डॉ.
नामवर सिंह की आलोचना के अन्तर्विरोध
+रमेशराज
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‘‘एक नये सृजनशील
कवि के नाते मुक्तिबोध ‘काव्य और
जीवन, दोनों ही क्षेत्र में छायावाद
के प्रतिक्रियावादी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करना अपना कर्तव्य समझते थे। उन्होंने,
विशेषरूप से ‘कामायनी’
में घुसकर उन सामाजिक-ऐतिहासिक
शक्तियों का उद्घाटन किया, जिन्होंने
हिन्दी में व्यक्तिवादी, रोमांसवादी,
छायावादी भावुकता तथा भाववादी-आदर्शवादी
विचारधारा का प्रणयन किया। इस प्रयास में उन्होंने पूँजीवाद जैसे काव्येतर शब्दों के
प्रयोग से भी परहेज न किया, क्योंकि उनकी
स्पष्ट धारणा है कि-‘पूँजीवाद
शब्द के प्रयोग से न केवल उन्हें परहेज है, वरन्
भय भी है, क्योंकि यह
शब्द उनकी साहित्यिक अभिरुचि पर आघात भी करता है। इस मनोवृत्ति के पीछे वर्गीय हित
काम कर रहे हैं, क्योंकि पूँजीवाद
शब्द के बारम्बार प्रयोग से संलग्न जो भाव विद्रोहपूर्ण होकर गरीब-मध्यम
वर्ग को आन्दोलित करती हैं, वे भावधाराएँ
यदि साहित्य में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित हुई तो उनके वर्ग-हित
को आघात पहुँचने की सम्भावना है। फलतः ‘राष्ट्रीयता’,
‘मानवीयता,’ ‘भारतीय
संस्कृति,’ ‘जातीयता’
आदि शब्दों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए,
जिससे कि अन्य की चेतना धुंधली हो सके।’’
अपनी पुस्तक
‘कविता के नये प्रतिमान’
में दिये गये उक्त कथन से स्पष्ट है कि यह कथन कविता
और मानव-जीवन में पूँजीवाद जैसे शब्द
और वर्ग-संघर्ष का मुक्तिबोध के माध्यम
से डॉ. नामवर सिंह का एक सार्थक और सारगर्भित ‘वकालतनामा’
है।
मगर दूसरी
तरफ कविता को परिभाषित करते हुए ‘कविता
के नये प्रतिमान नामक’ इसी पुस्तक
में वे यह भी कहते हैं- ‘‘औसत नयी कविता
क्रिस्टल या स्फटिक की सघन संरचना के समान है। जब काव्यकृति को निर्मित्ति कहा जाता
है तो उसका स्पष्ट अर्थ है कि उसमें वस्तु-तत्त्व
या आत्म-तत्त्व में कोई माध्यम नहीं
है। स्फटिक की रचना संबंधी विज्ञान के नवीनतम शोधों का तो यहाँ तक कहना है कि स्फटिक
में सब कुछ संरचना ही है, तत्त्व जैसी
कोई चीज़ नहीं। क्योंकि तत्त्व-विश्लेषण
में अलग से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए किसी काव्य-कृति
में अनायास ही रूप, वस्तुभाव
और उद्देश्य को एक के बाद एक पा जाने के अभ्यस्त आलोचकों को यदि नयी कविता लोहे का
चना मालूम हो अथवा केवल कुछ नये बिम्बों का पुंज प्रतीत हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।’’
डॉ. नामवर
सिंह के उपरोक्त दोनों कथनों को मिलाकर देखें तो उनके आलोचना-कर्म
का एक पक्ष जितना ओजस् है, दूसरा पक्ष
उतना ही ठंडा-रहस्यमय और
अँधेरे की सत्ता का पोषक है तथा वर्गचेतना और मानवीयचेतना को धुंधला और धीमा करने वाला
है। यदि
कविता किसी स्फटिक की संरचना के समान होती है, जिससे
आत्म या वस्तु-तत्त्व अलग
से प्राप्त नहीं होना है तो यह भी तय है कि ‘मुक्तिबोध’
जो आरोप प्रतिक्रियावादी,
भाववादी, आदर्शवादी,
राष्ट्रवादी विचारधरा का प्रणयन करने वालों पर लगाते
हैं, उन्हीं आरोपों की गिरप्फत से
डॉ. नामवर सिंह भी नहीं बच पाते हैं। उनकी आलोचना का सारा का सारा नैतिक कर्म,
अन्ततः उसी किले की दीवारें मज़बूत करने में जुटा हुआ
महसूस होता है, जिसका नाम
पूँजीवाद है।
वस्तुतः डॉ.
