विचार
और रस [ एक
]
+रमेशराज
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काव्य के संदर्भ में ‘रस’ शब्द का अर्थ-मधुरता,
शीतल पदार्थ, मिठास
आदि के साथ-साथ एक अलौकिक आनंद प्रदान करने वाली सामग्री के रूप में लिया जाता रहा
है। विचारने का विषय यह है कि ‘विभावानुभाव व्यवभिचारे संयोगाद् रसनिष्पत्तिः’ सूत्र
के अनुसार किसी काव्य-सामग्री के आस्वादनोपरांत आश्रय अर्थात् पाठक या श्रोता में जो
रसनिष्पत्ति होती है, उसकी एक अवस्था
तो यह है कि एक आस्वादक में जिस सामग्री से अखंड, अद्वितीय,
चिन्मय और अपनत्व, परत्व
की भावना से मुक्त रसदशा बनती है, जबकि
उसकी सामग्री के आस्वादन से एक-दूसरे आस्वादक की कोई तथाकथित रसदशा नहीं बन पाती।
रस आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तुलसी के काव्य के
साथ जो रसदशा बनती है, उसमें उनकी
कथित ‘सहृदयता’ साफ-साफ अनुभव की जा सकती है, लेकिन
केशव और कबीर की काव्य-सामग्री का आस्वादन उनके सारे के सारे रसात्मकबोध् को किरकिरा
कर डालता है। केशव और कबीर की काव्य सामग्री के आस्वादन में आचार्य शुक्ल इतने हृदयहीन
क्यों हो जाते हैं कि केशव को काव्य का प्रेत घोषित कर डालते हैं और कबीर और दादू आदि
को हृदयहीन कवि बताने लग जाते हैं, जबकि
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को कबीर और डॉ. विजयपाल सिंह को केशव का काव्य घनघोर
रसवर्षा करता हुआ जान पड़ता है।
प्रश्न यह है कि यदि केशव और कबीर के काव्य में
कोई रस है तो उसका बोध आचार्य शुक्ल को क्यों नहीं होता है?
इस रसाभास का आखिर कारण क्या है?
इसका सीधा-सीधा उत्तर यह है कि किसी भी आश्रय की कथित
‘सहृदयता’ उसकी चिंतन प्रक्रिया पर निर्भर करती है, अर्थात्
किसी काव्य-सामग्री को वह किन अर्थों, किन
संदर्भों में लेता है। जो सामग्री सामाजिक के संस्कारों,
वैचारिक अवधारणाओं, जीवन
मूल्यों की तुष्टि एवं सुरक्षा प्रदान करेगी, उसके
प्रति वह कथित रूप से ‘सहृदय’ हो उठता है। स्थिति यदि इसके विपरीत होती है तो उसके
मन में उस सामग्री के प्रति विरक्ति [ कथित हृदयहीनता ] या रसाभास की अवस्था जागृत
हो जाएगी।
अतः काव्य-सामग्री में वर्णित पात्रों के चरित्र,
विचारधाराओं, संस्कारों,
क्रियाकलापों से पाठक,
श्रोता या दर्शक अर्थ ग्रहण करता है,
उसी के आधार पर वह कुछ निर्णय भी लेता है,
इसी निर्णय के अंतर्गत उसके मन में किसी विशेष प्रकार
की ऊर्जा या भाव का निर्माण होता है, जिसे रसाचार्यों ने रसाभास कहा है,
यह भी एक रसात्मकबोध की ही अवस्था है,
लेकिन यह रसात्मकबोध,
किसी भी काव्य-सामग्री के प्रति प्रतिवेदनात्मक क्रिया
में क्रोध, घृणा,
ईष्र्या आदि के रूप में जागृत होता है। यदि आचार्य शुक्ल
केशव को काव्य के प्रेत और हृदयहीन कवि कहते हैं तो उनके वाचिक अनुभावों से यह पता
आसानी से लगाया जा सकता है कि उनके मन में केशव की काव्य-रचना की प्रति संवेदनात्मक
रसात्मकबोध् से अलग प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध का निर्माण हुआ है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रसात्मकबोध की दो अवस्थाएँ
आश्रयों के मन में निर्मित होती हैं-
1.
