पाश्चात्य
विद्वानों के कविता पर मत
+रमेशराज
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प्रख्यात
आलोचक श्री रमेशचन्द्र मिश्र अपनी पुस्तक ‘पाश्चात्य
समीक्षा सिद्धान्त’ में अपने
निबन्ध ‘काव्य कला विषयक दृष्टि का
विकास’ में पाश्चात्य विद्वानों का
एक वैचारिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करने से पूर्व ‘कविता
के प्रश्न’ पर लिखते
हैं कि-‘कविता से यदि यह प्रश्न किया
जाए कि तुम क्या हो? शायद वह लड़की,
युवती, मुग्धा,
वृद्धा होती तो अपने रंगरूप,
वृत्ति-प्रवृत्ति,
आकार-प्रकार,
उन्मेष-परिवेश
के सम्बन्ध में अथवा अपने प्रेमी, पति, सहोदर,
पिता के सम्बन्ध में कुछ न कुछ बताने की स्थिति में
होती। तब भी समग्रता या सूक्ष्मता से नहीं। हम सब यह जानते हैं कि हम क्या हैं?
किन्तु जब हम यह बताने लगते हैं कि ‘हम
ये हैं’ तो बताते हुए,
बताये जाने वाले व्यक्ति की पूर्णता खंडित हो जाती है।
यही स्थिति कविता के मानवीकृत रूप से पूछने पर हो सकती है।.....
कविता अपने आप में क्या है?
कविता का जो कुछ स्वर-स्वरूप-प्रभाव
हमें दिखाई देता है, वह सहृदय
पाठक-समीक्षक के मस्तिष्क पर पडे़
हुए प्रभाव की सूचना-भर देता है।
इस समवैत में शाश्वत कुछ भी नहीं है। शाश्वत है मानवीय वृत्ति-प्रवृत्ति,
जो काव्य-भाषा
के रूप में मुखर होती रही है। काव्य-पाठ
या श्रवण के पश्चात् जो अनुभूति पाठक-समीक्षक
या श्रोता समीक्षक की होती है, उसको
विशुद्ध भाव नहीं कहा जा सकता, वह
यौगिक भाव है, इसलिये उसे
मनोवैज्ञानिक प्रभावमात्र नहीं कह सकते।’’
श्री रमेशचन्द्र
मिश्र का कविता से सीधे-सीधे किया
गया यह प्रश्न कि वह क्या है? जिस
सजीवता और जीवन्तता के साथ उठाया गया है, आगे
चलकर यह सजीवता इस संदर्भ में क्षीण हो जाती है कि इस प्रश्न का उत्तर दो बिन्दुओं-
क. समग्रता और सूक्ष्मता के अभाव, ख. आस्वादकों के मन पर कवितानुभूति का विशुद्ध भाव
न रहकर यौगिक भाव बन जाना, पर जाकर कविता
की कोई सार्वभौमिक और अन्तिम परिभाषा नहीं बनने देता। इसकी वज़ह बेहद साधारण है।
जिस प्रकार
‘हम’
मात्र ‘हम’
ही नहीं। हम एक सामाजिक प्राणी भी हैं। अतः यदि ‘हम’
सिर्फ ‘हम’
के ही बारे में सोचेंगे तो हमारा समाज सापेक्ष व्यक्तित्व
पीछे छूट जायेगा। इसके लिये जरूरी यह है कि ‘हम’
का उत्तर मात्र ‘हम’
से ही नहीं लिया जाये,
बल्कि उस समाज से भी ‘हम’
के बारे में पूछा जाये,
जिसमें वह रहता है। तब शायद ‘हम’
के बारे में कोई प्रामाणिक निष्कर्ष निकाल सकें। ठीक
इसी तरह कविता की सूक्ष्मता और समग्रता का प्रश्न भी मात्र कविता से नहीं जुड़ा है,
उसके सम्बन्ध पाठन, वाचन,
दर्शन आदि के समय आस्वादकों से जुड़े होते हैं,
वह आस्वादन द्वारा उससे प्रभाव ग्रहण करता है। आस्वादक
से पूछे जाने पर यह प्रभाव ही उसकी सूक्ष्मता, समग्रता
की जानकारी दे सकता है। कविता के तत्त्वों की पहचान जब आस्वादकों द्वारा ही तय की जानी
है तो इसके लिये आवश्यक यह कि वह कविता के सार्वभौम रूप-गुण
की वैज्ञानिक और सार्थक खोज करें।
इस पुस्तक
में प्रकाशित पाश्चात्य विद्वानों की कविता परिभाषित करने के प्रयासों का मूल्यांकन
