अचानक नहीं होता
आंतक का आगमन।
विश्वास की मजबूत
धरा को नफ़रत से सींचकर
रौंपे जाते हैं आंतक के विषैले बीज।
नहीं करते जो मौसम
के आने का इंतज़ार
फूट पड़ते हैं रातों-रात।
बिना खाए सूर्य की गर्माहट,
प्रतिक्षण विकसित
भय की पत्तियां
माघ के पाले की
ठंड से भी नहीं झरती,
न ही झुलसती है आंतक की पौध।
जेठ की दोपहरी में तपाती
गर्म हवा के थपेड़ो से।
विद्वेष की दुर्गन्ध
छिटकते हुए पुष्प नहीं
रक्त फूटता है
आंतक की फुनगी से
और हो जाती है
धरती स्याह।
- शोध छात्रा हेमलता यादव
वाह्ह्ह...लाज़वाब रचना👌👌
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल jbfवार (27-08-2017) को "सच्चा सौदा कि झूठा सौदा" (चर्चा अंक 2709) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सटीक रचना
जवाब देंहटाएंnice expression
जवाब देंहटाएंसत्य कहा उत्तम विचार हृदय से स्वागत है. शुभकामनाओं सहित ,आभार ''एकलव्य"
जवाब देंहटाएंसटीक चिंतन उभरा है रचना में। बधाई एवं शुभकामनाऐं !
जवाब देंहटाएंसुन्दर ....सटीक....
जवाब देंहटाएंलाजवाब प्रस्तुति...