संवेदनात्मक रसात्मकबोध
इस प्रकार के रसात्मकबोध की अवस्था में पाठक,
श्रोता या दर्शक के मन में ‘रमणीयता’ जैसे तत्त्व का
निर्माण होता है। काव्य-सामग्री की सुखानुभूति हषार्दि का संचार करती है। पाठक,
श्रोता या दर्शक ऐसी काव्य-सामग्री को बार-बार पढ़ना,
देखना या सुनना चाहता है। आल्हा-ऊदल,
बुलाकी नाऊ, अकबर-बीरबल
आदि के किस्से आज भी लोकजीवन के संवेदनात्मक रसात्मकबोध के आधार बने हुए हैं। ठीक इसी
प्रकार हिंसा, सैक्स और
फूहड़ प्रेम-प्रधान फ़िल्में , मस्तराम
लखनवी, पम्मी दीवानी,
गुलशन नन्दा, ओम
प्रकाश, कर्नल रंजीत आदि के गैर-साहित्यिक
उपन्यास युवावर्ग को विशेष प्रकार की सुखानुभूति से [ आज के दौर में ] सिक्त करते हैं।
बच्चों के बीच चित्रकथाओं का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है। पाठक का जहाँ तक सार्थक साहित्यिक
कृतियों के पठन-पाठन से संबंध का प्रश्न है तो ये साहित्यिक कृतियाँ उन्हीं पाठकों
को संवेदनात्मक रसात्मकबोध से सिक्त करती हैं, जो
पढ़े-लिखे, जागरूक और
मानव-सापेक्ष चिंतन के धनी होते हैं।
संवेदनात्मक
रसात्मकबोध के अंतर्गत मात्र स्नेह , प्रेम,
रति, वात्सल्य,
हास्य, भक्ति
आदि के ही भाव ‘रमणीयता’ जैसे तत्त्व का निर्माण करते हों,
ऐसा सोचना नितांत गलत है। एक अनाचार,
अत्याचार, भ्रष्टाचार
आदि के विरोध में चिंतन करने वाले या कुव्यवस्था में परिवर्तन की छटपटाहट रखने वाले
पाठक को ऐसी कृतियाँ ही संवेदनात्मक रसात्मकबोध से सिक्त करेंगी,
जो लोक या मानव को पीड़ा से मुक्ति के मार्ग सुझाने
में अपना योगदान देती हैं। अतः संवेदनात्मक रसात्मकबोध का आधार वे भाव भी बन जाते हैं,
जिनकी रस-प्रक्रिया विरोध,
विद्रोह, आक्रोश,
करुणादि के द्वारा संपन्न होती है।
2.
प्रतिवेदनात्मक रसात्मक बोध
जब पाठक, श्रोता
या दर्शक किसी काव्य-सामग्री का आस्वादन करते हैं, तब
वह काव्य-सामग्री यदि आस्वादकों की जीवन-दृष्टि, उनकी
संवेदनात्मक मूल्यवत्ता, उनकी रागात्मक
चेतना के विपरीत जाती है, तो आस्वादकों
में उस सामग्री के प्रति मात्र रमणीयता जैसे तत्त्वों की ही कमी नहीं हो जाती,
बल्कि उनके मन में क्रोध,
विरोध, विद्रोह
आदि का संचार होने लगता है। यदि कोई हिंदी प्रेमी ऐसे साहित्य को पढ़ रहा है,
जिसके अंतर्गत हिंदी का विरोध किया गया है तो वह हिंदी
प्रेमी ऐसी काव्य-सामग्री के प्रति दुःखानुभूति से सिक्त होकर विरेाध और विद्रोह की
प्रतिवेदनात्मक रसात्मक अवस्था में पहुँच जाएगा। यह प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध का ही
परिणाम है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पूरे-के-पूरे रीतिकालीन काव्य को गठरी
में बाँधकर किसी नदी में फैंकने की बात कह उठते हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध को उर्वशी
में सिर्फ एक फूहड़ सैक्स कथा महसूस होती है। ठीक इसी प्रकार प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध
की स्थिति आज ऐसे सुधी श्रोताओं में देखी जा