यदि इसी दृष्टि से करें तो प्लेटो कविता को सामाजिक कसौटी पर परखते हुए घोषणा करते
हैं कि-‘सामाजिक न्याय-नियम
की उपेक्षा करके कोई कविता सिद्ध नहीं हो सकती।’
प्लेटो ‘उपयोगिता’
को ही कविता की मुख्य कसौटी मानते हैं। उनके अनुसार-‘‘कविता
सामाजिक सीमाओं में ही सहृदय को आनंद देती है।’’
कविता की
समाजसापेक्ष मूल्यवत्ता से भला कौन इन्कार कर सकता है,
लेकिन यदि सामाजिक न्याय-नियम
सामाजिकता को ही विखंडित करने वाले या किसी समाज विशेष,
सम्प्रदाय विशेष के हों,
उनकी वैचारिक मूल्यवत्ता का यह कथित सार्वभौमिक,
शाश्वत और पूर्णरूप क्या कविता को तय कर सकेगा?
ऐसी कविता सामाजिक सीमाओं में किसी समाज विशेष,
सम्प्रदाय विशेष को तो कथित रूप से आनंदित कर सकती है,
लेकिन यह आनंद दूसरे समाज के लिये घातक भी हो सकता है,
इस खतरे से बचा नहीं जा सकता।
लोंगिनुस
अपनी काव्य शास्त्रीय पुस्तक ‘पेरिइप्सुस’
में ‘उद्दात्त’
को काव्य की आत्मा मानते हुए अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता
और विशिष्टता पर विशेष बल देते हैं। उनकी दृष्टि में-‘‘हृदय
से निकली हुई कविता पाठक को आत्म विस्मृत करने में समर्थ होती है।’’
‘उद्दात्त’
को काव्य की आत्मा मानकर अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता और
विशिष्टता पर विशेष बल देने वाले लोंगिनुस अंततः कविता को पाठक की आत्म-विस्तृति
का साधन तय करते हैं, तब प्रश्न
यह है कि पाठक की यह आत्मविस्मृति की अवस्था क्या उसे एक ऐसा आस्वादक नहीं बना डालेगी,
जिसे अपने सारे आत्म को दरकिनार करना पड़ेगा और इस स्थिति
में वह विचारशून्य आस्वादक बन जायेगा, जिसे
आस्वादनोपरांत या आस्वादन के समय यह भी पता नहीं चलेगा कि उसने क्या आस्वादित किया
है अथवा कोई आस्वादन किया भी है या नहीं। ऐसी स्थिति में कविता की मूल्यवत्ता-गुणवत्ता
का अनुभव कैसे हो सकेगा और किस तरह होगी कविता परिभाषित?
होरेस की
कविता के प्रति धारणा है कि-‘कविता चित्रकारी
की तरह होती है, कोई चित्र
आपको निकट से अच्छा लगता है, कोई दूर से,
कोई मंदप्रकाश में अच्छा लगेगा,
कोई तेजप्रकाश की पृष्ठभूमि में। किसी के प्रति आकर्षण
एक बार होकर रह जाता है, किसी के प्रति
बार-बार होता है।’’
[ भारतीय काव्य समीक्षा,
पृ0 81
]
कविता
चित्रकारी नहीं होती, जिसे आस्वादित
करने के लिये आस्वादकों को कभी कविता के पास आना पड़े और कभी उसे खड़े होकर ताकना पड़े
या उसके मर्म को जानने के लिये कभी मंद तो कभी तेज प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़े। साथ
ही कविता ऐसी लड़कियों का दर्शन भी नहीं है जिसके रसिक [ आस्वादक ] कभी कविता बनी लड़कियों से एक बार आकर्षित होकर रह
जायें या कभी बार-बार आकर्षित
होते रहें।
ऐलीगेरीदान्ते
को काव्य के माध्यम से दुःखान्तता की स्थिति ग्राहय नहीं। उन्होंने काव्य का लक्ष्य
सुख-आनंद मानते हुए कहा है कि-‘‘कविता
में मधुर या सुन्दर की अभिव्यक्ति मधुर या सुन्दर के माध्यम से ही हो सकती है।’’
सवाल यह है कि दुःखान्तता अर्थात् करुणा के बिना जब कविता का ओजमय
स्वरूप प्राप्त ही नहीं हो सकता तो ऐसी कविता का औचित्य क्या है?
