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18 अगस्त 2017

युद्ध


       (1)
जीवन मानव का
हर पल एक युद्ध है
मन के अंतर्द्वन्द्व का
स्वयं के विरुद्ध स्वयं से
सत्य और असत्य के सीमा रेखा
पर झूलते असंख्य बातों को
घसीटकर अपने मन की अदालत में
खड़ा कर अपने मन मुताबिक
फैसला करते हम
धर्म अधर्म को तोलते छानते
आवश्यकताओं की छलनी में बारीक
फिर सहजता से घोषणा करते
महाज्ञानी बनकर क्या सही क्या गलत
हम ही अर्जुन और हम ही कृष्ण भी
जीवन के युद्ध में गांधारी बनकर भी
जीवित रहा जा सकता है
वक्त शकुनि की चाल में जकड़.कर भी
जीवन के लाक्षागृह में तपकर
कुंदन बन बाहर निकलते है
हर व्यूह को भेदते हुए
जीवन के अंतिम श्वास तक संघर्षरत
मानव जीवन.एक युद्ध ही है
          (2)
ऊँचे ओहदों पर आसीन
टाई सूट बूट से सुसज्जित
माईक थामे बड़ी बातें करते
महिमंडन करते युद्ध का
विनाश का इतिहास बुनते
संवेदनहीन हाड़ मांस से बने
स्वयं को भाग्यविधाता बताते
पाषाण हृदय निर्विकार स्वार्थी लोग
देश के आत्मसम्मान के लिए
जंग की आवश्यकता पर
आकर्षक भाषण देते
मृत्यु का आहवाहन करते पदासीन लोग
युद्ध की गंध बहुत भयावह है
पटपटाकर मरते लोग
कीड़े की तरह छटपटाकर
एक एक अन्न.के दाने को तरसते
बूँद बूँद पानी को सूखे होंठ
अतिरिक्त टैक्स के बोझ से बेहाल
आम जनमानस
अपनों के खोने का दर्द झेलते
रोते बिसूरते बचे खुचे लोग
अगर विरोध करे युद्ध का
देशद्रोही कहलायेगे
देशभक्ति की परीक्षा में अनुत्तीर्ण
राष्ट्रभक्त न होने के भय से मौन व्रत लिये
सोयी आत्मा को थपकी देते
अनदेखा करते बुद्धिजीवी वर्ग
एक वर्ग जुटा होगा कम मेहनत से
ज्यादा से ज्यादा जान लेने की तरकीबों में
धरती की कोख बंजर करने को
धड़कनों.को गगनभेदी धमाकों और
टैंकों की शोर में रौंदते
लाशों के ढेर पर विजय शंख फूँकेगे
रक्त तिलक कर छाती फुलाकर नरमुड़ पहने
सर्वशक्तिमान होने का उद्घोष करेगे
शांतिप्रिय लोग बैठे गाल बजायेगे
कब तक नकारा जा सकता है सत्य को
युद्ध सदैव विनाश है
पीढ़ियों तक भुगतेगे सज़ा
इस महाप्रलय की अनदेखी का।

10 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. आपके बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभार कुलदीप जी।

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  2. स्वेता जी की दोनो कवितायें समय की कालिख का बेजोड़ उदाहरण हैं .उन्हें बहुत बधाई.

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    उत्तर
    1. हृदय से बहुत बहुत आभार एवं सस्नेह शुक्रिया आपका अपर्णा जी।

      हटाएं
  3. आपका हृदय से आभार आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  4. युद्ध के अलग -अलग आयाम प्रस्तुत करती श्वेता जी आपकी दोनों रचनाऐं प्रभावोत्पादक और विचारोत्तेजक हैं।
    व्यक्ति के विवेक पर निर्भर विनाश का तांडव और मानवता को रौंद डालने के फैसले आज की दुनिया के समक्ष कठिन चुनौती बने हुए हैं जबकि हम क़बीलाई युद्ध से अब बाहर आकर अपने आपको सभ्य समाज कहने में फ़ख़्र महसूस करने लगे हैं।
    देखा जाय तो सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते मनुष्य आज भी अपनी आदिम प्रवृत्तियों के चंगुल में जकड़ा हुआ है।
    ऐसी रचनाऐं समय की ज़रूरत हैं जोकि जनमानस को प्रभावित करती हैं। लिखते रहिये मानवता का उजला पक्ष सामने रखता आपका सृजन सराहनीय एवं प्रसंशनीय है। बधाई एवं शुभकामनाऐं।

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