एक ग़ज़ल : आदर्श की किताबें ......
आदर्श की किताबें
पुरजोर बाँचता है
लेकिन कभी न अपने
दिल में वो झाँकता है
जब सच ही कहना
तुमको ,सच के सिवा न कुछ भी
फिर क्यूँ हलफ़
उठाते ,ये हाथ काँपता है ?
फ़ाक़ाकशी से मरना ,कोई ख़बर न होती
ख़बरों में इक ख़बर
है वो जब भी खाँसता है
रिश्तों को
सीढ़ियों से ज़्यादा नहीं समझता
उस नाशनास से
क्या उम्मीद बाँधता है !
पैरों तले ज़मीं
तो कब की खिसक गई है
लेकिन वो बातें
ऊँची ऊँची ही हाँकता है
आँखे खुली है
लेकिन दुनिया नहीं है देखी
अपने को छोड़ सबको
कमतर वो आँकता है
कुछ फ़र्क़ तो
यक़ीनन ’आनन’ में और उस में
मैं दिल को जोड़ता
हूँ ,वो दिल को बाँटता है
आनन्द पाठक,जयपुर
यथार्थ कथन !
जवाब देंहटाएं