मृदु भावों के
अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ
तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा
स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।
प्यास तुझे तो,
विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी
बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो
तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर
दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें
भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक
छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम
दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।
भावुकता अंगूर
लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर
आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली
होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं
पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।
मधुर भावनाओं की
सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु
से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के
हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ
मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
स्वागत है आप का इस ब्लौग पर, ये रचना कैसी लगी? टिप्पणी द्वारा अवगत कराएं...