सकती है, जो चाहे किसी मजबूरी के तहत
ही सही, आज के फूहड़,
अश्लील और डिस्को गीतों को जब सुनते हैं तो गीतकारों
से लेकर संगीतकारों को कोसते नजर आते हैं।
इस प्रकार प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध के प्रति
हम यह निष्कर्ष आसानी के साथ निकाल सकते हैं कि जिन वस्तुओं,
पात्रों आदि की क्रियाएँ हमें अच्छी और रुचिकर नहीं
लगतीं, उनके प्रति हमारे मन में क्रोध,
जुगुप्सा, घृणा,
विरोध, विद्रोह
आदि की प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध की अवस्था जागृत हो जाती है। काव्य के पात्रों में
भी इस प्रकार का रसात्मकबोध हमें जगह-जगह दिखलाई पड़ता है। सूपनखा के रत्यात्मक अनुभावों
के प्रति राम में प्रतिवेदनात्मक-बोध जब जागृत होता है तो वे क्रोध से सिक्त होकर उसके
नाक-कान काट लेते हैं। उर्वशी की नायिका औशीनरी जब पुरुरवा और उर्वशी के मिलन की चर्चाएँ
सुनती है तो उसके मन में इन पात्रों की रति-ईष्र्या,
डाह, क्रोध
और अवसाद बनकर उभरती है।
एक आस्वादक के संवेदनात्मक,
प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध की व्याख्या से यह बात तो
स्पष्ट हो ही जाती है कि हर प्रकार के रसात्मकबोध का आधार हमारे वैचारिक संस्कारों
की वह पृष्ठभूमि है जिसकी रागात्मक चेतना हमारे जीवन मूल्यों के प्रति सुरक्षा-असुरक्षा
पर निर्भर रहती है। संप्रदायों, विभिन्न
वादों, विभिन्न जातियों,
प्रांतों आदि के बीच बँटा हमारा रसात्मकबोध हमारी आत्मसुरक्षा
की ही एक प्रक्रिया का अंग है | किंतु रस को ही काव्य की कसौटी मानकर उसे ‘काव्य की
आत्मा’ घोषित कर देने का मतलब होना कि हमें ऐसे सारे खतरे उठाने पड़ेंगे,
जिनके तहत अश्लील और अपराध साहित्य भी इस कोटि में आ
जाएगा और वे कृतियाँ भी श्रेष्ठ घोषित हो जाएँगी, जिनसे
व्यक्तिवाद, संप्रदायवाद,
साम्राज्यवाद की जड़ें मजबूत होती हैं। अतः श्रेष्ठ
काव्य-सामग्री के रसात्मकबोध को पहचानने के लिए हमें ऐसे किसी मापक की आवश्यकता जरूर
पड़ेगी, जो इस रसात्मकता को लोक या
मानव-मूल्यों के सापेक्ष परख सके। वर्ना चाहे संवेदनात्मक रसात्मकबोध हो,
या प्रतिसंवेदनात्मक रसात्मकबोध,
ऐसे खतरे तो पैदा करेगा ही,
जिनके अंतर्गत एक व्यभिचारी भी हमें शृंगारी दिखाई देगा
और शोषकों के प्रति भोले जनमानस में भक्तिभाव जागृत होता रहेगा या हमारा सारा-का-सारा
गुस्सा किसी सही और असहाय पर उबल पड़ेगा। अतः महत्वपूर्ण यह नहीं है कि एक आस्वादक
की किसी काव्य-सामग्री कैसी मधुर, शीतल,
मिठासभरी और कथित अलौकिक दशा बनी,
बल्कि काव्य के रसात्मक मूल्यांकन के संदर्भ में महत्वपूर्ण
यह है कि काव्य का आस्वादन किस प्रकार की रसात्मक दशा प्रदान कर रहा है और उसका लोक
या मानव के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?
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रमेशराज,
15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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