नामवर सिंह अपने ‘निर्मित्ति
सिद्धान्त’ के द्वारा
कविता के नाम पर, ऐसे कवियों
की कविताओं को सार्थक ठहराने की कोशिश करते हैं, जिनसे
तत्त्व या सत्व रूप से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होता।
उनके इसी
पुस्तक के निबन्ध ‘काव्य-भाषा
और सृजनशीलता’ को ही लीजिए
–डॉ. सिंह,
डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के माध्यम से पाठकों के समक्ष
‘सही वक़्त पर उठायी गयी सही
बात’ को इस प्रकार रखते हैं-‘‘आज
की कविता को जाँचने-परखने के
लिये, जो अब सचमुच ‘प्रास
के रजतपाश’ से मुक्त
हो गयी है, अंलकारों
की उपयोगिता अस्वीकार कर चुकी है और छन्दों की पायल उतार चुकी है,
में काव्य-भाषा
का प्रतिमान शेष रह गया है, क्योंकि कविता
के संघटन में भाषा के प्रयोग की मूल और केन्द्रीय स्थिति-कविता
उत्कृष्टतम शब्डॉन का उत्कृष्टतम क्रम है।’’
सही वक़्त
पर उठायी गयी, इस सही बात
के माध्यम से डॉ. नामवर सिंह द्वारा जाँची-परखी
गयी, इसी पुस्तक में उद्धृत ‘रघुवीर
सहाय’ की ‘नया
शब्द’ शीर्षक कविता में काव्य-भाषा
का ‘शेष रह गया प्रतिमान’
और ‘उत्कृष्टतम
शब्दों का उत्क्रष्टतम क्रम’ देखिए-
‘‘कोई और कोई
कोई और-और अब भाषा नहीं
शब्द अब भी
चाहता हूँ
पर वह,
जो कि जाये वहाँ-वहाँ
होता हुआ
तुम तक पहुँचे
चीज़ों के
आरपार दो अर्थ मिलाकर सिर्फ एक
स्वच्छन्द
अर्थ दे
मुझे दे!
