्लानि आदि के रमणीय पक्ष का भी कोई उदाहरण प्रस्तुत
कर अपने साहस का परिचय क्यों नहीं दिया? सच
तो यह है कि उनकी अधूरी सौन्दर्य-दृष्टि
ने जो स्थापना की है, उससे कविता का कवितांश ही स्पष्ट हो पाता है। कविता का
प्रश्न ज्यों की त्यों अपनी विजयी मुद्रा में खड़ा है और कह रहा है कि-‘कविता
क्या है?’
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-15/109,ईसानगर,
निकट-थाना
सासनीगेट, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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