बड़ी
मादक होती है ब्रज की होली
+रमेशराज
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तरह-तरह
के गीले और सूखे रंगों की बौछार के साथ बड़ी ही धूम-धाम से मनाये जाने वाले त्योहार
का नाम ‘होली’ है। होली का सम्बन्ध
एक ओर गेंहू-जौ की पकी हुई फसल को निहारकर प्राप्त होने वाले आनंद से है तो दूसरी ओर
इससे जुड़ी भक्त प्रहलाद की एक कथा भी है। माना जाता है कि एक नास्तिक, अहंकारी, दुराचारी राजा हिरण कश्यप अपने पुत्र प्रहलाद
से इसलिये कुपित रहता था क्योंकि वह केवल अपने को ही सर्वशक्तिमान यहां तक कि भगवान
मानता ही नहीं, मनवाना भी चाहता था। हिरण कश्यप की प्रजा तो उसके
आगे नतमस्तक थी, किन्तु उसका पुत्र प्रहलाद धार्मिक प्रवृत्ति
का और ईश्वर में व्यापक आस्था रखने वाला था। अपने पिता के स्थान पर वह ईश्वर को ही
सर्वशक्तिमान मानता था। पुत्र की यही बात हिरणकश्यप को बुरी लगती थी। इसी कारण वह पुत्र
का विरोधी ही नहीं उसके प्रति आक्रामक और हिंसक भी हो उठा। पुत्रा को मृत्युदण्ड देने
के उसने कई उपाय किये, किन्तु सफल न हो सका। हिरण कश्यप की बहिन
होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। वह प्रहलाद को लेकर धधकती आग पर बैठ
गयी। अपने भक्त पर ईश्वर की कृपा देखिए कि भक्त प्रहलाद तो बच गया किन्तु अग्नि में
न जलने का वरदान प्राप्त करने वाली होलिका जल गयी। इस दृश्य को देखकर जन समूह ने अपार
खुशी मनायी। लोग वाद्ययंत्रों के साथ नाचे-कूदे-उछले-गाये। तभी से होली का त्योहार
हर साल फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन अन्त्यंत मादकता और मस्ती के साथ मनाया जाता
है।
इस दिन की बरसाने की लठामार होली इतनी रोचक और मस्ती
प्रदान करने वाली होती है कि क्या कहने ! पुरुष नारियों पर बाल्टियां और पिचकारी भरकर
रंगों की बौछार करते हैं तो नारियां रंग में भीगते हुए पुरुषों पर लाठियों से प्रहार
करती हैं। होली खेलते हुए मादक चितवनों के वाणों के प्रहार इस त्योहार के अवसर पर जैसा
मधुरस प्रदान करते हैं वह वर्णनातीत है।
ब्रज के लोक-साहित्य में कृष्ण और राधा के माध्यम बनाकर
होली के गीतों को भी बड़े ही रोचक, रसमय तरीकों से लोक
कवियों ने रचा है। इन रसाद्र गीतों को रसिया भी बोला जाता है। होली के अवसर पर लोग
रसिया का लुत्फ, हुरियारे बनकर उठाते हैं । वे रंगों में सराबोर
होते हुए, विजया के मद में डूबे, धमाल मचाते
हैं और ढोल-ढोलक, हारमोनियम, तसला,
चीमटा बजाते हुए इन रसीले गीतों को गाते हैं। शोर-शराबे, हो-हल्ले के साथ निकलने वाली चौपाई और रात्रिबेला में होने वाले फूलडोल अर्थात्
रसिया-दंगल में गाये जाने वाले इन रसभरे गीतों से पूरा वातावरण होलीमय हो जाता है।
होली शरारतों, नटखटपन,
हंसी-ठठ्ठा, मनोविनोद, व्यंग्य-व्यंजना,
मजाक, ठिठोली के साथ खेले जाने वाला ऐसा त्यौहार