देता रहे जैसे छन्द केवल छन्द
घुमड़-घुमड़
भाषा का भास देता हुआ
मुझको उठाकर
निःशब्द दे देता हुआ।’’
अगर ‘उत्कृष्टतम
शब्दों का उत्कृष्टतम क्रम’ यही है,
जिसमें वहाँ-वहाँ,
पता नहीं कहाँ-कहाँ
होता हुआ अर्थ, चीज़ों के
आर-पार जाता है और अन्त में एक
ऐसा छन्द बन जाता है, जो घुमड़-घुमड़कर
ऐसी भाषा का भास देता है कि पूरी की पूरी कविता को निःशब्द या निष्प्राण कर जाता है
तो मानना ही पड़ेगा कि ऐसी कविताएँ ‘प्रास
के रजतपाश’ से मुक्त
होने के बाद अलंकारों की उपयोगिता को ही अस्वीकार नहीं कर चुकी हैं,
इनके भीतर से वह अर्थवान् आत्मतत्त्व भी ग़ायब है,
जिसका जि़क्र छायावादी आलोचक डॉ. नगेन्द्र ‘रागात्मकता’
के रूप में ही सही, किन्तु
करते हैं।
कुल मिलाकर
ऐसी कविताएँ डॉ. नामवर सिंह के स्फटिक सिद्धान्त द्वारा पुष्ट होती नज़र आती हैं,
जो न तो कर्म के मर्म को सहलाती है और न इनके विश्लेषण
से अलग-अलग कोई तत्त्व प्राप्त होता
है, न भाषा,
न शब्द और न अर्थ।
डॉ. नामवर
सिंह का एक अन्य कथन उनकी इसी पुस्तक के निबन्ध ‘काव्य-बिंब
और सपाटबयानी’ से प्रस्तुत
है-
‘‘
कविता बिम्ब का पर्याय नहीं है। जहाँ तक मूर्तिमत्ता
का प्रश्न है, वह तो बिम्बवादी
काव्य-सिद्धांत को अपनाये बिना भी
सम्भव है। जैसा कि कुछ प्रगतिवादी कवियों की सफल काव्य-कृतियों
में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिये ‘नागार्जुन’
की ‘अकाल
और उसके बाद’ शीर्षक कविता।’’
उक्त कथन
की परख के लिये कथित बिम्बवादी सिद्धान्त की खिल्ली उड़ाने वाला इसी पुस्तक से एक उदाहरण
प्रस्तुत है-
‘जल रहा है
जवान होकर
गुलाब
खोलकर होंठ
जैसे आग
गा रही है
फाग।’
‘टटके बिम्ब
की ताज़गी’ के लिये विशेष
रूप से डा. नामवर सिंह
द्वारा उल्लेखित इस केदारनाथ सिंह की कविता ने क्या प्रास के रजतपाश से मुक्ति पा ली
है? या अलंकार की उपयोगिता को यह
कविता अस्वीकार करती है? क्या इसमें
छायावादी रोमांस के संस्कारों से कोई वर्जना है? उत्तर
है-नहीं। तब इसे नयी कविता के
रूप में कैसे परखना है। यह तो छायावादी संस्कारों की प्रगतिशील आलोचना है,
इसीलिये संशय घना है,
क्योंकि इसका बिम्ब आग और गुलाब से बना है। लेकिन यह
कविता अपने संक्षिप्त रूपाकार में अधिक भावों और विचारों की जटिल स्थिति को कैसे व्यंजित
कर जाती है, हमारे लिये
न सही, क्या डा.
नामवर सिंह के लिये भी बताना मना है।
अस्तु, अपने निबंध
‘काव्य-बिम्ब
और सपाटबयानी’ के अंतर्गत
उन्होंने जितनी भी कविताओं के उदाहरण दिये है, वे
नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके
बाद’ की मूर्तिमत्ता के समक्ष बेजान
और बौने हैं।
इसी पुस्तक
के ‘विसंगति और बिड़बना’
निबंध के अन्तर्गत किसी भी क्रीड़ा-कौशल
का उपयोग करने और क्रीड़ा-कौशल द्वारा
रूमानी छायावादी भावुकता को तोड़ने का साहस [ वो भी सफलता के साथ ] रघुवीर सहाय की
कविता किस प्रकार करती है, इसे भी देखिए-
‘‘तुम उसका
क्या करती हो मेरी लाडली
अपनी व्यथा
के संकोच से मुक्त होकर
जब मैं तुम्हें
प्यार करता हूँ।’’
डॉ. नामवर
सिंह इस कविता के बारे में लिखते हैं-‘‘एक
‘लाडली’
शब्द पूरी कविता को और ही रंग दे देता है।’’
‘लाड़ली’
शब्द भारतीय संस्कारों में बेटी के संदर्भ में प्रयोग
किया जाता है। यदि इस ओर डॅाक्टर साहब का ध्यान चला गया होता तो यह कविता,
समूची हिन्दी-कविता
के लिये एक उपलब्धि बन गयी होती। ऐसे में इसकी विसंगति या विडम्बना,
रूमानी छायावादी संस्कारों के साथ-साथ
जाने कितने अन्य संस्कारों को भी तोड़ती ?