आचार्य शुक्ल के अनुसार-‘‘करुणा
की गति रक्षा की ओर होती है।’’ दांते
की बात मानें तो कविता से लोक-रक्षा
का तत्व ही गायब हो जायेगा। या शोकान्तता के बिना कविता का अधूरा पक्ष ही परिभाषित
या उजागर हो सकेगा।
जान डैनिस
की मान्यता है कि धर्म में जो महान या उद्दात है, वही
काव्य में आकर विस्मय-विमुग्ध करने
वाला, सामरस्य दशा प्रदान कराने वाला,
आनंदानुभूति कराने वाला,
व्याप्ति की स्थिति कराने वाला होता है।’’
कोई भी कथित धर्म चाहे जितना महान या उद्दात्त हो,
लेकिन उसकी काव्य-प्रस्तुति
यदि आश्रयों को मात्र विस्मय, विमुग्ध्ता
और आनंदानुभूति ही प्रदान करेगी तो प्रश्न यह है कि कथित विस्मय,
विमुग्धता और आनंदानुभूति, कविता के माध्यम से लोकरक्षा
के तत्व का निर्वाह कैसे करा पायेगी। कला को सिर्फ आनंद या कला के प्रति प्रस्तुत करने
के प्रयोजन में धर्म की महानता, उद्दात्तता
को कैसे सुरक्षित रख सकेगी?
एक अन्य काव्यचिन्तक डॉ. सैमुअल जानसन भले ही काव्य को कला के लिये
‘सत्य’
को मूल आधार मान लें,
लेकिन कला तो मात्र साधन होती है और साध्य सत्य। अतः
साधन और साध्य का यह घालमेल किसी भी तरह कविता को स्पष्ट नहीं कर सकता।
दरअसल कलावादियों
की एक दिक्कत यह रही है कि वे जीवन में भले ही समाजसापेक्षता की महत्व देते आये हों,
लेकिन बात जब कविता के संदर्भ में उठती है तो उसके उपयोग
पक्ष से वे नाक-भौं सिकोड़ने
लगते हैं। कला यदि कला के लिये, कविता
यदि कविता के लिये ही प्रासंगिक है तो उसका सामाजिकों से आस्वादन-सम्बन्ध
जोड़ने का औचित्य ही क्या है? साथ
ही कविता को किसी भी प्रकार की वैचारिक ऊर्जा से लैस करने से फायदा क्या?
जब सही और गलत की कलावादियों के पास कोई कसौटी है ही
नहीं तो कला के नाम पर निरर्थक उल्टे-सीधे शब्दों का चयन कर कुछ भी अभिव्यक्त कर देना
औचित्य से परे है।
डेविस ह्यूम की यह मान्यता भी कविता के संदर्भ में सारहीन और समाज
या लोकविमुख ही मानी जाएगी कि-‘‘सही
क्या है? इसकी कोई कसौटी नहीं है। निर्णय
और आवेग की स्थिति में बहुत अन्तर है। इसलिये दर्शन या सदाचरण के नियम कविता के अवरोधक
न बनें।’’
जहाँ आदमी
की बुद्धि गलत और सही का फैसला न कर सके और उसे यह भी लगे कि दर्शन या सदाचरण सही है,
पर कविता में अवरोधक का कार्य करते हैं। इस प्रकार की
जानबूझकर सही और गलत के प्रति ओढ़ी गयी अनभिज्ञता से कविता किसी प्रकार स्पष्ट नहीं
की जा सकती।
निर्णय और आवेग की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं है,
यह तो एक दूसरे के पूरक,
सहभागी, सहयोगी
ही हैं। बिना निर्णय के तो आवेग का कोई अस्तित्व ही नहीं। जब तक हम यह निर्णय नहीं
ले लेते कि अमुक व्यक्ति हमारा शत्रु या मित्र
हैं, तब तक हमारे मन में क्रोध या
रति का आवेग आ ही नहीं सकता।
कविता के
संदर्भ में गेटे का चिन्तन काफी सूझ-बूझ
से युक्त लगता है। वह लोकानुभूति और काव्यानुभूति को पृथक नहीं मानते,
