बरस अठारह से
पहले तो शादी सख्त मनाही है
बारह क्लास अभी
पढ़ना है तकि मैं कुछ बन पाऊँ
फिर बंधन की
सोचूँ बोलो इसमें कौन बुराई है
रिश्ता मेरा रखो
चाहे तोड़ो ये सब तुम जानो
शादी जल्दी न
करने की मैंने कसम उठाई है
वैसे भी मैं अपने
कानूनी हक खूब समझती हूँ
कच्ची कली अभी
हूँ मैं, न रुत खिलने की आई है
मुझको ज़ोर-
जबर्दस्ती से
डोली नहीं बिठा देना
फूटेगी तो
पछताओगे, कच्ची अभी सुराही है
मैं भी हार नहीं
मानूँगी कोर्ट-कचहरी जाऊँगी
अन्याय से लड़ने
को ही मुंसिफ़ और सिपाही है
और ख़लिश दरकार
नहीं कुछ, थोड़ी सी आज़ादी दो
क्या मन-मरज़ी
करने को बस केवल मेरा भाई है.
--
महेश चन्द्र
गुप्त ’ख़लिश’
nice one
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