यादों का ये कैसा जाना-अनजाना सफ़र है,
भरी फूल-ओ-ख़ार से आरज़ू की रहगुज़र है।
रहनुमा हो जाता कोई,
मिल जाते हैं हम-सफ़र,
रौशनी बन जाता कोई,
हो जाता कोई नज़र,
ऐसी लगन बेताबियों की,
हो जाता कोई दरबदर है।
याद धूप है याद ही छाँव है,
तड़प-ओ-ख़लिश का एक गाँव है,
याद रात है याद ही दिन है,
न फ़लक़-ज़मीं पर होता पाँव है,
हिय में हूक होती है पल-पल,
बस बेक़रारी में चश्म-ए-तर है।
सुध न तन की न ही मन की,
तसव्वुर में रहती तस्वीर उनकी,
ठौर-ए-वस्ल ताजमहल लगता है,
आब-ए-चश्म गंगाजल लगता है,
बे-ख़ुदी में रहती किसे क्या ख़बर,
कब शब हुई कब आयी सहर है।
दौर-ए-ग़म में भाता नहीं मशवरा,
लगता ज्यों चाँदनी रात में हो बारिश,
आये हवा उनके दयार की तो लगता है,
छुपा है इसमें संदेशा और सिफ़ारिश,
ज़माने की लाख बंदिशों को तोड़ने,
बार-बार दिल में उठती एक लहर है।
#रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-10-2017) को
जवाब देंहटाएं"ज़िन्दगी इक खूबसूरत ख़्वाब है" (चर्चा अंक 2771)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी।
हटाएंआपके स्नेह का सदैव आकांक्षी।
चर्चामंच में अपनी रचना को स्थान मिलने से मन प्रफुल्लित हो उठता है।
नए पाठकों परिचय भी बढ़ता है।
सादर।
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका आदरणीय उत्साहवर्धन के लिए।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंमनोबल बढ़ाने के लिए आपका हार्दिक आभार।
हटाएंबहुत उम्दा प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय दिगंबर जी।
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