है, जिसमें पिचकारी रंगों की वर्षा कर, एक दूसरे का तन तो भिगोती ही है, इस अवसर पर नयनों के
वाण भी चलते हैं। वाण खाकर होली खेलने वाला मुस्कराता है। ‘होली
आयी रे’, होली आयी रे’ चिल्लाता है। वाणों
की पीड़ा उसके मन को रसाद्र करती है। उसमें अद्भुत मस्ती भरती है-
मेरे
मन में उठती पीर
चलावै
गोरी तीर, अचक ही नैनन के।
होली का अवसर हो और होली खेलने में धींगामुश्ती, उठापटक, खींचातानी न हो तो होली कैसी होली। एक हुरियारे
ने होली खेलते-खेलते हुरियारिन की कैसी दुर्दशा की है उसी के शब्दों में-
होली
के खिलाड़, सारी चूनर दीनी फाड़
मोतिन
माल गले की तोरी, लहंगा-फरिया रंग में बोरी
दुलरौ
तिलरौ तोड़ौ हार।
होली खेलने वाली नारि जब होली खेलने के लिये मस्ती में
आती है तो लोक-लाज की सारी मर्यादाओं को तोड़कर होली खेलती है। अपने से बड़े जेठ या
ससुर को भी वह वह देवर के समान प्यार पगे शब्द ‘लाला’ ‘लाला’ कहकर पुकारती है और
स्पष्ट करती है-
लोक-लाज
खूंटी पै ‘लाला’ घरि दई होरी
पै।
होली खेलते हुए रंगों भरी पिचकारियों से निकलती रंगों
की बौछार होली खेलने वाली नारि में मधुरस का संचार करती है-
पिचकारी
के लगत ही मो मन उठी तरंग
जैसे
मिसरी कन्द की मानो पी लई भंग।
होलिका-दहन के उपरांत असल उत्सव शुरू होता है। युवा
वर्ग के हुरियारे भारी उमंग के साथ नृत्य करते, ढोल बजाते, होली के गाने गाते गेंहू की भुनी बालें लेकर
घर-घर जाते हैं। एक-दूसरे के गले मिलते हैं। अपनों से बड़ों के चरण-स्पर्श करते हैं।
बच्चे पिचकारियां और रंग से भरी बाल्टियां लेकर छतों पर चढ़ जाते हैं और टोल बनाकर
आते हरियारों पर रंगों की बौछार करते हैं। फटी हुई पेंट-कमीज पहने, तरह-तरह की मूंछ-दाड़ी, जटाजूट और मुखौटे लगाये हुरियारे जब घर में बैठी नारियों
को होली खेलने के लिये उकसाते हैं तो उनके मन की इच्छा को भांपते हुए उन पर रंग-भरी
बाल्टियां-दर-बाल्टियां उड़ेल देते हैं। प्रतिक्रिया में हुरियारिन डंडा लेकर गली में
निकल आती हैं और डंडे का प्रहार हुरियारों पर करती हैं। डंडों की मार अनूठा प्यार उत्पन्न
करती है। चोट मिठास देती है। हुरियारिन कभी-कभी किसी हुरियारे को पकड़ लेती हैं और
उसे अजीबोगरीब वेशभूषा पहनाकर कैसी दुर्दशा करती हैं, यह भी बड़े
आनंददायी क्षण होते हैं-
सखियन
पकरे नन्द के लाला काजर मिस्सा दई लगाय
साड़ी
और लहंगा पहनाऔ सीस ओढ़न दयौ उढ़ाय
हाथन
मेंहदी, पांयन बिछुआ, पायल,
झुमके भी पहनाय
देख-देख
लाला की सूरत नर और नारि रहे मुस्काय।
कुल मिलाकर होली का पर्व सौहार्द्र तो पैदा करता ही
है, वर्ण-जाति, वैर, द्वेश आदि को भी प्रेम-हास, परिहास और व्यंग्य-विनोद
के माध्यम से समाप्त करने में अपनी सद्भाव की भूमिका निभाता है।
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