डॉक्टर को
उसके गुरु
सिखाया करते थे-
"मौत से घृणा करो"
वे आज
विश्वास के क़ातिल /
मौत के
सौदाग़र हो गए
पैसे के भारी
तलबग़ार हो गए।
नेता को
उसके गुरु
सिखाया करते थे-
"राजनीति का ध्येय
समाज-कल्याण है
उसूलों पर खरे उतरना "
वे आज
लाशों पर
रोटियां सेकने
माहौल बिगाड़ने में
माहिर हो गए
भ्रष्टाचारी / अवसरवादी दुनिया के
मुसाफ़िर हो गए।
शिक्षक को
उसके गुरु
सिखाया करते थे-
"चरित्र-निर्माण ही
राष्ट्र-निर्माण है"
वे आज
वैचारिक दरिद्रता के
क़ायल हो गए
अपनी ही शिक्षा के
तीरों से घायल हो गए ।
संत को
उसके गुरु
सिखाया करते थे -
"मोह माया से दूर रहो
आध्यात्मिक ज्ञान से
समाज-सुधार करो"
वे आज
बड़े व्यापारी हो गए
भोली जनता की
गाढ़ी कमाई खाकर
समाज पर
बोझ भारी हो गए।
कलाकार को
उसके गुरु ने
यह कहते हुए तराशा -
"कला का मक़सद
सामजिक-चेतना को
उभारना है
दरबारी कृपामंडल में
चमकना नहीं
रूह को वीरान
होने देना नहीं
जितना तपोगे
उतना निखरोगे "
वे आज
भोगवादी विचार के
शिकार हो
विलासता में सिमट गये
सरकारी ओहदे /अवार्ड / अनुदान की
परिधि में
कलात्मक -विद्रोह से
महरूम हो
सत्ता के हाथों
लुट-पिट गये।
नैतिक पतन के दौर में
हम अपनी ग़लतियों
के लिए
प्रायश्चित नहीं करते
न ही कभी
अपने भीतर झाँकते
परिणाम सामने हैं
दोषारोपण के और कितने
मील के पत्थर गाढ़ने हैं ?
सामाजिक मूल्य गहरी नींद सो गए. ......!
गुरु क्यों अब अप्रासंगिक हो गए ?
#रवीन्द्र सिंह यादव
उसके गुरु
सिखाया करते थे-
"मौत से घृणा करो"
वे आज
विश्वास के क़ातिल /
मौत के
सौदाग़र हो गए
पैसे के भारी
तलबग़ार हो गए।
नेता को
उसके गुरु
सिखाया करते थे-
"राजनीति का ध्येय
समाज-कल्याण है
उसूलों पर खरे उतरना "
वे आज
लाशों पर
रोटियां सेकने
माहौल बिगाड़ने में
माहिर हो गए
भ्रष्टाचारी / अवसरवादी दुनिया के
मुसाफ़िर हो गए।
शिक्षक को
उसके गुरु
सिखाया करते थे-
"चरित्र-निर्माण ही
राष्ट्र-निर्माण है"
वे आज
वैचारिक दरिद्रता के
क़ायल हो गए
अपनी ही शिक्षा के
तीरों से घायल हो गए ।
संत को
उसके गुरु
सिखाया करते थे -
"मोह माया से दूर रहो
आध्यात्मिक ज्ञान से
समाज-सुधार करो"
वे आज
बड़े व्यापारी हो गए
भोली जनता की
गाढ़ी कमाई खाकर
समाज पर
बोझ भारी हो गए।
कलाकार को
उसके गुरु ने
यह कहते हुए तराशा -
"कला का मक़सद
सामजिक-चेतना को
उभारना है
दरबारी कृपामंडल में
चमकना नहीं
रूह को वीरान
होने देना नहीं
जितना तपोगे
उतना निखरोगे "
वे आज
भोगवादी विचार के
शिकार हो
विलासता में सिमट गये
सरकारी ओहदे /अवार्ड / अनुदान की
परिधि में
कलात्मक -विद्रोह से
महरूम हो
सत्ता के हाथों
लुट-पिट गये।
नैतिक पतन के दौर में
हम अपनी ग़लतियों
के लिए
प्रायश्चित नहीं करते
न ही कभी
अपने भीतर झाँकते
परिणाम सामने हैं
दोषारोपण के और कितने
मील के पत्थर गाढ़ने हैं ?
सामाजिक मूल्य गहरी नींद सो गए. ......!
गुरु क्यों अब अप्रासंगिक हो गए ?
#रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-08-2017) को "पुनः नया अध्याय" (चर्चा अंक 2707) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत -बहुत धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी। चर्चा मंच के माध्यम से रचना को मान और सुधि पाठकों का स्नेहाशीष मिलता है। अभिभूत हूँ अपनी रचना चर्चा मंच पर देखकर। आभार सादर।
हटाएंगुरु की सीख से परे अनैतिकता और बुराई का बोलबाला. बहुत सुन्दर ढंग से समझाया है आपने गुरु के महत्त्व को।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार विनोद जी उत्साहवर्धन के लिए।
हटाएंआभार ज़रूरी सूचना के लिए।
जवाब देंहटाएं