इसी पुस्तक
के ‘अनुभूति की जटिलता और तनाव’
नामक निबंध में अनुभूति कितनी जटिल और तनाव कितना तीव्र
और गहरा है, आइये इसे
भी देखें-
‘क्षण भर तुम्हें
निहारूँ
अनजानी एक-एक
रेखा पहचानूँ
चेहरे की,
आँखों की
अन्तर्मन
की
और हमारे
साझे की अनगिनत स्मृतियों की
..........................................
धीरे-धीरे
धुंधले में
चेहरे की रेखाएँ मिट जायें
केवल नेत्र
जगें
................
केवल बना
रहे विस्तार-हमारा बोध
मुक्ति का
सीमाहीन खुलेपन
का ही ।’
डॉ. नामवर
सिंह इस कविता के बारे में कहते हैं कि-‘‘इस
प्रकार प्रेम की इस कविता में भी ‘मुक्ति
के बोध’ की अभिव्यक्ति है,
जो कदाचित् ‘बच्चन’
के प्रेम-गीत
के सम्मुख कठिन बौद्धिकता का कथन प्रतीत हो। कहना न होगा कि यथार्थ और अधिक सघन है।
संदर्भ के अनुभव ही इस कविता में अनुभूति की जटिलता भी है,
सघनता भी और विसंवादी पक्षों की एक कुशल समाहिति भी।’’
हरी घास पर
प्रेमिका को प्रेमी द्वारा निहारने [ वो भी क्षण भर ] से चेहरे-आँखों,
अन्तर्मन और साँझ की अनगिन स्मृतियों की यदि एक-एक
रेखा पहचानी जा सकती है और उसी क्षण में धुंधलका
[ वो भी धीरे-धीरे ] जीवंत
हो उठे, रात का एहसास जागने लगे,
चेहरे की रेखाएँ मिटने लगें,
उन्हें ढूँढने के लिये मुक्ति के बोध में सीमाहीन खुलापन
पसर जाये तो मानना ही पडे़गा कि इसकी अनुभूति बड़ी ही जटिल रही होगी?
क्योंकि यह सब एक ही क्षण में हुआ है।
भले ही उपरोक्त
कविता किसी तनाव को संदर्भित न करे, लेकिन
अर्थ-मीमांसकों का इस कविता को पढ़ते
और अर्थ ग्रहण करते जो ‘तनाव’
होगा, उसे
ही इस नयी कविता का [ अपनी सुविधानुसार ] एक नया प्रतिमान जान या मान सकते हैं। लेकिन
अर्थ-मीमांसक कृपया ध्यान रखें-इसकी
कोई रसात्मक व्याख्या न करें, क्योंकि
डॉ. सिंह इन पंक्तियों को प्रस्तुत करने से पूर्व यह तथ्य प्रकट कर चुके हैं कि इस
‘‘कविता में प्रणय निवेदन के
नाम पर न तो कोई भावोच्छवास है और न प्रलाप।’’
डॉ. नामवर
सिंह अपने ‘ईमानदारी
और प्रामाणिक अनुभूति’ नामक निबंध
के अन्त में अपने इसी प्रतिमान के बारे में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-‘‘तात्पर्य
यह है कि ईमानदारी ज़रूरी है, लेकिन
कवि के लिये कविता भी ज़रूरी है और इस ज़रूरत के लिये ईमानदारी काफी नहीं है,
न रचना के क्षेत्र में और न आलोचना के।’’
और अपने इस
निष्कर्ष के आधार पर उन्हें ‘जिन्हें
जिस समय बहुत लोग जनप्रेम की दुहाई देने की होड़ मचा रहे हों,
रघुवीरसहाय का यह कथन अधिक ईमानदारी भरा लगता है-
‘‘एक मेरी मुश्किल
है जनता
जिससे मुझे
नफरत है सच्ची और निस्संग
जिस पर कि
मेरा क्रोध बार-बार न्यौछावर
होता है।’’
कुछ ऐसी ही