उनका मानना है कि-‘‘कवि
अपनी शैली के द्वारा ही अपने अन्तस, अपने
व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता है।’’
वास्तविकता
भी यही है कि कवि का व्यक्तित्व समाज के आलम्बन धर्म के पक्ष से,
उसके आलम्बनों के प्रति लिये गये निर्णयों से बनता है
और वह समाज रूपी आलम्बन धर्म की प्रस्तुति अपने निर्णयों के साथ समाधिलीन होकर करता
है। इसलिये कविता का लोक और वास्तविक लोक कोई अलग-थलग
बिन्दु नहीं रह जाते। लेकिन कविता के संदर्भ में यह दृष्टि [ कवि की ] लोकोन्मुखी भी
हो सकती है और लोक-अहितकारी
भी। अतः गैटे के चिन्तन की खामी यह है कि उन्होंने कवि के चिन्तन पर ही विशेष बल देकर
जिस प्रकार कविता का पक्ष प्रस्तुत किया है, वह
कविता की अधूरी पकड़ ही करता है। जो कुछ भी कवि लिख दें,
वह कविता हरगिज नहीं हो सकता।
गेटे की तरह
ए.सी.
ब्रेडले भी कविता का सूक्ष्म मनौवैज्ञानिक विवेचन करते
हुए लिखते हैं कि-‘काव्य में
हमें जो कुछ मिलता है, देश-काल
की ऐसी सीमाओं में अवस्थित नहीं है और यदि उसकी ऐसी अवस्थिति हो भी तो वहाँ हमें जो
प्राप्त होता है, उसमें बहुत
कुछ बाहर से ग्रहीत होता है। अतः उन भावों, इच्छाओं
और प्रयोजनों का वह सीधे संस्पर्श नहीं करता। वह तो केवल चिन्तनात्मक कल्पना को ही
छूता है। यह कल्पना रिक्त अथवा भाववृत्ति शून्य नहीं होगी। यह यथार्थ अनुभव की सिद्धियों
से ओत-प्रोत होती है,
यद्यपि यह फिर भी चिन्तनात्मक रहती है।’’
कविता को
कवि के प्रयोजन एवं उस प्रयोजन को आस्वादकों पर पड़े प्रभाव के बिना किसी प्रकार तय
नहीं किया जा सकता अर्थात् कविता में प्रस्तुत सामग्री आस्वादकों को अपनी भावात्मक
या ऊर्जस्व अवस्था किस प्रकार का संदेश किस प्रकार की शैली में कैसे माध्यम से दे रही
है, जब तक इसे
तय नहीं किया जाता, तब
तक कविता के प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता। इस संदर्भ में ब्रेडले की तारीफ करनी पड़ेगी
कि उन्होंने कविता का उनके आस्वादकों से सीधा सम्बन्ध जोड़ इस तथ्य की जानकारी दी कि-‘‘आस्वादक
कविता के माध्यम से कवि की चिन्तनात्मक कल्पना,
जो यथार्थ अनुभवों की सिद्धियों से ओत-प्रोत
होती है, अपनी
चिन्तनात्मक अवस्था में करते हैं।’’
लेकिन
कविता की कसौटी मात्र उसमें व्यक्त विचार ही नहीं होते,
बल्कि उन विचारों को प्रस्तुत करने का माध्यम शिल्प
व तरीका [ शैली ] भी उससे जुड़े होते हैं। अतः कविता को तय करने के लिये कविता में
व्यक्त कलात्मक मूल्यों के माध्यम से वैचारिक मूल्यों को साथ-साथ
रखकर उसके आस्वादकों पर पड़े प्रभाव अर्थात् इन तीनों बिन्दुओं पर जब तक परखा नहीं
जाता, तब तक कविता
क्या है, कविता
क्या है? बनी
रहेगी।
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-15/109,ईसानगर,
निकट-थाना
सासनीगेट, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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