चर्बी लगे कारतूसों के कारण नहीं हुई 1857 की क्रान्ति
+रमेशराज
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कई इतिहास लेखकों ने 1857 की क्रान्ति को जिस तरह तोड़-मरोड़कर और
भ्रामक तरीके से लिखा है, उससे
अब पर्दा उठने लगा है। ऐसे इतिहासकारों की पुस्तकों में विवरण है कि चर्बी लगे करतूस
लेने के विरोध में विद्रोही स्वभाव अख्तियार करते हुए मंगल पांडेय नामक एक भारतीय सैनिक
ने 29 मार्च सन् 1857 को मेजर सार्जेण्ट, लैफ्रटीनेण्ट बॉग तथा जनरल हियरिंग पर गोलियां
चलायीं। मंगल पांडेय के तीनों वार खाली गये। उत्तेजना और भावातिरेकता की अवस्था में
प्रहार करने के कारण गोलियां सही निशानों पर न लग सकीं। किन्तु जिन लोगों में पूर्व
से ही क्रान्ति की भावना थी, वे साहस से भर उठे और पूरे भारतवर्ष में क्रान्ति की लहर फैल गयी। इस
क्रान्ति में सबसे बढ़-चढ़ कर सामंतों और उनकी फौज ने लिया।
29 मार्च सन् 1857 की घटना के उपरांत यह भी इतिहासकारों ने
लिखा है कि 24 अप्रैल 1857 की मेरठ में तीसरे नम्बर के रिसाले के
90 सवारों में से 85 सवारों ने चर्बी लगे कारतूस लेने से इन्कार
कर दिया। इनमें 36 हिंदू और 49 मुसलिम सैनिक थे। इन सभी को सैनिक अदालत
ने 10 वर्ष की कैद की सजा दी। जिस समय इनको, इनकी बैरकों से ले जाया जा रहा था, उसी समय इन विद्रोहियों ने अपने साथियों
को ललकारा तो वे भी जोश में आकर अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन करने के लिए तैयार हो
गये।
रविवार
के दिन गिरजाघर में जब अंग्रेज एकत्रित हो रहे थे तो उन्हें देखकर आन्दोलनकारी सैनिकों
को लगा कि उनको गिरफ्तार करने की योजना बनायी जा रही है अतः उन्होंने बगावत शुरू करते
हुए हथियार और चर्बी लगे कारतूस लूटे और जेल में बन्द अपने साथियों को छुड़ाने के उपरांत
दिल्ली को मुक्त कराने के लिये कूच कर गये। इसके उपरांत मेरठ में भी यकायक विद्रोह
की ज्वाला फूट पड़ी।
इतिहासकारों
के 1857 की क्रान्ति के बारे में दिये गये इन तथ्यों
में एक नहीं अनेक तथ्य इसलिये वास्तविकता से परे महसूस होते हैं क्योंकि यदि यह मान
भी लिया जाये कि 1857 का विद्रोह चर्बी लगे कारतूसों के कारण
हुआ तो सवाल यह उठता है कि मेरठ के 49 मुसलमान सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा क्यों बुलंद
किया। चर्बी से चिढ़ या घृणा हिन्दू को हो सकती है, मुसलमानों को नहीं। यदि इस बात को सही नहीं
मानें, तब भी सोचने का विषय यह है कि यदि चर्बी
लगे कारतूसों के प्रति सैनिकों में आक्रोश व्याप्त था तो उन्होंने शस्त्रागार से चर्बी
लगे कारतूसों को लूटकर उनका प्रयोग सहज मन से अंग्रेजों के खिलाफ क्यों किया?