निरस्त्र कर देने वाली ईमानदारी वे श्रीकान्त वर्मा की इन पंक्तियों में देखते हैं-
‘मैं ग़ौर
से सुन सकता हूँ
औरों के रोने
को
मगर दूसरों
के दुःख को
अपना मानने
की बहुत
कोशिश की,
नहीं हुआ।’
डॉ. नामवर
सिंह इन कविताओं को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं कि-‘इसे
चाहे मानव-द्रोह कहें,
अहं का विस्फोट कहें,
लेकिन इस आत्म-स्वीकृति
की ईमानदारी में संदेह नहीं किया जा सकता। वैसे, यह
अनिवार्यतः कवि की आत्म-स्वीकृति
है भी नहीं। है तो काव्य-नायक की,
जो अपने कथन के द्वारा आज की दुनिया में फैलते हुए व्यक्ति
से व्यक्ति के अलगाव से पैदा होने वाली संवेदनहीनता के सत्य की सख़्त ज़रूरत है।’’
श्रीकांत
वर्मा की इन पक्तियों का कड़वा सच इतना तो तय है कि संवेदनहीनता का न तो कोई प्रमाण
है और समझदार अर्थवेत्ता [ डॉ. नामवर सिंह को छोड़कर ] ऐसा मानने का दुस्साहस कर सकता
है, क्योंकि कवि ने या काव्य-नायक
ने दूसरे के दुःख को अपना दुःख मानने की बहुत कोशिश की है। बस विचारणीय यहाँ यह है
कि इस हताशा और निराशा से सराबोर आत्म की स्थापना काव्य-क्षेत्र
में इसलिये संदिग्ध है, क्योंकि डॉ.
सिंह मानते हैं कि ‘ईमानदारी
ज़रूरी है, लेकिन कवि
के लिये कविता भी ज़रूरी है। इस ज़रूरत के लिये ईमानदारी काफी नहीं है। न रचना के क्षेत्र
में न आलोचना के क्षेत्र में।’’
फिर भी कविता
में यदि ईमानदारी का यह रूप है तो इसका अर्थबोध डॉ. सिंह के लिये एक बहुत बड़ी उपलब्धि
भले हो, किन्तु यह सामाजिकों को संवेदनशील
नहीं, संवेदनहीन ही बनायेगा।
तात्पर्य
यह कि जो ईमानदारी सामाजिकों को ईमानदारी के प्रति सचेत करने के बजाय संवेदनहीनता की
ओर ले जाये और डॉ. सिंह को यह हर पल यह चिंता सताये कि-‘चाहे
मानवद्रोह कहें, चाहे अहम्
का विस्फोट’ तो ऐसी आत्म-स्वीकृति
की ईमानदारी पर संदेह ही किया जायेगा।
‘कविता के
नये प्रतिमान’ नामक पुस्तक
में मुक्तिबोध की ‘एक भूतपूर्व
विद्रोही का कथन’ शीर्षक कविता
भी ऐसी ही एक आत्म स्वीकृति के उदाहरण के रूप में भले ही डॉ. सिंह के द्वारा रखी जाये,
किन्तु ऐसी आत्म-ग्लानि
किस काम की जो जीवन के ग़लत मूल्यों के खिलाफ़ किये गये संघर्ष और विद्रोह को एक अपराध-बोध
से संत्रस्त कर दे। वह भी मात्र इस कारण से कि-‘‘हम
एक ढहे हुए मकान के नीचे दबे हैं। दुःख तुम्हें भी है,
दुःख मुझे भी है।’’ का
अर्थबोध् अनुताप नहीं, पश्चाताप
में अनुनादित है, किन्तु इस
उद्भाष तक न तो डॉ. सिंह पहुँचते हैं न दूसरों को पहुँचने देना चाहते हैं।
इसी पुस्तक
में श्रीकांत वर्मा की ‘बुखार में
कविता’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ
भी कि ‘‘मुझे दुःख नहीं मैं किसी का
न हुआ, दुःख है कि मैंने सारा समय
हरेक का होने की कोशिश की।’’ कवि के मनोगत
अभिप्रायों को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने के बजाय कुंठित अधिक करता है। यह ईमानदारी
रागात्मक समृद्धि नहीं,
रागात्मक विपन्नता है। कमाल यह है कि ‘ईमानदारी
और प्रामाणिक अनुभूति’ के नाम पर
उक्त निबंध में ऐसी ही कविताओं की भरभार है। सत्कार है।
ईमानदार कवि-कर्म
की प्रामाणिक अनुभूति के दर्शन करने हों तो क्रांतिकारी पं रामप्रसाद ‘बिस्मिल’
की इन पंक्तियों में किये जा सकते हैं,
जिसमें न तो कोई अनुताप है और न परिणाम के प्रति कोई
पश्चाताप या अपराध-बोध-
‘‘बला से हमको
लटकाये अगर सरकार फाँसी से
लटकते आये
अक्सर पैकरे-ईसार फाँसी
से।
इतने सरफरोशाने-वतन
बढ़ जायेंगे क़ातिल
कि लटकाने
पड़ेंगे तुझे नित दो चार फाँसी से।।’’
अस्तु!
मानना पड़ेगा कि मानवीय जीवन की विसंगतियाँ,
बिडम्बनाएँ, अनुभूति
की जटिलताएँ, तनाव,
ईमानदारी, प्रामाणिक
अनुभूतियाँ तथा डॉ. सिंह द्वारा उल्लेखित ‘परिवेश
और मूल्य’ आदि यदि काव्य-सृजन
का विषय बनते हैं और ये प्रतिमान अगर काव्य-भाषा,
बिम्ब, सृजनशीलता,
संरचना, प्रतीकात्मकता,
नाटकीयता आदि का सहारा लेकर काव्य को अर्थवान बनाते
हैं तो यह भी निश्चित है कि मानवीय जीवन के लिये इन प्रतिमानों के अर्थ-संकेत
बिना कोई संदेह किये, मानवीय जीवन
के लिये ही हैं।
अतः महत्वपूर्ण
यह नहीं है कि बिम्ब कितना टटका या ताज़ा है, सृजनशीलता
कितनी नयेपन से अभिभूत है, काव्य-रचना
कितनी प्रयोगात्मक या नाटकीय है, विसंगति,
बिडंबना या अनुभूति की जटिलता कितनी प्रामाणिक है,
तनाव कितना गहरा या उथला है,
परिवेश कितना वास्तविक और मूल्य कितने सही है?
इन सब तथ्यों के प्रतिमानों का महत्व इस संदर्भ में
है कि ये सब प्रतिमान या तथ्य, कविता
के माध्यम से मानवीय जीवन या मानव-कल्याण
के लिये क्या अर्थ-संकेत देते
हैं।
इस दृष्टि
से डा. नामवर सिंह की मूल्यांकन-दृष्टि
मात्र अन्तर्विरोधें को ही जन्म नहीं देती, अ-यथार्थवादी
भी है, जो जाने-अनजाने
मानवीय चेतना को तेजस कम, कुंठित ज्यादा
करती है। प्रगतिशीलता के नाम पर अँधेरे के रंग भरती है। संम्भवतः यह श्रीकांत वर्मा,
केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध को कविता के क्षेत्र में
स्थापित करने की ग़रज से किया गया सुकर्म है और यह सुकर्म ही उन्हें कविता क्या है?
जैसे मूलभूत प्रश्न के उत्तर के प्रति संदिग्ध बनाता
है।
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-15/109,ईसानगर,
निकट-थाना
सासनीगेट, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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