दरअसल
चर्बी लगे कारतूस के प्रयोग के कारण विद्रोह का प्रचार अंग्रेजों की सोची-समझी एक चाल
थी। जिसे उन्होंने इसलिए प्रचारित कराया ताकि आमजन क्रान्ति के उस यथार्थ से वाकिफ
न हो सके जो अंग्रेजों की कुनीतियों और अत्याचार के कारण जन-जन में इन घटनाओं से बहुत
पूर्व ही घृणा के रूप में घनीभूत हो चुका था, जिसका प्रमाण झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्याटोपे, बिठूर के राजा, दतिया के महाराज, अजीमुल्ला, भीके नारायण, बहादुरशाह जफर के शाहजादे मीर इलाही, खुशहालीराम, स्वामी विरजानंद, महर्षि दयानंद, कुंअर सिंह आदि के रूप में मिल जाता है।
यही नहीं मंगलपांडेय के संबध एक नहीं अनेक क्रांतिकारियों से 1857 से पूर्व से ही बन चुके थे।
देखा
जाये तो स्वतंत्राता संग्राम अथवा क्रान्ति के बीजों का अंकुरण 1856 में ही मथुरा के जंगलों में हो चुका था।
यहां भादों माह में देश के अनेक क्रानितकारियों ने गुप्त बैठक की। इस बैठक में अजीमुल्ला
खां, रंगोबाबू बादशाह, बहादुर शाह जफर का शाहजादा मीर इलाही और
एक हिन्दू संत खुशहालीराम कजरौटी वाले आदि ने अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से भगाने के
लिये सामूहिक संकल्प लिया। इस घटना का आंखों देखा हाल मीर इलाही के अभिलेख में है, जो 12 अक्टूबर 1969 को जालंधर के ‘उर्दूमिलाप’ और दिल्ली के ‘आर्य मर्यादा’ में प्रकाशित हुआ है।
दोनों
समाचार पत्रों में प्रकाशित विवरण की सत्यता की पुष्टि ग्राम सोरम जिला मुजफ्रफर नगर
के चौधरी कबूल सिंह के पास सर्वखाप पंचायत के अभिलेखों से की जा सकती है। इन अभिलेखों
से यह भी सूचना मिलती है कि हिंदू संत खुशहाली राम, क्रान्तिकारी पंडित भीके नारायण
के निकट सम्बन्धी थे जो संत खुशहाली राम से
प्रेरणा लेकर अंग्रेज फौज में भर्ती हो गये और अंग्रेजों के खिलाफ सैनिकों को एकजुट करने लगे। अंग्रेजों को
जब इस अभियान का पता लगा तो पं. भीके नारायन को 20 मई 1857 को फांसी पर चढ़ा दिया। ठीक इसी तरह अजीमुल्ला
को भी अंग्रेजी सरकार का बागी मानकर फांसी दे दी गयी।
खाप पंचायत
के अभिलेखों से यह भी पता चलता है कि इसी माह के कुम्भ मेले के दौरान हरिद्वार में
अनेक क्रान्तिकारी इकट्ठे हुए। वहां चण्डी मंदिर में स्वामी विरजानंद के शिष्य महर्षि
दयानंद पुलिस की निगाहों से बचने के लिए रह रहे थे। विरजानंद ने महर्षि दयानंद को देश
में क्रान्ति की भावना जागृत करने का कार्य सौंप रखा था। क्रान्ति के उद्देश्य की पूर्ति
के लिये महर्षि कानपुर, बिठूर, इलाहाबाद आदि की यात्रा कर वहां के क्रांतिकारियों
से मिल चुके थे। कुम्भ के मेले के दौरान महर्षि दयानंद से मिलने वाजीराव पेशवा के दत्तक
पुत्र धुन्धपन्त [ नाना साहब ], अजीमुल्ला खां, तात्या टोपे, कुंअर सिंह, उत्तरी बंगाल के जमींदार गोबिन्दनाथ राय
तथा रानी लक्ष्मी बाई पधारीं। इन सबने क्रान्ति के प्रयोजनार्थ स्वामीजी को एक हजार
एक सौ रुपये भेंट किये थे तथा आमजन से प्राप्त 635 रुपयों से कुल धनराशि 2835 को स्वामी विरजानंद ने विद्रोह के संचालन
हेतु नाना साहब को दे दी।
इस प्रकार
देखें तो 1857 की क्रान्ति में मंगल पांडेय और उसके साथियों
का अंग्रेजों के प्रति विद्रोह करना चर्बी लगे कारतूस के कारण नहीं बल्कि यह क्रान्ति
सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, जिसकी पुख्ता नींव 1856 में मथुरा के जंगलों में डाली गयी थी।
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